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आजकल के नवसमाजवादी पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह (Chaudhary Charan Singh) को समाजवाद का अग्रदूत बताते नहीं थकते हैं, लेकिन तथ्य यह है कि चौधरी साहब किसी भी दृष्टि से समाजवादी नहीं थे, हां इतना जरूर है कि डॉ. लोहिया के गैर कांग्रेसवाद (Non-Congressism of Dr. Lohia) के प्रथम लाभार्थी जरूर थे और यदि यह कहा जाए कि समाजवादी आंदोलन को खत्म करने में चौधरी साहब की महत्वपूर्ण भूमिका थी, तो गलत न होगा।
स्वतंत्र भारत में दल-बदल की बीमारी के जन्मदाता चौधरी साहब
हम जिस सिद्धांतविहीन दल बदल की बीमारी को आज देख रहे हैं, उसके असल प्रणेता चौधरी साहब ही हैं। आगे चलकर चौधरी साहब 17 दल बनाने के लिए भी चर्चित रहे। लोग उस समय मजाक में कहते थे, चौधरी साब हर नौ महीने में एक दल को जन्म देते हैं।
सन् 1952 के प्रथम आम चुनाव में मथुरा लोकसभा क्षेत्र से चौधरी दिगंबर सिंह को सोशलिस्ट पार्टी ने अपना उम्मीदवार घोषित किया। कमांडर अर्जुन सिंह भदौरिया ने मथुरा जाकर चौधरी दिगंबर सिंह का नामांकन कराया। यह खबर होते ही कांग्रेस खेमे में बेचैनी हो गई और चौधरी चरण सिंह को तोड़-फोड़ मिशन पर लगाया गया।
चौधरी साहब का अपनी जाति पर प्रभाव था। उन्होंने मथुरा जाकर चौधरी दिगंबर सिंह को सोशलिस्ट पार्टी छोड़कर कांग्रेस से चुनाव लड़ने के लिए तैयार कर लिया। और इस तरह भारत की संसदीय राजनीति में पहले ही आम चुनाव में दल बदल की बीमारी का प्रवेश हुआ और आज यह इतनी विकराल रूप ले चुका है कि अब इसे बीमारी नहीं, बल्कि दल बदल कराने में महारत हासिल करने वाले व्यक्ति को चाणक्य की संज्ञा से नवाजा जाता है।
इतना ही नहीं 1952 के ही आम चुनाव में मेरठ जिले के छपरौली विधानसभा क्षेत्र से चौधरी चरण सिंह के विरुद्ध सरदार प्रेम सिंह चुनाव लड़े। प्रेम सिंह हरिजन थे और और कड़े मुकाबले में चौधरी साहब से कुल 500 मत से ही पराजित हुए। चुनाव के थोड़े ही दिन बाद सरदार प्रेम सिंह की हत्या कर दी गई।
डॉ. लोहिया के अनन्य सहयोगी कमांडर अर्जुन सिंह भदौरिया अपनी आत्मकथा में लिखते हैं कि,
“भावना यह थी कि एक हरिजन की यह हिम्मत कैसे हुई कि वह चौ. साहब के विरुद्ध खड़ा हो गया ? इसके कुछ समय बाद दलबदल तथा हिंसा का तांडव प्रारम्भ हो गया।”
1967 के आम चुनाव में सारे देश का नक्शा बदल गया। कांग्रेस के अपने अन्तर्विरोध थे और डॉ. लोहिया का गैर-कांग्रेसवाद का फार्मूला काम कर गया। भारत के नौ प्रान्तों में गैर कांग्रेसी सरकारें बनीं।
15 मार्च 1967 को चन्द्रभानु गुप्त के नेतृत्व में सरकार बनी। संविद् विधायक दल में सम्मिलित दलों ने निर्दलीय राम चन्द्र विकल को अपना नेता चुन लिया। 28 मार्च 1967 को डॉ. लोहिया ने कमांडर साहब और राजनारायण व रामसेवक यादव को बुलाकर कहा कि यूपी में किसी ऐसे व्यक्ति की तलाश करो जो 15-16 कांग्रेसी विधायकों को लेकर कांग्रेस से बाहर आने को तैयार हो और उसी को मुख्यमंत्री बना दो।
लखनऊ आकर राजनारायण व रामसेवक यादव के साथ कमांडर साहब चौधरी चरण सिंह से मिले, जो पहले से ही कांग्रेस का घर ढहाने को तैयार बैठे थे। राजनारायण जी ने चौधरी साहब से कहा कि आप विभीषण बनकर रावण का वध करें।
1 अप्रैल 1967 को चौधरी चरण सिंह ने 16 विधायकों के साथ धन्यवाद प्रस्ताव के विरुद्ध मत दिया और कांग्रेस की सीबी गुप्त सरकार गिर गई। सीबी गुप्त सरकार का सोशलिस्टों ने जनसंघ, कम्युनिस्ट पार्टी और चौधरी चरण सिंह के साथ अप्रैल फूल बना दिया। सीबी गुप्त ने उसी दिन त्यागपत्र दे दिया। दो अप्रैल को चरण सिंह संविद् दलों में शामिल हो गए और 3 अप्रैल 1967 को उन्हें उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री पद की शपथ दिला दी गई। इसलिए आज जब दलबदलकर बनती सरकारों को देखे तो किसी चाणक्य को नहीं चौधरी साहब को याद करें।
लेकिन चौधरी साहब जिस तरह कांग्रेस के विभीषण बनकर आए थे, वैसे ही विभीषण संविद् सरकार के लिए भी साबित हुए। सरकार के न्यूनतम साझा कार्यक्रम में पहला ही कार्यक्रम था कि सरकार पहले दिन ही सभी गिरफ्तार छात्रों और अन्य राजबंदियों को रिहा कर देगी। दूसरा था मंत्री का वेतन 500 रुपए ही होगा और 500 रुपए व्यक्तिगत खर्च के लिए अलग से दिया जाएगा। तीसरा था एक सप्ताह के अंदर अलाभकर जोतों से लगान माफ कर दिया जाएगा।
लेकिन चार दिन बीत जाने पर भी किसी छात्र को रिहा नहीं किया गया, तो कमांडर साहब ने चौधरी साहब से कहा कि चार दिन हो गए और आपने किसी भी छात्र को रिहा नहीं किया तो चौधरी सहब ने उत्तर दिया कि यह लॉ एंड ऑर्डर का मामला है, मैं फाइल मंगाकर देखूंगा।
इतना ही नहीं चौधरी चरण सिंह का डॉ. लोहिया के प्रति व्यवहार भी दुर्भाग्यपूर्ण रहा। स्वयं कमांडर साहब लिखते हैं कि “चौ. चरण सिंह” डॉ. लोहिया की बीमारी के दौरान न उन्हें देखने आए न मृत्यु पर शोक सभा में आए।“
संविद् सरकार में संसोपा नेताओं पर लाठीचार्ज
नवंबर 1968 में इन्दिरा गांधी के रायबरेली आगमन पर चौधरी साहब की मौजूदगी में संसोपा से जुड़े छात्र नेताओं पर जबर्दस्त लाठीचार्ज हुआ। 31 दिसंबर को पीएसी के पांज हजार जवान बीएचयू वाराणसी में घुस गए। राजनारायणजी और सरला भदौरिया को बनारस में प्रवेश करते ही गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया। मोदीनगर में चौधरी साहब के चहेते मिल मालिक ने मजदूरों पर गोली चलवा दी जिसमें छह मजदूर मारे गए। इतना ही नहीं चौधरी साहब ने उक्त मिल मालिक को पद्म विभूषण की पदवी देने के लिए सिफारिश भी की। अब चौधरी साहब ने खुलेआम घोषणा भी कर दी कि उन्हें संविद् के कार्यक्रम पर भरोसा नहीं है।
डॉ. लोहिया को बनिया कहा चौधरी साहब ने
कमांडर साहब ने चौधरी साहब से शिष्टाचार भेंट की। कमांडर साहब ने चौधरी साहब से कहा कि अगर आपको संविद् के कार्यक्रम पर भरोसा नहीं है, तो त्यागपत्र दे दीजिए। इस पर चौधरी साहब गुर्रा पड़े और बोले आप जाइए मैं इस्तीफा नहीं दूंगा। कमांडर साहब ने उंगली दिखाकर कहा जनाब आप कल इस कुर्सी पर नहीं होंगे।
उसी दिन शाम को संविद् सरकार में शामिल छह मंत्रियों ने जुलूस निकालकर राजभवन जाकर अपने त्यागपत्र दे दिए, जिससे चौधरी चरण सिंह की सरकार गिर गई। इस जुलूस में उस समय पहली बार विधायक बने मुलायम सिंह यादव भी शामिल थे, जो बाद में चरण सिंह के साथ मिलकर कमांडर साहब को हरवाने के लिए दिन रात एक कर रहे थे।
कमांडर साहब लिखते हैं,
“आज डॉ. लोहिया को गैर-कांग्रेसवाद के लिए याद किया जाता है। यदि वह जीवित रहे होते, तो उनके ही द्वारा लिखित चुनाव घोषणापत्र में लिखा है कि यदि सरकारें न्यूनतम कार्यक्रम छह मास में पूरा न करें तो ऐसी सरकारें गिरा दी जाएं। सन् 1967 की संविद् सरकार में विभीषण का कार्य करके मुख्यमंत्री के पद पर बैठकर न्यूनतम कार्यक्रम की 13 शर्तों में से एक पर भी अमल न करके मुझसे स्वयं संविद् सरकार के तत्कालीन मुख्यमंत्री ने पतन के अंतिम दिन कहा था कि क्या वे बनिए की बात मानने के लिए बाध्य हैं।”
वरिष्ठ पत्रकार कमल सिंह कहते हैं,
“चरण सिंह की सरकार गिराने में सोशलिस्स्ट पार्टी की कमांडर साहब के नेतृत्व में भूमिका थी। चरण सिंह और कमांडर साहब की नहीं पटती थी। डालडा भ्रष्टाचार कांड में कमांडर साहब ने चरण सिंह का विरोध किया और संविद् सरकार टूटी। जनसंघ, चरण सिंह के साथ रही, सोशलिस्टों ने चरण सिंह का विरोध किया।
चरण सिंह ने नीति बनाई थी कि मजदूर आंदोलन नहीं कर सकता है, छात्र संघ नहीं होंगे। चरण सिंह एक एंटी डेमोक्रेटिक पर्सनलिटी थे। वो एक सख्त प्रशासक थे, हालांकि उन्होंने किसानों के हितों को प्रमुखता दी।“
कमल सिंह अतीत को याद करते हुए कहते हैं
“बाद में चौधरी चरण सिंह के खिलाफ हमने कुछ संपादकीय लिखे, तो मुलायम सिंह ने हमें बुलाकर बहुत नाराजगी जाहिर की। हमने कहा कि भई हम तो अपने विचार रख रहे हैं, हम मुलायम सिंह यादव के समर्थक तो थे नहीं। लेकिन मुलायम सिंह यादव समझते थे कि वो लीडर हैं तो हमको डिक्टेट कर सकते हैं। हम तो उनको ऐसा नेता मानते नहीं थे।“
सनद रहे ये वहीं मुलायम सिंह हैं, जो संविद् सरकार से सोशलिस्ट पार्टी के छह मंत्रियों के त्यागपत्र देने के लिए चौधरी चरण सिंह के खिलाफ नारेबाजी करते हुए राजभवन गए थे।
बाद में कमांडर साहब और चौधरी चरण सिंह के बीच पैदा हुई यह दरार और चौड़ी हुई। हालात यहां तक पहुंचे कि चौधरी चरण सिंह 1977 में जेपी के पास जाकर अड़ गए कि कमांडर साहब को लोकसभा चुनाव का टिकट न दिया जाए।
इटावा के वरिष्ठ पत्रकार जयचंद भदौरिया अतीत से परतें उठाते हुए कहते हैं मुलायम सिंह, कमांडर साहब से साधारण संपन्न हुए, वैचारिक संपन्न हुए, साधारण कार्यकर्ता की श्रेणी से ऊपर उठकर शिखर तक गए, पूरा कमांडर साहब का योगदान था, लेकिन सन् 1967 में जो संविद् सरकार बनी थी, उसमें चौधरी चरण सिंह मुख्यमंत्री थे। जब कमांडर साहब ने डॉ. लोहिया की मांगें रखीं कि जो किसान खेत को जोते बोए वही खेत को मालिक होए, पिछड़े पावें सौ में साठ समाजवादियों ने बांधी गांठ, तो चौधरी चरण सिंह इन बातों को करने को तैयार नहीं हुए क्योंकि वो कांग्रेसी संस्कृति के व्यक्ति थे, तो कमांडर साहब ने उस सरकार को ही गिरा दिया।
श्री भदौरिया बताते हैं कि जब सरकार गिर गई तो चौधरी चरण सिंह को एक छटपटाहट थी कि कमांडर भदौरिया से कैसे बदला लें। चरण सिंह कमांडर साहब को कमांडर नहीं कहते थे, कमांडेंट कहते थे। जबकि चौधरी साहब के दूसरे भाई श्याम सिंह, कमांडर साहब के प्रति हमेशा स्नेह रखते थे, यहां गांव में आकर 15-15 दिन रहते थे। चौधरी साहब ने बदला लेना चाहा सन् 1977 में, जय प्रकाश नारायण से टिकट कटवाकर। जयप्रकाश जी ने यह कहा कि अगर कमांडर का टिकट कटेगा जिसके 4 परिजन मीसा में बंद हों, तो टिकट किसे मिलेगा ? तो जेपी जब नहीं माने तो कमांडर साहब का टिकट हो गया।
वह बताते हैं टिकट हो जाने के बाद जब बंटवारा हुआ, जय प्रकाशजी और कमांडर साहब की इच्छा थी कि जगजीवन राम प्रधानमंत्री बनें, तो चौधरी साहब ने कमांडर साहब को हरवाने का काम किया। सत्यदेव त्रिपाठी और मुलायम सिंह, दोनों लोग कमांडर साहब को हरवाने पर जुट गए। उस समय चुनाव आयोग केवल स्टेशनरी दफ्तर था, टीएन शेषन के बाद महत्व बढ़ा इसका। उस समय हर पोलिंग स्टेशन पर लाल पेन से कमांडर साहब के हजारों वोट काट दिए गए। पूरी सरकार और चौधरी चरण सिंह कमांडर साहब को हरवाने पर लगे रहे, फिर भी कुछ सौ वोटों से कमांडर साहब हारे।
फिर कमांडर साहब ने चौधरी साहब से कहा कि चौधरी साहब हम तो हार गए सरकार और संसाधन से, लेकिन आप प्रधानमंत्री हैं तो आ जाओ जसवंतनगर में, हम मुलायम सिंह को हराने जा रहे हैं।
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फिर कमांडर साहब ने महीनों खाना पीना छोड़कर मुलायम सिंह को हरवाकर बलराम सिंह को जितवा दिया। वहां से खाई बढ़ी।
मुलायम सिंह के हारने के बाद चौधरी साहब ने उन्हें एमएलसी बना दिया, फिर वहां से लीडरशिप बनी। मुलायम सिंह यादव पिछले सारे रिश्ते भूल गए।
श्री भदौरिया बताते हैं कि यह इसलिए बताना जरूरी है कि जब मुलायम सिंह शिखर पर आए तो उन्होंने सल्तनत अपने बेटे को सौंप दी। और बेटे ने उनका क्या हश्र किया। लेकिन मुलायम सिंह और पूरे देश को याद नहीं है कि कमांडर साहब का इटावा से लेकर पूरा फतेहपुर और बाराबंकी तक डंका बजता था, समाजवादी अगर जीतते थे तो कमांडर अर्जुन सिंह भदौरिया के नाम पर जीतते थे, डॉ. लोहिया फर्रुखाबाद में गर जीते तो कमांडर साहब के नियोजन पर उनके संयुक्त निर्वाचन क्षेत्र से। उन कमांडर साहब ने तो उसी दिन अपनी पूरी सत्ता पिछड़ों-दलितों को सौंप दी थी, जिस दिन राजनीति में कदम रखा था।
अमलेन्दु उपाध्याय
(ऐतिहासिक तथ्य कमांडर अर्जुन सिंह भदौरिया की आत्मकथा नींव के पत्थर से )