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Mutation of the Upper House is a sign to be silent
The suspension of eight members from the Rajya Sabha is also illegal.
मीडिया की एक खबर के अनुसार, सभापति राज्यसभा द्वारा किया गया राज्यसभा से आठ सदस्यों का निलंबन भी अवैधानिक है, क्योंकि जिन्हें निलंबित किया गया है उनका पक्ष तो सुना ही नहीं गया। उन्हें अनुशासनहीनता का नोटिस (Indiscipline notice) दिया जाना चाहिए थी। सांसद और सभापति के बीच, ब्यूरोक्रेटिक तंत्र के अफसर मातहत टाइप रिश्ता नहीं होता कि जब अफसर को बाई चढ़ी उसने स्टेनो बुलाया और निलंबन आदेश टाइप करा कर दस्तखत कर दिया।
Announced the motion of no confidence against the Deputy Chairman
कल जब विपक्षी सांसदों ने उप सभापति के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाने की घोषणा की, तो उस पर जब सदन में बहस होती तो कई चीजें साफ होती। सत्तापक्ष भी एक्सपोज होता और विपक्ष के खिलाफ में काफी कुछ कहा जाता। इस फजीहत से बचने के लिये सभापति ने आनन-फानन में सांसदों का निलंबन आदेश जारी कर दिया और मानसून सत्र के शेष दिनों के लिये 8 सदस्यों को निलंबित कर दिया।
देखा जाय तो, अब सरकार को सदन की ज़रूरत भी नहीं है। बिल तो उसने जैसे-तैसे दबाव देकर पास करा ही लिया।
उच्च सदन का म्यूट हो जाना नोटबंदी, व्यापारबंदी, और तालाबंदी के बाद ज़ुबांबंदी का एक प्रतीक है। सदन की कार्यवाही को कवर करने वाले और लोकसभा टीवी, राज्यसभा टीवी (Lok Sabha TV, Rajya Sabha TV) से जुड़े कुछ पूर्व सम्पादक और पत्रकारों का कहना है कि यह म्यूट करने की तकनीक या म्यूट बटन, केवल उपसभापति के पास रहती है। या तो वे खुद यह बटन दबा कर ज़ुबांबंदी कर दें या उनके निर्देश पर कोई और सदन की आवाज़ें खामोश कर दे।
मैं कल राज्यसभा टीवी पर इस बिल पर चल रही बहस की कार्यवाही देख रहा था कि अचानक आवाज़ आनी बंद हो गयी। लोग हंगामा करते दिख रहे थे, सदन के वेल में उत्तेजित होकर घूमते दिख रहे थे, उपसभापति अपने स्टाफ या न जाने किससे कुछ मशविरा करते दिख रहे थे, पर आवाज़ नहीं आ रही थी।
मुझे लगा कि, कहीं मेरा ही रिमोट तो नहीं दब गया है। पर वह ठीक था। टीवी दोबारा ऑफ कर के ऑन किया पर सदन की गतिविधियां जारी थीं, पर आवाज़ म्यूट थी। बाद में पता चला कि यह जानबूझकर म्यूट किया गया था।
अब इससे यह नहीं पता चल रहा है कि कौन क्या और किसे कह रहा था। फिर सदन स्थगित हो जाता है। थोड़ी देर बाद सदन पुनः शुरू होता है। फिर एक-एक कर के उपसभापति, बिल के एक एक संशोधनों को पढ़ते जाते हैं और उसी पर यस और नो यानी हुंकारी और नहीं दुहराते जाते हैं। बिल्कुल सत्यनारायण बाबा की कथा की तरह वे धाराप्रवाह पढ़ते जाते हैं, और फिर अंत में बिल पास हो गया, कह कर पीछे पतली गली से अदृश्य हो जाते हैं।
एक कानून विधिनिर्माताओं ने बना दिया और अब इस पर राष्ट्रपति के दस्तखत होने हैं, जो औपचारिकता भी है और नहीं भी। अगर राष्ट्रपति विवेक से देखते हैं तो वे कुछ आपत्ति के साथ या अनापत्ति के साथ उसे संसद को लौटा सकते हैं। पर ऐसा बहुत कम होता है।
हमारे यहां बाथरूम में बैठ कर कानूनों पर दस्तखत करने की आज्ञापालक परंपरा रही है, और हम सब हज़ारों साल की परंपरा निभाने में सदैव गर्व का अनुभव करते हैं, तो यही परंपरा अब भी बाकी है।
राज्यसभा के सांसदों का कहना है कि, जब पहले से सदन को एक बजे तक चलाने की बात तय थी तो, उसे क्यों बढ़ाया गया ?
मत विभाजन की मांग होने पर, उपसभापति ने मत विभाजन क्यों नहीं कराया ?
एक भी सदस्य अगर मतविभाजन की मांग करता है तो मतविभाजन कराया जाना चाहिए।
ध्वनिमत भी बिल पर वोट लेने का एक उपाय है। अगर ट्रेजरी बेंच यानी सरकार एक आरामदायक बहुमत में रहती तो इस उपाय पर किसी को आपत्ति नहीं होती। लेकिन सरकार राज्यसभा में अल्पमत में है और इस बिल पर उसे अकाली दल का भी साथ नहीं था और हो सकता था अन्य दल भी, घोषित विपक्ष के अतिरिक्त इस बिल के विरोध में जाते, तो यह बिल गिर जाता और यह कानून अध्यादेशों की शक्ल में, अगर छह माह तक पास नहीं होता तो ही बना रहता और उसके बाद स्वतः निष्प्रभावी हो जाता।
अभद्रता और विधिविहीनता कहीं भी हो, वह निंदनीय है, सदन में कुछ सांसदों द्वारा की गयी अभद्रता भी अवांछित, अनापेक्षित और निंदनीय है। सदन खुद ही ऐसी कार्यवाहियों पर अंकुश लगाने और ऐसे सांसदों के खिलाफ कार्यवाही करने के लिये सक्षम है। लेकिन इस अभद्रता और विधिविहीनता की आपदा के बीच तुरन्त एक अवसर की तलाश कर के, अविधिक रूप से यह विधेयक पारित करा लेना भी तो निंदनीय ही कहा जायेगा। बल्कि यह अधिक शर्मनाक है, क्योंकि यह कृत्य उसके द्वारा किया गया है जिसके ऊपर सदन को सदन की रुलबुक के अनुसार चलाने का दायित्व है।
सरकार को भी यह पता था, और उपसभापति भी इस दांव पेंच से अनजान नहीं थे। इसलिए उन्होंने यह जिम्मा खुद ओढ़ा और बेहद फूहड़ तऱीके से समस्त संसदीय मर्यादाओं को ताख पर रखते हुए, इस बिल को ध्वनिमत से पास घोषित कर दिया और फिर जो काम उन्हें सौंपा गया था उसे पूरा किया।
सच तो यह है कि अगर विधेयकों के पारित कराने की संवैधानिक बाध्यता नहीं रहती और छह महीने से अधिक दो अधिवेशनों में अंतराल, संवैधानिक रूप रखा जाना आवश्यक नहीं होता तो सरकार कभी संसद ही नहीं बुलाती। पर यह संवैधानिक अपरिहार्यतायें हैं कि सरकार को सदन बुलाना पड़ता है।
विजय शंकर सिंह
( लेखक अवकाशप्राप्त आईपीएस अधिकारी हैं। )