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सिनेमा को समृद्ध करने का 'नाम था कन्हैयालाल'

सिनेमा को समृद्ध करने का 'नाम था कन्हैयालाल'

naam tha kanhaiyalal

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कन्हैयालाल पर डॉक्यूमेंट्री फिल्म 'नाम था कन्हैयालाल' (Naam tha Kanhaiyalal review)

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'नाम था कन्हैयालाल' की समीक्षा

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साल 1910 में वाराणसी में पिता पंडित भैरव दत्त चौबे के यहां पैदा हुए एक बच्चे जिसे नाम मिला कन्हैया लाल उसे आज दुनिया में कितने लोग जानते हैं? सिनेमा से जुड़ी आज की पीढ़ी तो उन्हें बिल्कुल भी नहीं जानती होगी। और हैरानी तो तब होती है जब उन पर कोई डॉक्यूमेंट्री फिल्म बने और उसमें यह सब बताया, दिखाया जा रहा हो।

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सनातन धर्म नाटक राम लीला मंडी नाम की नाट्य शाला के संचालक के पुत्र ने वहीं पर अभिनय की ऐसी बारीकियाँ सीखी जिन्हें वक्त की खुरचन भी कम ना कर सकी। लेकिन अफसोस फिर से की उन्हें भुला दिया गया। एक ऐसे व्यक्तिव को भुला दिया गया जिसने सिनेमा को समृद्ध किया।

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यह डॉक्यूमेंट्री बताती है कि बनारस में नाटक जब शिथिल होने लगे, उस समय वे मुम्बई पहुंचे अपने भाई संकटा प्रसाद की खोज में। जहाँ उन्हें भाई के साथ-साथ काम भी मिला। इसके बाद कृष्काय अवस्था में पड़े सिनेमा को उन्होंने समृद्धि प्रदान की उसकी छांव तले आज भी बड़े-बड़े कलाकार पनाह लेते हैं।

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शब्दों का गुलबाग खिलाने वाले कन्हैया ने शुरुआत साधना फिल्म में गीत लिखकर की। गीतकार, लेखक, निर्देशक बनने का ख्वाब पाले कन्हैया एक दिन अचानक से ही अभिनय में आये और उसके बाद की कहानी है इसमें। लेकिन उन्हें जानता कौन है? इस बात के जवाब में नसीरुद्दीन शाह की एक बात गौर करने लायक है - हर एक्टर की जिंदगी इन पांच दौर से गुजरती है। जब वे अपने ही उदाहरण से बताते हैं

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पहला दौर - नसीरुद्दीन शाह कौन है

दूसरा - मुझे चाहिए नसीरूद्दीन शाह

तीसरा - नसीरूद्दीन जैसा कोई चाहिए

चौथा - एक जवान नसीरुद्दीन चाहिए

और पांचवा फिर से कौन है नसीरुद्दीन शाह ?

यह बात सच है मायानगरी मुंबई के लिए और वहां काम करने वाले अच्छे से अच्छे कलाकार एक समय बाद किसी गुमनामी की जिन्दगी में खो जाते हैं। उन्हें पूछने वाला कोई नहीं होता। बाहर से जितनी चमक दमक इसमें नज़र आती है उतना ही खोखलापन भी इसमें है। यहां उनके बारे में प्रख्यात सिने लेखक एवं जीवनीकार शिशिर कृष्ण शर्मा ने भी इसमें विस्तार से बताया है।

कलाकार मरता कब है?

कलाकार मर कर भी जिंदा रहता है अपनी कलाकृति के चलते लेकिन जब दुनिया उन्हें भुला दे तब मरते हैं वे असल में। यह डॉक्यूमेंट्री उन्हीं कन्हैयालाल को फिर से जिंदा करने का प्रयास है जिन्होंने फिल्म ‘मदर इंडिया’ में सूदखोर, दुष्ट सुक्खी लाला का किरदार निभाया था। कन्हैयालाल आखिर थे कौन, सिनेमा में कन्हैयालाल का रुतबा क्या था, यह शायद ही किसी को मालूम हो।

निर्देशक पवन कुमार व मुकेश सिंह की यह डॉक्यूमैंट्री यही सब बताती, दिखाती है। फिल्म ‘साधना’ के लिए गीत लिखने से शुरूआत करने वाले कन्हैयालाल के बारे में जिस रोचक अंदाज में उनके मुंबई आने और यहीं का होकर रह जाने तथा अभिनय के बजाए लेखन की दुनिया में जाने का ख्वाब संजोने वाले इस अभिनेता के बारे में बताया जाता है वह हैरान तो करता ही है। साथ ही इस बात के लिए ज्यादा हैरानी होती है कि वही एक दिन अभिनय की उन चरम ऊंचाईयों को छूते हैं जिसका सपना लेकर हर अभिनेता आता है। कन्हैयालाल की उन ऊंचाईयों को फिल्म में उनकी बेटी हेमा सिंह यादों के सहारे संजोती नजर आती है।

फिल्मी दुनिया से जुड़े कई बड़े सितारों ने डॉक्यूमैंट्री में अपने-अपने शब्दों और यादों के साथ इसे और यादगार तथा दर्शनीय बना दिया है।

अमिताभ बच्चन, नसीरुद्दीन शाह, बोमन ईरानी, बोनी कपूर, जॉनी लीवर, पंकज त्रिपाठी, बीरबल खोसला, जावेद अख्तर, अनुपम खेर, पेंटल, रणधीर कपूर, सलीम खान आदि के शब्दों से हमें फिल्मी दुनिया के उस अनमोल हीरे के बारे में पता चलता है जिसे हम और हमारा समाज भुला चुका है।

साहित्य हो या राजनीति या सिनेमा हो या कुछ भी और उसमें हम हमेशा इतिहास को हम याद तो करते हैं, लेकिन उसे सहेज कर नहीं रख पाते या कहें सहेजना नहीं चाहते। उसी का परिणाम फिर यह निकल कर सामने आता है कि कन्हैयालाल जैसे बड़े कद के अभिनेता भी वक्त की आंधियों में धूल फांकते नजर आते हैं।

यह डॉक्यूमेंट्री सिनेमा के उन प्रेमियों के लिए एक सुनहरा तोहफा है जो सहेजने और याद रखने लायक है। ऐसी कहानियां और भी कलाकारों की बाहर आनी चाहिए। जिस खूबसूरती से इसे बनाया गया है उसके लिए पूरी टीम की तारीफ की जानी चाहिए। बचपन से लेकर अंत समय तक की महत्वपूर्ण बातें इसमें दिखाई, सुनाई गई हैं।

ऐसा बिल्कुल नहीं है कf यह आम डॉक्यूमेंट्री की तरह नीरस हो गई उसका भी विशेष ख्याल किया गया है ‘पहन के धोती कुर्ते का जामा’ गीत में उस अप्रतिम कलाकार को सुन्दर श्रद्धांजलि जैसा भी लगता है।

कुछ एक जो कमियां हैं उन्हें भुलाया जाना चाहिए और याद रखा जाना चाहिए तो इस डॉक्यूमेंट्री को।

हां एंकर 'कृप कपूर सूरी' एक अच्छा चुनाव नहीं है एंकर के रूप में।

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डॉक्यूमेंट्री का उर्दूदीदापन आज की पीढ़ी को देखते हुए अखर सकता है लेकिन जिस जमाने के कलाकार पर यह बनाई गई है उसके हिसाब से यह परफेक्ट भाषा का नमूना हैं। हां बीच-बीच में विज्ञापन आने से कुछ उच्चारण समझ नहीं पड़ते। साथ ही यह डॉक्यूमेंट्री केवल 'मदर इंडिया' में उनके निभाए गए अमर किरदार को छोड़ किसी पर बात नहीं करती जबकि पचास से ज़्यादा फ़िल्में उनके नाम दर्ज हैं जिनमें उन्होंने किसी ना किसी तरह से अपनी भूमिका निभाई है। बाक़ी फिल्मों पर भी थोड़ा-थोड़ा और बताया सुनाया जाता मदर इंडिया को केवल फोकस ना किया जाता तो यह और भी बेहतर हो सकती थी।

इस डॉक्यूमेंट्री फिल्म में साउंड, गीत-संगीत, कैमरा, निर्देशन, लुक आदि बेहद प्यारे हैं और फिल्म की थीम के मुताबिक़ रखे गए हैं। किसी ने सही लिखा है -

बड़े बड़े नामवरों का नाम भी

रद्दी की टोकरी में मिलता है

बड़ी जालिम है दुनिया

उगते सूरज को ही सलाम ठोकता है

एक ऐसे सरल व्यक्तित्व और सहज अभिनेता जिसके सामने अमिताभ बच्चन तक खुद को छोटा महसूस करते हों तो उसके कद का अंदाजा आप लगा सकते हैं। क्योंकि उन्होंने उस समय सिनेमा को सजाया, संवारा, बनाया और दिशा दी जब कोई समुचित साधन या कोई तकनीक नहीं थी और अपने काम से उन्होंने वो शिखर छुआ जो आज भी एक्टर्स लोगों के लिए ही नहीं बल्कि हर सिने प्रेमी के लिए संदर्भ ग्रंथ है।

तेजस पूनियां

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