पं. जवाहर लाल नेहरू के लिए गुटनिरपेक्षता के सिद्धांत

पं. जवाहर लाल नेहरू के लिए गुटनिरपेक्षता के सिद्धांत

NAM and Nehru’s Principled Stand: Part 2

गुटनिरपेक्ष आंदोलन और नेहरू का सैद्धांतिक रुख़ : II | The Non-Aligned Movement and Nehru's Theoretical Stance: II

पं. नेहरू के लिए गुटनिरपेक्षता के सिद्धांत | Principles of Non-Alignment for Pt. Nehru

पं. जवाहर लाल नेहरू के लिए आम तौर पर निरस्त्रीकरण (disarmament) और ख़ास तौर पर परमाणु हथियारों का उन्मूलन (elimination of nuclear weapons) गुटनिरपेक्षता के सिद्धांत (principles of non-alignment) के अटूट हिस्से थे।

जिस विकासक्रम का गुटनिरपेक्ष नीति को आकार देने पर अहम असर पड़ा था, वह था अक्टूबर 1949 में नेहरू की संयुक्त राज्य का दौरा। अमेरिकी प्रशासन ने चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के सत्ता में आने को ध्यान में रखकर ही उस दौरे का समय निर्धारित किया था। अमेरिका के ऑस्टिन स्थित टेक्सास यूनिवर्सिटी के प्रोफ़ेसर एचडब्ल्यू ब्रांड्स { Professor HW Brands (Henry William Brands ) from the University of Texas at Austin, USA } के मुताबिक़, "चीन में कम्युनिस्ट की जीत के साथ ही अमेरिकियों ने भारत को नयी नज़रों से देखना शुरू कर दिया था। अक्टूबर 1949 में भारतीय प्रधान मंत्री जवाहरलाल नेहरू ने संयुक्त राज्य का दौरा किया ... हर बड़े अख़बार ने नेहरू के उस दौरे को अहमियत देते हुए संपादकीय लिखे थे; समाचार पत्रिकाओं और ख़बर देने वाली पत्रिकाओं ने इस पर विस्तार से चर्चा की थी कि भारत को बदली हुई दुनिया में किस तरह की भूमिका निभानी चाहिए। पीपल्स रिपब्लिक ऑफ़ चाइना की आधिकारिक घोषणा के कुछ दिनों बाद ही नेहरू संयुक्त राज्य अमेरिका पहुंचे थे; तक़रीबन सभी अमेरिकी पत्र-पत्रिकाओं की टिप्पणियों में एक ही बात लिखी जा रही थी कि चीन हाथ से निकल गया है, भारत नहीं निकलना चाहिए…दक्षिण एशिया को लेकर इस पश्चिमी धारणा को आगे बढ़ाने का मक़सद भारत और पाकिस्तान को साम्यवाद के ख़िलाफ़ मज़बूत करना था…”

नेहरू के उस दौरे के दौरान अमेरिकी प्रतिष्ठान ने नेहरू पर चीन के जनवादी गणराज्य को मान्यता देने से रोकने और भारत को कम्युनिस्ट विरोधी खेमे में खींचने के लिए काफ़ी दबाव डाला था। हालांकि, नेहरू ने उस आर्थिक सहायता के बदले भारत को एक सैन्य गठबंधन में उलझाने के सभी अमेरिकी प्रयासों को ख़ारिज कर दिया था, जिसे नेहरू हासिल करने गये थे।

नेहरू ने अमेरिकी सहायता हासिल किये बिना भारत को अमेरिकी प्रतिष्ठान के धड़े का अनुसरण करने के बजाय ख़ाली हाथ घर लौट जाने का विकल्प चुना था।

अमेरिका की मिसौरी यूनिवर्सिटी में इतिहास के प्रोफ़ेसर प्रो. डेनिस मेरिल ने उस समय की भारत-अमेरिकी बैठकों के नतीजे को इस तरह बताया है, "जब अमेरिकी अधिकारी इस निष्कर्ष पर पहुंच गये कि अमेरिकी विदेश नीति के मामले में भारत की रूचि बहुत कम है, तो उन्होंने उस भारत की तरफ़ से मांगी जाने वाली आर्थिक सहायता के अनुरोध को नामंज़ूर कर दिया।"

भारत ने वस्तु विनिमय व्यापार के ज़रिये चीन से चावल हासिल करना शुरू किया, इसके बाद ही अमेरिका भारत को गेहूं बेचने के लिए मजबूर हुआ। द न्यूयॉर्क टाइम्स (The New York Times) के 2 जनवरी 1951 को प्रकाशित अंक के पृष्ठ संख्या छह में एक शीर्षक दिया था-चीन भारत को बेचेगा चावल; जूट को लेकर वस्तु विनिमय सौदे में 50,000 टन अनाज भेजने को लेकर अमेरिकी प्रशासन को ज़बरदस्त झटका।

इस खबर के सामने आने के छह हफ़्ते बाद 12 फ़रवरी 1951 को अमेरिकी राष्ट्रपति ने अमेरिकी कांग्रेस को भारत को दो मिलियन टन अनाज ऋण पर उपलब्ध कराने की सिफ़ारिश की थी। इसके बावजूद, 15 जून 1951 को अमेरिकी राष्ट्रपति को औपचारिक रूप से उस भारत आपातकालीन खाद्य सहायता अधिनियम, 1951 पर हस्ताक्षर करने में तीन महीने लग गये।

इस बीच चीन और सोवियत संघ दोनों ने भारत को ज़्यादा खाद्यान्न बेचने की पेशकश कर दी थी। साथ ही नेहरू ने 1 मई 1951 को यह साफ़ कर दिया था कि "हालांकि, भारत मदद के लिए आभारी है, लेकिन अगर उसके साथ 'कोई राजनीतिक तार जुड़ा हुआ' है,तो वह किसी भी देश से खाद्यान्न लेना स्वीकार नहीं करेगा।"

सकारात्मक तटस्थता (positive neutrality)

नेहरू उस सकारात्मक तटस्थता के प्रबल समर्थक थे, जिसमें सैन्य गठबंधनों के ख़ात्मे के ख़िलाफ़ सक्रिय क़दमों वाले संयुक्त सैन्य गुटों में ग़ैर-भागीदारी और निरस्त्रीकरण के मक़सद को बढ़ावा देना शामिल था। इससे अंतर्राष्ट्रीय तनावों को कम करने के लिहाज़ से अंतर्राष्ट्रीय विवादों के निपटारे में मध्यस्थता में मदद मिली। इसका मतलब था- उपनिवेशवाद का सख़्त विरोध (Strong opposition to colonialism) और आज़ादी के लिए लड़ रहे सभी लोगों को सक्रिय समर्थन देना। इसका अटूट हिस्सा रंगभेद और नस्लवाद के ख़िलाफ़ वह संघर्ष भी था, जो कि नस्लों की पूर्ण समानता और किसी के भी ख़िलाफ़ भेदभाव पर प्रतिबंध लगाने की मांग में प्रतिबिंबित हो रहा था। सबसे बड़ी बात तो यही थी कि भारत ने इस सकारात्मक तटस्थता के ज़रिये ख़ुद को विश्व शांति को बनाये रखने और मज़बूत करने के सक्रिय अभियान में अभिव्यक्त किया।

भारत और कोरियाई युद्ध (India and Korean War)

भारत 25 जून 1950 को उत्तर और दक्षिण कोरिया के बीच हिंसक शत्रुता के प्रकोप को लेकर बेहद चिंतित था। 13 जुलाई 1950 को दक्षिण कोरिया की ओर से अमेरिका और उसके सहयोगियों ("संयुक्त राष्ट्र बलों" की आड़ में) के उस युद्ध में दाखिल होने के बाद नेहरू की ओर से सोवियत संघ और अमेरिका को भेजे गये संदेश में कहा गया कि भारत का लक्ष्य "इस संघर्ष को स्थानीय बनाये रखना और त्वरित, शांतिपूर्ण समाधान में सहायता करना" है।

नेहरू का कहना था कि अमेरिका, सोवियत संघ और पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ़ चाइना, अन्य देशों की सहायता से"... कोरियाई समस्या के अंतिम समाधान के लिए इस संघर्ष के ख़ात्मे के लिए किसी आधार की तलाश करें।" (संदर्भ: यूरी नसेंको, "जवाहरलाल नेहरू एंड इंडियाज़ फ़ॉरेन पॉलिसी", स्टर्लिंग पब्लिशर्स, 1977 पृष्ठ संख्या-106)।

सोवियत संघ ने नेहरू के उस प्रस्ताव का तो स्वागत किया था, लेकिन संयुक्त राज्य अमेरिका ने उसे अस्वीकार कर दिया था।

साथ ही साथ व्यापक हवाई बमबारी के चलते उत्तर कोरिया में अमेरिकी युद्ध अपराधों की ख़बरें सामने आने लगी थीं। इस अमेरिकी हस्तक्षेप के ख़िलाफ़ भारत में विरोध आंदोलन तेज़ हो गये। द न्यूयॉर्क टाइम्स ने भी इस पर ध्यान दिलाया।

द न्यूयॉर्क टाइम्स की एक रिपोर्ट के मुताबिक़, "भारत में अमेरिका विरोधी भावना इतनी व्यापक कभी नहीं रही, जितनी इस समय है। कोरियाई युद्ध के हर दिन वहां के शहरों पर बमबारी और गांवों के जलने की ज़्यादा से ज़्यादा ख़बरें आने लगी हैं, इससे संयुक्त राज्य की अलोकप्रियता बढ़ रही है।”

दक्षिण कोरिया से उत्तर कोरिया की सेना को पीछे धकेलने के बाद यह साफ़ हो गया कि "संयुक्त राष्ट्र सेना" उत्तर कोरिया पर हमले करने की तैयारी कर रही थी। पीआरसी ने चीन में भारतीय राजदूत के ज़रिये भारत को सूचित किया कि अगर "संयुक्त राष्ट्र सेना" 38वें समानांतर(उत्तरी और दक्षिण कोरिया की सीमा रेखा) को पार कर जाती है, तो उसे उस युद्ध में दाखिल होने के लिए मजबूर होना पड़ेगा। युद्ध को बढ़ने से रोकने के लिए नेहरू ने 30 सितंबर 1950 को एक प्रेस कॉन्फ़्रेंस बुलायी और "संयुक्त राष्ट्र बलों" से 38 वें समानांतर को पार नहीं करने का आग्रह किया। लेकिन, संयुक्त राज्य अमेरिका ने नेहरू की उस सलाह को नज़रअंदाज़ करने का रास्ता चुना और 1 अक्टूबर 1950 को उत्तर कोरिया पर हमला कर दिया। इसका नतीजा यह हुआ कि चीन 19 अक्टूबर, 1950 को उत्तर कोरिया की ओर से युद्ध में शामिल हो गया।

नवंबर 1950 के आख़िर तक चीनी और उत्तर कोरियाई सेनाओं ने "संयुक्त राष्ट्र बलों" को 38वें समानांतर से आगे धकेल दिया। इसके बाद हताश होकर राष्ट्रपति हैरी ट्रूमैन ने उत्तर कोरिया के ख़िलाफ़ परमाणु हथियारों के इस्तेमाल की धमकी भी दे डाली। उसके बाद, 11 अप्रैल 1951 तक हमलों और जवाबी हमलों की एक श्रृंखला तब तक चलती रही, जब तक कि युद्ध को आगे बढ़ाने के इरादे से अमेरिकी सहयोगियों की अवज्ञा करने वाले "संयुक्त राष्ट्र बलों" के कमांडर के रूप में तैनात जनरल मैकआर्थर की जगह किसी ओर ने नहीं ले ली। तब से लेकर जुलाई 1953 तक कुछ छिटपुट हिंसक घटनाओं को छोड़ दिया जाये, तो लड़ाई व्यावहारिक रूप से 38 वें समानांतर के आसपास ही होती रही।

1951-1952 के दौरान किसी समझौता वार्ता पर पहुंचने के कई प्रयास हुए। हालांकि, युद्ध बंदियों की अदला-बदली के तौर-तरीक़ों को लेकर मतभेद बना रहा। 17 नवंबर 1952 को भारत ने इस मुद्दे को हल करने के लिए तटस्थ राष्ट्रों के एक आयोग का प्रस्ताव रखा, जिसे संयुक्त राष्ट्र महासभा ने 3 दिसंबर 1952 को स्वीकार कर लिया। 27 जुलाई, 1953 को कोरिया में युद्धविराम पर हस्ताक्षर करने वाले सभी सम्बन्धित पक्षों को एक मेज पर लाने में सात महीने और लग गये। भारत को युद्ध के क़ैदियों के प्रत्यावर्तन पर तटस्थ राष्ट्र आयोग की अगुवाई करने और क़ैदियों के आदान-प्रदान के दौरान सुरक्षा बल मुहैया कराने के लिए कहा गया।

इस तरह, इतिहासकार और मॉस्को स्थित पैट्रिस लुमुम्बा पीपुल्स फ़्रेंडशिप यूनिवर्सिटी में इतिहास के पूर्व प्रोफ़ेसर यूरी नसेंको के मुताबिक़, "भारत कोरिया में शांतिपूर्ण समझौता कराने के ख़द के प्रयासों के लिए बहुत हद तक श्रेय पाने का हक़दार है और माना जाता है कि भारत की तरफ़ से दिये गये मसौदा प्रस्ताव ने ही वह आधार बनाया,जिससे युद्ध बंदियों पर समझौता हो पाया और इसी चलते कोरिया मामले को लेकर चल रही वार्ता को गतिरोध से बाहर निकाल पाना संभव हो पाया।”

'यथास्थिति समझौता'

नेहरू उस समय के तीन देशों,यानी यूएस, यूएसएसआर और यूके की ओर से किये जा रहे वायुमंडलीय और पानी के नीचे परमाणु हथियार परीक्षणों की श्रृंखला से बेहद परेशान थे। 1 मार्च 1954 को प्रशांत द्वीप समूह पर अमेरिका की ओर से किये गये हाइड्रोजन बम के वायुमंडलीय परीक्षण के कथित गंभीर प्रभाव (The alleged serious effects of the atmospheric test of the hydrogen bomb) से चिंतित नेहरू ने 2 अप्रैल 1954 को भारतीय संसद में गंभीर चिंता जतायी।

उन्होंने कहा था,

"मात्रा और तीव्रता दोनों ही लिहाज़ से अभूतपूर्व शक्ति वाले इस नये हथियार की समय और स्थान के सिलसिले में विनाशकारी क्षमता की सीमा के बारे में अंदाज़ा तक नहीं लगाया जा सकता है, इस समय इसका परीक्षण किया जा रहा है। युद्ध के हथियार के तौर पर इस्तेमाल करने को लेकर इसकी व्यापक शक्ति उजागर होती है... हमें बताया गया है कि इस हाइड्रोजन बम के ख़िलाफ़ कोई प्रभावी सुरक्षा भी नहीं है और एक विस्फोट से लाखों लोग तबाह हो सकते हैं…ये आशंकायें भयानक हैं, और यह तमाम राष्ट्रों और लोगों को हर जगह प्रभावित करेगी,इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि हम युद्धों या सत्ता संघर्ष के गुटों में शामिल हैं या नहीं… मानव जाति को इस वास्तविकता को लेकर ख़ुद को जगाना होगा और दृढ़ संकल्प के साथ इस स्थिति का सामना करना होगा और आपदा से बचने के लिए ख़ुद को मुखर बनाना होगा… सामूहिक विनाश के इन हथियारों के निषेध और उन्मूलन के सिलसिले में पूर्ण या आंशिक किसी भी तरह के समाधान की दिशा में प्रगति अब भी बाक़ी है…सरकार (भारत की सरकार) अभी और तत्काल उठाये जाने वाले क़दमों में से निम्नलिखित पर विचार करेगी :

“कम से कम इन वास्तविक विस्फ़ोटों के सिलसिले में ख़ास तौर पर सम्बन्धित देशों के बीच उस क़रार तक पहुंचने की पर्याप्त व्यवस्था का इंतज़ार करना चाहिए,जिसे "यथास्थिति समझौता" कहा जा सकता है, भले ही इसमें उत्पादन और भंडारण को बंद करने की व्यवस्था क्यों न हो….”

नेहरू की नज़र में आम तौर पर निरस्त्रीकरण और ख़ास तौर पर परमाणु हथियारों का उन्मूलन गुटनिरपेक्षता के सिद्धांत के अटूट हिस्से थे।

एन.डी. जयप्रकाश

(लेखक दिल्ली साइंस फ़ोरम के संयुक्त सचिव और परमाणु निरस्त्रीकरण और शांति गठबंधन की राष्ट्रीय समन्वय समिति के सदस्य हैं। इनके व्यक्त विचार निजी हैं।)

(न्यूजक्लिक में प्रकाशित गुटनिरपेक्ष आंदोलन की श्रृंखला के दूसरे भाग का संपादित रूप साभार)

Topics - NAM, Non-Aligned Movement, United States wars, Jawaharlal Nehru, Korean War, Hydrogen Bomb, International Relations, People’s Republic of China, disarmament, neutral nations supervisory commission.

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