नमामि गंगे : क्योटो बनाने की कसम के बाद गंगा को इस रूप में देखना एक अभिशाप झेलना है

hastakshep
11 May 2021
नमामि गंगे : क्योटो बनाने की कसम के बाद गंगा को इस रूप में देखना एक अभिशाप झेलना है

Namami Gange - It is a curse to see Ganga in the form of vows to make Kyoto : Vijay Shankar Singh

मैं गंगा किनारे पैदा हुआ हूँ। मेरा गाँव गंगा के किनारे है। रहता भी गंगा किनारे हूँ। गंगा में प्रवेश भी बिना जल को सिर पर डाले न करने की परंपरा है। पर क्या गंगा के इस रूप की भी किसी ने कल्पना की थी, कि उसके जल में सैकड़ों लाशें उतराएँगी ?

गंगा का तो यही रूप सदियों से लोगों के मन में बसा रहा है जो इस श्लोक में वर्णित है -

गंगे मम हृदये तव भक्ति:

गंगे मम प्राणे तव शक्ति:

नमामि गंगे नमामि गंगे

गंगे तव दर्शनात् मुक्ति: !!

इस अक्षम और अहंकारी शासन में काशी, गंगा, और विश्वेश्वर सब की महिमा और अस्मिता पर जानबूझकर प्रहार किया गया। काशी की गलियां उजाड़ दी गयी, मंदिर तोड़ दिए गए, गंगा का प्रवाह बाधित किया गया, और काशी की आत्मा को नष्ट करने का उपक्रम किया गया।

सुन रहे हो न, राजा दिवोदास, वैद्यराज धन्वंतरि और वीर प्रतर्दन।

आज गंगा में लाशें बह रही हैं। न जाने कहाँ-कहाँ से आकर। खबर यमुना में भी लाशों के बहने की है। बची घाघरा भी नहीं होंगी।

यह सब बहते शव,  न सिर्फ गंगा को प्रदूषित करेंगे, बल्कि गंगा किनारे के शहरों जिनकी जल आपूर्ति गंगा से होती है, उनके जनजीवन को भी विषयुक्त कर देंगे।

गंगा के ऊपर उड़ते हुए चील और गिद्ध लंबे समय तक गंगा के ऊपर आसमान में मंडराते रहेंगे।

अजीब हाल बना दिया है इस निजाम ने। न इलाज की मुकम्मल व्यवस्था, और न मरने के बाद अंतिम संस्कार की कोई सम्मानजनक प्रथा का निर्वाह।

आज कल गंगा में जल कम है। जून तक यह प्रवाह क्षीण रहेगा। पहाड़ों पर जब बर्फ पिघलेगी तो गंगा की गति में थोड़ी तेजी आएगी। पर असल प्रवाह मानसून के समय जो जुलाई में पड़ता है, में और तेजी आएगी। अभी तो प्रवाह भी जगह-जगह रुक-रुक कर है। इससे यह लाशें सड़ेंगी। इनका डिस्पोजल भी आसान नहीं है। सड़ती लाशें नए रोग पैदा करेंगी।

सनातन धर्म के इन तीन आदि प्रतीकों, गंगा, काशी और महादेव, का जो अनादर, इस सत्ता में किया गया है वह बेहद दुःखद है

सरकार को गंगा ही नहीं उन सभी नदियों के किनारे के शहरों के प्रशासन और पुलिस को सतर्क करना होगा कि, वे गंगा में शव प्रवाह को रोकें। पर यह काम केवल प्रशासन और पुलिस के बल पर सम्भव नहीं है। नदियों के किनारे बसे गांवों और शहरों के नागरिकों को जागरूक होना पड़ेगा।

'काश्याम मरणं मुक्ति' और मार्क ट्वेन के शब्दों को याद करें,

"बनारस इतिहास से भी पुरातन है, परंपराओं से पुराना है, दंतकथाओं (लीजेन्ड्स) से भी प्राचीन है और जब इन सबकों एकत्र कर दें, तो उस संग्रह से दोगुना प्राचीन है।"

और ऐसे नगर को जिसका महत्व ही उसकी प्राचीनता है, हम क्योटो बनाने की कसम खा बैठे हैं। अभिशाप तो झेलना ही पड़ेगा मित्रों।

विजय शंकर सिंह

लेखक अवकाशप्राप्त वरिष्ठ आईपीएस अफसर हैं।

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