/hastakshep-prod/media/post_banners/eDYx2UxwKJd0usye2JnE.jpg)
नये भारत का आख्यान या संविधान का ध्वंस
Narrative of new india or the destruction of constitution
मोदी के न्यू इंडिया पर सीताराम येचुरी का आलेख Sitaram Yechury's article on Modi's New India,
आज जबकि हम अपने 73वें स्वतंत्रता दिवस के करीब पहुंच रहे हैं, भारत के भविष्य को सौंपने के लिए, एक नया राष्ट्रीय आख्यान ही गढ़ा जा रहा है। 'नये भारत' का यह नया आख्यान बताता है कि 15 अगस्त 1947 को तो भारत को महज स्वतंत्रता मिली थी। पर 5 अगस्त 1919 को भारतीय संविधान की धारा-370 तथा 35ए के खत्म किए जाने और फिर, 5 अगस्त 2020 को प्रधानमंत्री द्वारा राम मंदिर के निर्माण की औपचारिक रूप से शुरूआत किए जाने के साथ, भारत को असली 'मुक्ति' मिली है।
जाहिर है कि यह आख्यान, अपनी आजादी के लिए भारत के महागाथात्मक संघर्ष का और भारतीय संविधान के तहत गठित हुए गणतंत्र का पूरी तरह से नकार है बल्कि उनका विलोम ही है। प्रधानमंत्री के अयोध्या के भाषण का यही सार है, जिस पर हम जरा बाद में आएंगे।
भारतीय संविधान उस समृद्ध विविधता तथा बहुलता को प्रतिबिंबित करता है, जो हमारी जनता तथा हमारे देश की पहचान है। भारत की एकता को उसी सूरत में पुख्ता किया जा सकता है, जब इस विविधता में समाए साझेपन के सूत्रों को मजबूत किया जाए और इस बहुलता के हरेक पहलू-भाषायी, इथनिक, धार्मिक आदि-का आदर किया जाए और उनके साथ बराबरी का सलूक किया जाए। इस विविधता पर किसी भी प्रकार की एकरूपता थोपने की कोई भी कोशिश, सामाजिक अंतर्ध्वंस की ओर ही ले जाएगी। आरएसएस और उसका राजनीतिक बाजू, भाजपा जिस तरह की धार्मिक एकरूपता, शासन तथा सरकार का सहारा लेकर थोपने की कोशिश कर रहे हैं, उसे हासिल करने के लिए, एक तानाशाहीपूर्ण/ सर्वसत्तावादी राज कायम करने के जरिए ही हो सकता है, जो उसके हिसाब से 'आंतरिक शत्रु' के रूप में परिभाषित तबकों/ ताकतों के खिलाफ फासीवादी तरीकों को आजमाएगा और जनतंत्र, जनतांत्रिक अधिकारों तथा नागरिक स्वतंत्रताओं को उठाकर ताक पर रख देगा।
ठीक ऐसे 'नये भारत' की स्थापना, कोई मोदी सरकार द्वारा ही गढ़ी गयी संकल्पना नहीं है। इसके पीछे करीब एक सदी का इतिहास है। इसकी शुरूआत 1925 में आरएसएस की स्थापना से होती है।
हिंदुत्व की सावरकर की थीसिस तथा विचारधारात्मक गढ़ंत, इस सिलसिले को आगे बढ़ाती है और 1939 में गोलवलकर द्वारा फासीवादी 'हिंदू राष्ट्र के निर्माण के लक्ष्य को हासिल करने के लिए, सांगठनिक ढांचा मुहैया कराया जाता है।
बहरहाल, भारत की जनता ने इस संकल्पना को बार-बार ठुकराया है और आजादी की लड़ाई ने जोरदार तरीके से ऐसा करते हुए, स्वतंत्र भारत को एक धर्मनिरपेक्ष, जनतांत्रिक गणराज्य घोषित किया था।
यह इस्लामी गणराज्य की उस संकल्पना से ठीक उलट था, जिसने 1947 में देश के विभाजन और पाकिस्तान के गठन के साथ, मूर्त रूप लिया था। फिर भी, भारतीय गणतंत्र के धर्मनिरपेक्ष, जनतांत्रिक चरित्र को बदलकर, उसकी जगह आरएसएस की संकल्पना का हिंदू राष्ट्र बैठाने कोशिशें, इन तमाम दशकों में चलती ही रही हैं और उन्हीं के चलते आज ऐसे हालात पैदा हुए हैं।
भारतीय संविधान पर हमला
इस 'नए भारत' की पहली तथा प्रमुख जरूरत उस पुराने भारत को नष्ट करने की है, जिसे भारतीय संविधान द्वारा परिभाषित किया गया है और ठोस रूप दिया गया है। संविधान पर इस हमले को हमने इस भाजपा सरकार, जिसके प्रधानमंत्री मोदी हैं, के पिछले छ: वर्षों के दौरान सघन होते देखा है।
यह हमला हमारे संविधान के हरेक आधार स्तंभ-धर्मनिरपेक्ष जनतंत्र, संघवाद, सामाजिक न्याय और आर्थिक आत्मनिर्भरता-को कमतर बनाने के जरिए किया जा रहा है।
संविधान पर इस हमले के साथ आवश्यक तौर, उन तमाम संवैधानिक संस्थाओं तथा प्राधिकारों को कमतर बनाना तथा उन्हें प्रभावहीन बनाकर छोड़ देना भी जुड़ा हुआ है, जिन्हें संविधान तथा जनता के लिए संवैधानिक गारंटियों के क्रियान्वयन को संरक्षित करने के लिए, संतुलन के उपकरणों के रूप में निर्मित किया गया था।
हमारे संविधान के तीन प्रमुख अंग, जैसा कि संविधान द्वारा उन्हें परिभाषित किया गया है, इस प्रकार हैं: कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका। हरेक अलग है। लेकिन वे कर्तव्यों तथा जिम्मेदारियों के निर्वहन में एक दूसरे का पूरक हैं।
विधायिका अर्थात संसद को 'बहुमत की निरंकुशता' में घटा देने के जरिए बेहद कमतर बना दिया गया है। संसदीय प्रक्रियाओं, कमेटियों के काम-काज के तौर-तरीकों और बहस-मुबाहिसों तथा चर्चाओं आदि, सभी को कमतर बनाया जा रहा है।
यह इस माने में खतरनाक है कि भारतीय संविधान की केंद्रीयता-जनता की संप्रभुता-सांसदों के जरिए निष्पादित होती है, जो जनता के लिए जवाबदेह होते हैं और सरकार, विधायका के प्रति जवाबदेह होती है। इस तरह 'वी द पीपल' (हम लोग) अपनी संप्रभुता का प्रयोग करते हैं। अगर संसद निष्क्रिय हो जाती है, तो जनता के प्रति जवाबदेही भी खत्म हो जाती है और सरकार, विधायिका के प्रति जवाबदेही से बच जाती है।
न्यायपालिका की स्थिति
एक स्वतंत्र न्यायपालिका की स्थापना यह सुनिश्चित करने के लिए की गयी थी कि कार्यपालिका की कार्रवाइयों से, संवैधानिक प्रावधानों का उल्लंघन न हो और उन मौलिक अधिकारों तथा गारंटियों को, जो संविधान जनता को देता है, बुलंद रखा जा सके। अगर न्यायपालिका की निष्पक्षता तथा स्वतंत्रता के साथ समझौता होता है, जो पिछले छ: वर्षों के दौरान खतरनाक ढ़ंग से देखने में आया है, तो न्यायिक निगरानी जनता के जनतांत्रिक अधिकारों तथा नागरिक स्वतंत्रताओं का संरक्षण नहीं कर पाएगी।
चुनाव आयोग की स्थिति
भारतीय चुनाव आयोग की स्वतंत्रता तथा निष्पक्षता वह आधारशिला है, जो स्वतंत्र तथा निष्पक्ष चुनाव आयोजित करने के जरिए हमारे जनतंत्र को स्वस्थ बनाए रखती है और चुनाव लडऩे वाले सभी लोगों को खेल का समान मैदान मुहैया कराती है। जब इसके साथ समझौता होता है तो सरकारें, जनता के फैसले या जनादेश का प्रतिबिंबन नहीं रह जाती हैं।
सीबीआई, प्रवर्तन निदेशालय, सतर्कता विभाग आदि, संवैधानिक अथॉरिटीज सभी यह सुनिश्चित करने के लिए बनायी गयी थीं कि आपराधिक तथा सिविल अपराधों की जांच की जाए और संविधान द्वारा स्थापित देश के कानून के अनुसार दोषी को दंड दिया जाए। अगर इन्होंने समझौता करना शुरू कर दिया या सरकार के राजनीतिक बाजू की तरह काम करना शुरू कर दिया, तो शासक पार्टी और उसके सदस्यों के सभी अपराधों तथा भ्रष्टाचार को हर तरह से संरक्षण मिलेगा, जबकि उसके विरोधियों को उत्पीडित किया जाएगा, डराया-धमकाया जाएगा और चुप करा दिया जाएगा।
संविधान और उसकी संस्थाओं के ऐसे संपूर्ण क्षरण ने 'गोदी पूंजीवाद' के व्यापक भ्रष्टाचार तथा उसके प्रोत्साहन के लिए अवसर पैदा कर दिए हैं, जो कि शासक पार्टी द्वारा भारी धनबल एकत्रित किए जाने का रास्ता है। यह एक ही झटके में जनतंत्र की गुणवत्ता को घटा देता है। यह ऐसी स्थितियां पैदा करता है, जहां किसी भी चुनाव में किसी सरकार के लिए जनता के जनादेश का जनप्रतिनिधियों की खरीद-फरोख्त के जरिए उल्लंघन किया जा सकता है। इसी के चलते आज यह आम धारणा बन गयी है कि भाजपा चुनाव तो हार सकती है, फिर भी सरकार वही बनाएगी!
विवेक पर हमला
'नए भारत' के इस तरह के विमर्श के लिए यह आवश्यक है कि भारतीय इतिहास को फिर से इस तरह से लिखा जाए, जो इस विमर्श के वैचारिक सार को दीर्घजीवी बनाने के अनुरूप हो।
इसलिए, भारत की शिक्षा प्रणाली को आवश्यक रूप से बदला जाएगा ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि वह तार्किकता के खिलाफ सोच तथा व्यवहार में अतार्किकता को बढ़ावा दे और वैज्ञानिक मिजाज को पालने-पोसने के बजाय पोंगापंथ, पौराणिकता तथा अंधविश्वास को बढ़ावा दे। संस्कृति के क्षेत्र में संस्थाओं तथा अकादमियों के चरित्र में ऐसा बदलाव कर दिया जाए ताकि एकमतता तथा एकल-सांस्कृतिक विमर्श थोपने के जरिए, भारतीय संस्कृति के मिले-जुले विकास को छुपाया जा सके।
यह उस संस्कृति के पूरी तरह खिलाफ है, जो भारत की विविधता तथा बहुलतावादी चरित्र से बनी है। इसके लिए इतिहास को फिर से लिखना होगा और उसका पुनर्गठन करना होगा। भारत के गंगा-जमुनी इतिहास के अध्ययन की जगह, भारतीय पौराणिक महाकाव्यों का अध्ययन होगा। पुरातत्व को ऐसे प्रमाण जुटान होंगे, जो हमारे अतीत का वैज्ञानिक अध्ययन करने के विपरीत, हिंदुत्व के अवैज्ञानिक आग्रहों को ऐतिहासिक साबित कर सकें।
इस तरह के 'नए भारत' की सफलता केवल तभी कायम रह सकती है जब हमारे समाज में एक नयी प्रतीकात्मकता पैदा की जाए। नेहरू के 'आधुनिक भारत के मंदिरों' के खिलाफ महामारी के दौरान भारी खर्च पर हिटलर के कुख्यात बर्लिन डोम की तर्ज पर सेंट्रल विस्टा का निर्माण, मूर्तियां, बुलेट ट्रेन और ऐसी ही दूसरी फेंसी चीजें, इसी विमर्श का हिस्सा हैं।
'नए भारत' के इस विमर्श को, फेक न्यूज, झूठे विमर्शों और भारतीय जनता को आंदोलित कर रहे असली मुद्दों और उनसे जुड़ी पीड़ा को पृष्ठभूमि में डालने वाली खबरों के हवाले करने के साथ, भारतीय जनता की चेतना पर मीडिया की बमबारी के सह-अपराध के सहारे ही कायम रखा जा सकता।
नफरत भरे अभियानों और दलितों, आदिवासियों, महिलाओं तथा अल्पसंख्यकों के खिलाफ हिंसा के जरिए सामाजिक तनावों का प्रसार, इस 'नए भारत' के लिए आवश्यक है ताकि विशिष्ट सांप्रदायिक हिंदुत्व वोट बैंक को सुदृढ़ किया जा सके, जो कि उसके लिए समर्थन की जीवनरेखा की तरह है।
मोदी का अयोध्या भाषण
अयोध्या में मंदिर के निर्माण की शुरूआत करते हुए मोदी ने जो भाषण दिया, वह एक माने में 'नए भारत' की उपरोक्त संकल्पना का ही सार था।
भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने अयोध्या विवाद पर फैसला दिया है, न्याय नहीं दिया है। उसने बाबरी मस्जिद के ध्वंस को कानून का आपराधिक उल्लंघन करार दिया है और जो इसमें शामिल थे, उनके लिए तुरंत दंड की व्यवस्था करने के लिए कहा है। फिर भी, उसने विवादित भूमि पर, मंदिर के निर्माण का काम उन्हीं लोगों को सौंप दिया है, जो मंदिर के ध्वंस में शामिल थे। लेकिन, यह निर्माण एक 'ट्रस्ट' द्वारा किया जाना था।
मंदिर निर्माण की शुरूआत को, प्रधानमंत्री तथा सरकार ने आधिकारिक सरकारी कार्यक्रम के रूप में तब्दील करने के जरिए, नंगई के साथ इस काम को अपने हाथ में ले लिया है। प्रधानमंत्री ने, जो कि इसी धर्मनिरपेक्ष जनतंात्रिक भारतीय संविधान की शपथ लेकर इस पद पर हैं, उसी का उल्लंघन किया है। हरेक नागरिक के लिए अपने धर्म के चुनाव की संवैधानिक गारंटियों की रक्षा की जानी चाहिए और सरकार द्वारा यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए। खुद सरकार का कोई धर्म नहीं है। इस अनुल्लंघनीय संवैधानिक धारणा को खुद प्रधानमंत्री ने ताक पर रख दिया है।
यह गहन उल्लंघन उस 'नए भारत' की शुरूआत का संकेत है, जो कि आरएसएस की राजनीतिक परियोजना है।
इस भाषण का बदतरीन पहलू यह है कि उन्होंने इस मंदिर निर्माण के आंदोलन की तुलना, देश के स्वतंत्रता आंदोलन से की है। उन्होंने कहा 'देश में ऐसा कोई स्थान नहीं है, जहां स्वतंत्रता के लिए बलिदान न दिए गए हों। 15 अगस्त लाखों लोगों के बलिदानों और आजादी के लिए गहन आकांक्षा का मूर्त रूप है।'
'इसी तरह राम मंदिर के निर्माण के लिए सदियों तक अनेक पीढिय़ों ने निस्वार्थ बलिदान दिए हैं।'
आजादी की लड़ाई की भारत की संकल्पना, एक समावेशी संकल्पना थी, जबकि आरएसएस की भारत की संकल्पना, परवर्जी या बहिष्कारी थी। आजादी की लड़ाई की इस समावेशी संकल्पना ने, इस लड़ाई में महागाथा के पैमाने पर जन गोलबंदी को प्रेरित किया था और यह सिलसिला 15 अगस्त 1947 को भारत को स्वतंत्रता मिलने के रूप में अपने चरमोत्कर्ष पर पहुंचा था। कथित नये भारत का वर्तमान आख्यान, जो भारत की एक अपवर्जी संकल्पना पर आधारित आख्यान है, सीधे-सीधे हर उस चीज का नकार है, जिसका प्रतिनिधित्व हमारी आजादी की लड़ाई करती थी।
यह महत्वपूर्ण है कि आरएसएस कभी भी भारत की आजादी की लड़ाई में शामिल नहीं हुआ था। यहां तक के आरएसएस के इतिहास के सहानुभूतिपूर्ण विवरण भी (जैसे वाल्टर के एंडर्सन तथा श्रीधर डी दामले की 1987 में प्रकाशित पुस्तक, 'द ब्रदरहुड इन सैफ्रन') इसी का बयान करते हैं कि किस तरह आरएसएस आजादी की लड़ाई से करीब-करीब पूरी तरह से गायब ही रहा था और इसके चलते उसको ब्रिटिश राज से बहुत सी रियायतें भी हासिल हुई थीं। और तो और, आरएसएस के सिद्घांतकार माने जाने वाले, दिवंगत नानाजी देशमुख तक ने यह सवाल उठाया था कि, 'आरएसएस ने एक संगठन के रूप में आजादी की लड़ाई में हिस्सा क्यों नहीं लिया था?'
वास्तव में, भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान, 1942 में बांबे होम डिपार्टमेंट ने तो बाकायदा यह दर्ज भी किया था कि, 'संघ (आरएसएस) ने निष्ठापूर्वक खुद को कानून की दायरे में बनाए रखा है और खासतौर पर 1942 के अगस्त में फूटे उपद्रवों में हिस्सा लेने से खुद को दूर रखा है..।'
इन्हीं सचाइयों को छुपाने के लिए, आरएसएस/भाजपा द्वारा 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के साथ तथाकथित विश्वासघात के लिए, कम्युनिस्टों के खिलाफ बहुत ही जहरभरा हमला किया जाता रहा है। इस सिलसिले में यह याद दिलाना उपयुक्त होगा कि भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति, शंकरदयाल शर्मा ने भारत छोड़ो आंदोलन की पचासवीं सालगिरह पर, 9 अगस्त 1992 को संसद में आयोजित मध्य-रात्रि सत्र में क्या कहा था? उनके शब्द थे:
''कानपुर, जमशेदपुर, तथा अहमदाबाद में मिलों में बड़े पैमाने पर हड़तालों के बाद, दिल्ली से 5 सितंबर 1942 को लंदन में विदेश सचिव को भेजे गए एक डिस्पैच में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के बारे में खबर दी गयी थी: उसके बहुत से सदस्यों का आचरण उसी बात को साबित करता है, जो हमेशा से ही स्पष्ट थी कि यह पार्टी, ब्रिटिशविरोधी क्रांतिकारियों से बनी है।"
क्या इसके बाद, और कुछ कहने की जरूरत है?
भारत के भविष्य के विनाश को रोको
यह कथित 'नया भारत' न सिर्फ भारतीय इतिहास का पुनर्लेखन करता है; यह न सिर्फ भारतीय संविधान को तथा उसके साथ जुड़ी संस्थाओं को, प्राधिकारों को, जनता के लिए तथा जनता की जिंदगी व नागरिक स्वतंत्रताओं की गारंटियों को ध्वस्त करता है; बल्कि भारत के भविष्य को भी नष्ट करता है। और यह किया जा रहा है, झगड़ों व घृणा को बढ़ाने के जरिए और दलितों, आदिवासियों, महिलाओं तथा धार्मिक अल्पसंख्यकों पर बढ़ते हमलों के जरिए।
यह कथित 'नया भारत', भारत की आर्थिक आत्मनिर्भरता तथा जड़ों को खोखला करता है। पिछले छ: साल में हुई भारतीय अर्थव्यवस्था की तबाही, इसी का सबूत है। इस समय जिस आर्थिक नक्शे पर चला जा रहा है, राष्ट्रीय परिसंपत्तियों की लूट का, सार्वजनिक क्षेत्र के तथा भारत की खनिज संपदा व भारत के वनों व हरियाली के थोक के भाव निजीकरण का और मजदूर वर्ग तथा मेहनतकश जनता के संवैधानिक अधिकारों के खात्मे का, ही नक्शा है। यह नक्शा, विदेशी व देसी कार्पोरेटों के अपने मुनाफे अधिकतम करने के लिए, भारत की संपदा का उनके आगे थोक के हिसाब से समर्पण किए जाने को ही दिखाता है।
भारतीय खेती का जिस तरह कार्पोरेटीकरण किया जा रहा है, जिस तरह अब अध्यादेश लाए गए हैं ताकि आवश्यक माल कानून को नष्ट किया जा सके, किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य, मूल्य नियंत्रण, सरकारी खरीदी जैसे जो न्यूनतम संरक्षण हासिल भी रहे थे, उन्हें भी खत्म किया जा सके; उससे जैसी भी सार्वजनिक वितरण व्यवस्था है वह भी पूरी तरह से नष्ट हो जाएगी तथा खाद्यान्न की तंगी का खतरा पैदा हो जाएगा और यह सब होगा एग्री-बिजनस से जुड़े कार्पोरेटों के मुनाफे बढ़ाने के लिए। यह देश के अन्नदाताओं की बर्बादी का ही इंतजाम है।
इस तरह, यह कथित 'नया भारत', हमारी संवैधानिक व्यवस्था के अस्तित्व के लिए ही खतरा पैदा कर रहा है। यह भारतीय जनता के विशाल बहुमत की आजीविका, स्वतंत्रता, गरिमा तथा खुशहाली के लिए अस्तित्व का ही खतरा पैदा कर रहा है। यह भारतीय बहुलतावाद के लिए, भारत की भाषायी विविधता के लिए और संघवाद के लिए, अस्तित्व का खतरा पैदा कर रहा है। यह जनतंत्र के लिए, जनता के अधिकारों के लिए और विवेक तथा तार्किकता पर चले जाने के लिए, संकट पैदा कर रहा है।
इस कथित 'नये भारत' के इन्हीं खतरों का प्रतिरोध करना होगा और उन्हें शिकस्त देनी होगी। इस स्वतंत्रता दिवस पर भारत की जनता जो भी शपथ लेती है, उसकी सार्थकता इसी दिशा में बढ़ऩे में होगी।
? सीताराम येचुरी
लेखक माकपा महासचिव हैं, उनका यह आलेख "लोकजतन" के सितम्बर प्रथम अंक में प्रकाशित हुआ है। वहीं से साभार।