राष्ट्रीय शिक्षा-नीति 2020 : नव-उपनिवेशीकरण की दिशा में छलांग
National education policy 2020: leap towards neo-colonization
नई राष्ट्रीय शिक्षा-नीति 2020 (यहां से आगे शिक्षा-नीति) में शिक्षा के निजीकरण से आगे शिक्षा का निगमीकरण (कारपोरेटाइजेशन) करते हुए, भारतीय शिक्षा के नव-उपनिवेशीकरण (नियो-कोलोनाइजेशन) की दिशा में एक लंबी छलांग लगाई गई है. शिक्षा-नीति के इस नए आयाम को समझने की जरूरत है.
Foreign Universities and Foreign Direct Investment (FDI) have been allowed in the field of education under the National Education-Policy 2020
गौरतलब है कि शिक्षा-नीति के तहत शिक्षा के क्षेत्र में विदेशी विश्वविद्यालयों और प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) को अनुमति दी गई है. देश में पहले से निजी (प्राइवेट) स्कूलों, कॉलेजों, संस्थानों, विश्वविद्यालयों की भरमार है. उपभोक्ता वस्तुओं के साथ निजी विश्वविद्यालयों के विज्ञापन इलेक्ट्रॉनिक और प्रिंट मीडिया में भरे रहते हैं. देश के राष्ट्रपति-उपराष्ट्रपति भी इलीट कहे जाने वाले इन निजी विश्वविद्यालयों के कार्यक्रमों में शामिल होते हैं. निजी विश्वविद्यालयों के मालिक विश्वविद्यालय स्थापित करने के लिए जमीन शहरों में अथवा शहरों के आस-पास चाहते हैं. सरकारें ‘जनहित’ में उन्हें किसानों की ज़मीन सस्ते दामों पर उपलब्ध कराती हैं. कहीं-कहीं तो पूरा काम्प्लेक्स/क्लस्टर बना कर शिक्षा के निजी खिलाड़ियों को यह सुविधा प्रदान की जाती है. उदाहरण के लिए, हरियाणा सरकार ने सोनीपत के 9 गांवों की 2006 एकड़ उपजाऊ जमीन अधिग्रहित करके निजी शिक्षण संस्थाओं के लिए 2012 में राजीव गांधी एजुकेशन सिटी की आधारशिला रखी थी. उस समय ज़मीन का बाज़ार-भाव एक करोड़ रुपये प्रति एकड़ से ऊपर था. जबकि सरकार ने किसानों को प्रति एकड़ 12.60 लाख रुपये मुआवजा देना तय किया था. राजीव गांधी एजुकेशन सिटी की योजना से लेकर निर्माण तक सारा कार्य विदेशी संस्थाओं/कंपनियों ने किया और आज वहां जिंदल, अशोका और एसआरएम जैसे इलीट विश्वविद्यालय स्थापित हैं. जाहिर है, अब सरकारें यह सब काम विदेशी विश्वविद्यालयों के लिए करेंगी.
निजी शिक्षा-तंत्र और विदेशी विश्वविद्यालयों को भारत की शिक्षा-व्यवस्था के ‘विश्वस्तरीय मानदंड’ के लिए रामबाण मानने वाले नेताओं और बुद्धिजीवियों की देश में कमी नहीं हैं. लिहाज़ा, आने वाले समय में विदेशी विश्वविद्यालयों के परिसरों का निजी विश्वविद्यालयों की तरह जाल बिछ सकता है. भले ही खुद विश्व बैंक और यूनेस्को के संयुक्त दस्तावेज़ (दि टास्क फ़ोर्स 2000) में कहा गया है “विकसित देशों के प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय अपने नाम की मशहूरी का फायदा उठा कर गरीब और विकाससील देशों में, समकक्ष गुणवत्ता सुनिश्चित न कर, घटिया कोर्स परोसते हैं.” भारत में विदेशी विश्वविद्यालयों से मुराद उत्तरी अमेरिका और यूरोप के विश्वविद्यालयों से होती है. हालांकि ऐसा सोचते वक्त यह सच्चाई भुला दी जाती है कि वहां के सचमुच प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों ने पिछले 150-200 सालों की कठिन और सतत बौद्धिक संलग्नता, और साथ ही औपनिवेशिक लूट के आधार पर वह प्रतिष्ठा हासिल की है.
यह बताने की जरूरत नहीं होनी चाहिए कि जिस तरह निजी विश्वविद्यालयों में शिक्षार्थियों के दाखिलों/छात्रवृत्तियों और शिक्षकों की नियुक्तियों में सामाजिक न्याय अथवा आरक्षण के कानून लागू नहीं होते हैं, विदेशी विश्वविद्यालयों में भी नहीं होंगे. शिक्षा-नीति में यह इच्छा ज़ाहिर की गई है कि निजी कॉलेजों, संस्थानों, विश्वविद्यालयों को कड़े नियमन (रेगुलेशन) से मुक्त रखा जाए. लगता यही है कि शिक्षा के देशीय निजी खिलाड़ियों के लिए हलके-फुलके नियमन की पक्षधर सरकार विदेशी खिलाड़ियों के लिए भी कड़े नियमन से परहेज़ करेगी.
The National Education Policy 2020 is a document dismantling the public education system. | राष्ट्रीय शिक्षा-नीति 2020 सार्वजनिक शिक्षा-प्रणाली को ध्वस्त करने वाला दस्तावेज़ है.
शिक्षा-नीति के पूरे दस्तावेज़ में संवैधानिक आरक्षण शब्द का एक बार भी उल्लेख नहीं है. शिक्षा-नीति के विरोध में यह ठीक ही कहा गया है कि यह सार्वजनिक शिक्षा-प्रणाली को ध्वस्त करने वाला दस्तावेज़ है. अब विदेशी विश्वविद्यालय भी यहां आ जाएंगे. शिक्षा के इस बड़े बाज़ार में सामाजिक न्याय का संवैधानिक सिद्धांत कहीं नहीं होगा.
लेकिन मामला उतना ही नहीं है. यह सब शिक्षा के निजीकरण की स्थिति में भी पहले से था.
शिक्षा-नीति में शिक्षा की पाठ्यचर्या (साक्षारता/कौशल-केंद्रित), कक्षा-सोपान (5+3+3+4 – समृद्ध पृष्ठभूमि वाले विद्यार्थी आगे, वंचित पृष्ठभूमि वाले पीछे, उनमें से अधिकांश उच्च-शिक्षा की दौड़ से बाहर) और शिक्षण-विधि (ऑनलाइन-डिजिटल-ई-लर्निंग) का निर्धारण निर्णायक रूप से निगम-पूंजीवाद की जरूरतों और मुनाफे के मद्देनज़र बनाया गया है.
भारतीय समाज में गहरे पैठी सामाजिक-आर्थिक विषमता, जो नवउदारवाद के पिछले 3 दशकों में और गहरी हुई है, के चलते, जैसा कि अनिल सदगोपाल ने कहा है, यह शिक्षा-नीति कारपोरेट सेक्टर के लिए 10 प्रतिशत महंगे ग्लोबल मज़दूर तैयार करेगी. बाकी बचे शिक्षार्थी वैश्वीकृत अर्थव्यवस्था में तकनीशियन और श्रमिक का काम करेंगे. इसके साथ बेरोजगारों की विशाल फौज अभी की तरह बनी रहेगी. शिक्षा-नीति में ज्ञान देने के तरीके के साथ ज्ञान/ज्ञान-मीमांसा की प्रकृति भी बदल दी गई है – ज्ञान व्यक्ति और समाज अथवा दुनिया के संदर्भ में स्वतंत्र चिंतन नहीं, मौजूदा निगम-पूंजीवाद की सेवा के लिए तैयार किया गया पूर्वनिर्धारित पाठ है; यह पाठ सबसे अच्छा निजी विद्यालय/विश्वविद्यालय और विदेशी विश्वविद्यालय पढ़ा सकते हैं; सरकारी विद्यालय/विश्वविद्यालय या तो वह पाठ पढ़ाएं अन्यथा ख़त्म होने के लिए तैयार रहें.
शिक्षा-नीति शिक्षार्थियों के दिमाग को निगम-पूंजीवादी व्यवस्था का गुलाम बनाने का एक मुकम्मल प्रोजेक्ट है. गुलाम दिमाग के लिए वैज्ञानिक दृष्टिकोण, आलोचनात्मक सोच, रचनात्मकता, संज्ञानात्मकता, संवेदनशीलता, विविधिता, बहुलता आदि का कोई अर्थ नहीं रह जाता. समाज में व्याप्त सामाजिक-आर्थिक जड़ता और विषमता से भी गुलाम दिमाग का रिश्ता नहीं जुड़ पाता. शिक्षा-नीति में ‘परिचय’ के अंतर्गत लिखे गए इस तरह के शब्द खोखले प्रतीत होते हैं. ‘वैश्विक ज्ञान की महाशक्ति’, ‘शिक्षा के वैश्विक मानदंड’, ‘प्राचीन और सनातन भारतीय ज्ञान और विचार की समृद्ध परंपरा’ आदि पदबंध अपनी और 10 प्रतिशत ऊंची कीमत पाने वाले ग्लोबल मज़दूरों की पीठ थपथपाने के लिए लिखे या बोले गए हैं, ताकि गुलामी का बोध दिक्कत न करे.
शिक्षा-नीति के बारे में प्रधानमंत्री और उनके मंत्रियों की बड़ी-बड़ी बातें समझ में आ सकती हैं. वे जिस संगठन से आते हैं, वह स्वतंत्रता की चेतना – वह राष्ट्रीय स्वतंत्रता की चेतना हो या मनुष्य-मात्र की स्वतंत्रता की चेतना – के लिए मौलिक रूप से अक्षम है. लेकिन, जैसा कि किशन पटनायक ने कहा है, ज्यादातर बड़े बुद्धिजीवियों के दिमाग में गुलामी का छेद हो चुका है. उनमें से कईयों ने निजी शिक्षण संस्थाओं के ऊपर से सरकारी नियमन पूरी तरह नहीं हटाने के लिए शिक्षा-नीति की आलोचना की है; उन्हें शिक्ष-नीति में प्रस्तावित ‘लाइट बट टाइट’ तरीका पसंद नहीं आया है; कुछ का कहना है कि शिक्षा-नीति की इतनी अच्छी-अच्छी बातें मौजूदा सरकार के संकीर्ण और साम्प्रदायिक रवैये के चलते निष्फल हो जा सकती हैं; कुछ कहते है हिंदी और संस्कृत थोपने के प्रावधान के अलावा सब ठीक है; विदेशी विश्वविद्यालय और प्रत्यक्ष विदेशी निवेश शिक्षा-नीति की एक बड़ी उपलब्धि है ….
दरअसल, जैसा कि अनिल सदगोपाल ने कहा है, ‘शिक्षा-नीति की भाषा और प्रस्तुतिकरण अभी तक बनी सभी शिक्षा नीतियों में सबसे ज्यादा भ्रामक और अंतर्विरोधपूर्ण है.’ लेकिन शिक्षा-नीति तैयार करने वालों की यह ‘ट्रिक’ आम जनता के लिए कारगर हो सकती है; बुद्धिजीवियों के लिए नहीं. दरअसल, निगम-भारत की शिक्षा-नीति उसमें रहने वाले बुद्धिजीवियों और उनके बच्चों का समावेश करके चलती है. लिहाज़ा, केवल यह कहने से काम नहीं चल सकता कि यह शिक्षा-नीति राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) ने ‘हिंदू-राष्ट्र’ बनाने के लिए बनवाई है.
आरएसएस के हिंदू-राष्ट्र को नव-उपनिवेशित निगम-भारत के मातहत रहने में उसी तरह कोई परेशानी नहीं है, जैसे उपनिवेशवादी सत्ता के मातहत नहीं थी. असली सवाल है कि संवैधानिक भारतीय-राष्ट्र के पैरोकार क्या सचमुच मानते हैं – चाहते हैं – कि भारतीय-राष्ट्र निगम-भारत के मातहत नहीं हो सकता – नहीं होना चाहिए? पिछले तीन दशक के प्रमाण से ऐसा नहीं लगता है. इसीलिए इस शिक्षा-नीति को नव-उपनिवेशीकरण की दिशा में एक लंबी और बेरोक छलांग कहा जा सकता है. इसके तहत देश पर नव-उपनिवेशवादी शिकंजे को स्वीकृति देने वाला राजनीतिक-बौद्धिक नेतृत्व वर्तमान और आने वाली पीढ़ियों को नव-उपनिवेशवाद का स्वाभाविक गुलाम बनाना चाहता है.
शिक्षा-प्राप्ति के मामले में पहले से ही हाशिये पर धकेल दिए जाने वाले आदिवासी, दलित, पिछड़े, अल्पसंख्यक समुदाय इस शिक्षा-नीति से और हाशिये पर चले जाएंगे. सरकार और शिक्षा-नीति का ‘डिजिटल ओबसेशन’ उन्हें उच्च-शिक्षा तक पहुंचने ही नहीं देगा. उनकी तरफ से इसका स्वाभाविक तौर पर तुरंत और जबरदस्त विरोध होना चाहिए था. लेकिन उनके संगठनों/व्यक्तियों ने अभी तक विरोध की आवाज़ नहीं उठाई है. काफी पहले से यह स्पष्ट हो चुका है कि स्कूल शिक्षा से लेकर उच्च-शिक्षा तक सार्वजनिक क्षेत्र की कीमत पर निजी क्षेत्र को बढ़ावा दिया जा रहा है. शिक्षा का सार्वजनिक क्षेत्र संकुचित होता जाएगा तो शिक्षा से सामाजिक न्याय के प्रावधानों का भी लोप होता जाएगा.
डॉ. लोहिया ने भारतीय आबादी के पांच समूहों – आदिवासी, दलित, महिलायें, पिछड़े, गरीब मुसलमान – को आधुनिक भारत की रचना के लिए आगे लाने का सूत्र दिया था. इन समूहों के नेताओं ने उस सूत्र का केवल चुनाव जीतने के लिए इस्तेमाल किया. जबकि सूत्र के पीछे लोहिया की मान्यता थी कि भारत का बहुजन दिमाग एक साथ पुरातन ब्राह्मणवादी और नवीन उपनिवेशवादी मूल्यों-मान्यताओं से बाकी समाज के मुकाबले स्वतंत्र रहा है. इस दिमाग की आधुनिक भारत के निर्माण में अग्रणी भूमिका होगी, तो एक साथ ब्राह्मणवादी और उपनिवेशवादी व्यवस्था के मिश्रण से छुटकारा मिलेगा. लेकिन पीठासीन बुद्धिजीवियों ने पूरे नेहरू और इन्दिरा युग में लोहिया की अवहेलना और भर्त्सना करने में कोई कोर-कसर नहीं उठा रखी. स्कूल से लेकर उच्च-शिक्षा तक के पाठ्यक्रमों से लोहिया को बाहर रखा गया. क्योंकि बुद्धिजीवियों के पास आधुनिक भारत के निर्माण के बने-बनाए फार्मूले मौजूद थे.
We have missed the opportunity to build modern India
हालात देख कर लगता है कि आधुनिक भारत के निर्माण का मौका हम चूक चुके हैं. निगम-भारत में संवैधानिक अधिकारों के लिए कुछ गुंजाइश बनाए रखने के संघर्ष का मुख्य आधार बहुजन समाज के अंदर से ही बन सकता है. बशर्ते उसमें राजनीतिक चेतना का निर्माण हो सके. राजनैतिक चेतना के निर्माण का आधार उनकी तरफ से शिक्षा-नीति का विरोध भी हो सकता है.
प्रेम सिंह
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में हिंदी के शिक्षक हैं)
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