NCR Chapter One: Film review
कोई भी खेल को जीतने के लिए दो चीजें का होना जरूरी है। पहली तैयारी और दूसरी किस्मत। जब तैयारी और किस्मत दोनों ही साथ ना दे तो एक ही रास्ता रह जाता है बेईमानी।
निर्देशक सैफ़ बैद्य की हालिया रिलीज़ फ़िल्म एनसीआर चैप्टर वन की शुरुआत इसी संवाद से होती है। लेकिन निर्देशक खुद ही इसका पालन करना भूल गए लगता है। ना तो फ़िल्म के लिए उनकी कोई पटकथा लेखन के रूप में तैयारी नजर आती है न ही निर्देशन के तौर पर। जो कुछ बेहतर निर्देशन हुआ है उसके लिहाज़ से भी पूरी फिल्म बेहतर नहीं कही जा सकती और ऐसी फिल्म बनाएंगे तो किस्मत कहाँ साथ देगी डायरेक्टर साहब। सैफ बैद्य इससे पहले आधा दर्जन फिल्में बना चुके हैं। लेकिन मैंने उनकी यह पहली फ़िल्म देखी है। अगर बाकी का काम भी उनका ऐसा ही है तो उनकी फिल्मों को सिरे से नकारना ही बेहतर होगा।
जानकारी के लिए बता दूँ ‘यार मलंग’ ‘कोड ऑफ ड्रीम्स’ ‘नॉइज ऑफ साइलेंस’ जैसी फिल्मों का निर्देशन भी सैफ बैद्य ने ही किया है। खैर बात करूं एनसीआर चैप्टर वन की तो इसमें कोई भी किसी भी तरह की कहानी नहीं है। जो मोटा मोटी समझ आता है वो ये कि एक ताऊ जी हैं एक उनका चेला है जिसके पिता जी ने ताऊजी की नौकरी की है इसलिए वह ताऊ के गलत होने पर भी उनका भक्त बना हुआ है। दूसरी और एक कॉलेज में पढ़ने वाला लकड़ा जो नशेड़ी है। और दूसरी तरफ एक और लड़का जो न जाने किसके लिए काम कर रहा है। हालांकि फिल्म को गहराई से देखेंगे तो आप उसे पकड़ पाने की कोशिश कर पाएंगे। अब होता ये है कि एक बच्चे को अपहरण करके लाया गया है या कैसे लाया गया है वो निर्देशक जी जाने। उसे पकड़ कर कमरे में बंद कर दिया जाता है। अब आप पूछेंगे क्यों? तो भईया या तो फ़िल्म देख लें या जिन्होंने फ़िल्म बनाई है और उसकी अझेल कहानी लिखी है उनसे पूछ लें। फ़िल्म में एक पार्सल डिलीवर करना है किसको करना है पता नहीं। पार्सल जरूरी बताया गया है लेकिन उसमें है क्या ये नहीं पता। बच्चा क्यों किडनैप किया गया नहीं पता। रुपए कहाँ से आए नहीं पता।
ऐसे कई सारे सवाल इस फ़िल्म को देखने के बाद दिमाग में उठते हैं और आखिर मैं भी कह उठा खुद से प्रश्न किया फ़िल्म क्यों देखी? अरे भईया नहीं पता!
खैर फ़िल्म देखने का मेरा निजी फैसला था। क्योंकि फ़िल्म के साथ क्रिएटिव डायरेक्टर के तौर पर जुड़े हुए हैं हमारे शहर श्री गंगानगर के शब्बीर खान। शब्बीर कई गाने डायरेक्टर कर चुके हैं। मुम्बई में रहते हुए कुछ क्राइम से जुड़े एपिसोड भी बतौर असिस्टेंट डायरेक्टर असिस्ट कर चुके हैं। इसके अलावा कुछ शॉर्ट फिल्में भी बनाई हैं। क्रिएटिव डायरेक्टर के नजरिये से इस फ़िल्म को देखा जाए तो शब्बीर का काम सन्तुष्टि दिलाता है। ऐसा इसलिए नहीं कि वे मेरे शहर के हैं आप उनका काम देख सकते हैं चाहें तो।
अब बात करूं ताऊ जी की तो वे खाटू श्याम जी के भक्त हैं। लेकिन उनकी भक्ति भी फ़िल्म की नैया को पार नहीं उतारती।
प्रशांत यादव, अजय के कुंदल, पुनीत कुमार, मनी मयंक मिश्रा अपना काम स्वाभाविक और सहज तरीके से करते नजर आते हैं। कहीं कहीं छाप भी छोड़ते हैं। गहना सेठ का काम अच्छा है। उन्होंने अपने अभिनय से फ़िल्म में जान फूंकने की कोशिश की है लेकिन एक दो मोड़ पर वे भी विफल नजर आईं। लेकिन जनाब जब कहानी ही न हो तो अभिनेता क्या अभिनय कर लेगा?
फ़िल्म के अंत में डिस्क्लेमर आता है कि 70 फीसदी महिलाएं घरेलू हिंसा की शिकार हैं भारत में। यह सत्य है और फ़िल्म में भी इसके छिट पुट अंश गहराई से दिखाई देते हैं। गानों के नाम पर फ़िल्म में दो रैप हैं। जो फ़िल्म को गति प्रदान करते हैं और फ़िल्म को झेलने के लिए आपको थोड़ा आराम भी देते हैं।
फ़िल्म की लोकेशन अच्छी है एक काम ये बेहतर हुआ है। बैकग्राउंड स्कोर भी ठीक ठाक है।
इसके अलावा फिल्म में कदम कदम पर गालियां और अश्लील दृश्य हैं जो शहरों की हकीकत ही नहीं बल्कि पूरे भारत के छवि को दिखाते हैं। फ़िल्म में न कोई कहानी है न फ़िल्म का कोई उद्देश्य नजर आता है। बेहतर होता फ़िल्म की कहानी पर थोड़ा भी काम किया जाता तो फ़िल्म बेहतर हो सकती थी। ऐसी फिल्में सिनेमा के डिब्बों में बंद होकर रह जाती हैं और उन्हीं के लायक भी हैं। ये फिल्में सिनेमा में बिना मतलब की भसड़ मचाती नजर आती हैं। एक बात और ऐसी फिल्में बनाना उन संसाधनों का दुरुपयोग करना है जो सिनेमा बनाने के लिए आपको मिले हैं। एम एक्स प्लयेर पर इस फ़िल्म को देखा जा सकता है।
निर्देशक – सैफ बैद्य
कलाकार – प्रशांत यादव , अजय के कुंदल , पुनीत कुमार मिश्रा, मनी मयंक मिश्रा, गहना सेठ
रिलीजिंग प्लेटफार्म – एमएक्स प्लयेर
अपनी रेटिंग – 1 स्टार
तेजस पूनियां
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