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Need management and resources, not joule
अब यह देश के नेताओं का नहीं, बल्कि आपके और हमारे परिवारों की जिंदगी का सवाल है...
साहब बहादुर ने फरमान दिया— बाजार, स्कूल, पब्लिक प्लेस बंद। सरकार ने रिंगटोन बदल दी, रेलवे प्लेटफार्म टिकट की कीमत 50₹ कर दी, वीजा पर रोक लगा दी। यह एन्फोर्समेंट है, पॉवर एक्सरसाइज करना है। यह आसान और मुफ्त होता है। इसमें किसी के पल्ले से हींग फिटकरी कुछ भी नहीं लगता। सबसे प्रतिभाहीन, निकम्मी, यूजलेस सरकारें बैठे-बैठे फरमान जारी करती हैं। अपीलें जारी करती हैं। इसके लिए सिर्फ जुमले चाहिए, न प्रबंधन चाहिए और न संसाधन ही।
किसी फरमान का मतलब यह है कि परिस्थितियों का सारा दोष जनता का है.. तो अब अपना चाल-चलन उसी को मैनेज करना है। अपील इसका दूसरा रूप है। फिलहाल अपील है कि जनता कर्फ्यू लगाओ, ताली और थाली बजाओ।
जनाब सर्विस कहाँ है? | Where is the service?
सरकारें सर्विस ऑर्गनाइज करती दिखनी चाहिएं। इसके लिए संसाधन, अक्ल, प्लानिंग, फंड और मेहनत लगती है। सरकारें चुनी ही इसलिए जाती हैं। जनता से अधिक एफर्ट सरकार की ओर से दिखनी चाहिए। सर्विस डिलीवरी और सीरियसनेस दिखेगी जनता खुद कम्प्लॉई करने लगेगी।
आप देखिए कि जांच लैब, टेस्टिंग किट की कमी, दवाओं का अभाव (Testing lab, lack of testing kit, lack of medicines) आदि कैसे दूर होगा? मेरे शहर से संदिग्ध सैम्पल जांच के लिए हैदराबाद और पुणे तक जा रहे हैं। आपके 21 नए एम्स कब बनेंगे? जाने दीजिए। राज्य में ढंग की पैथोलॉजी लैब तो बना दो भाई। अस्थायी ही सही।
जिलों के अस्पताल पीपीपी मोड में प्राइवेट हाथों में देने की पूरी तैयारी है। तो ऐसे कठिन वक्त पर आप लीलावती, एस्कॉर्ट्स, ब्रीज कैंडी और मेदान्ता से इस राष्ट्रीय आंदोलन में जुटने की सुनिश्चितता क्यों नहीं करते। थाली क्या केवल आम जनता बजाएगी?
मूर्खता केवल केंद्र में ही व्याप्त नहीं है, राज्यों में भी बेपरवाह सरकारें हैं।
दिल्ली और केरल को छोड़ कहीं भी कोई लीडर गम्भीरता नहीं दिखा रहा। सभी ने फरमान और अपील का खेल खेलकर डॉक्टरों और नर्सों को इस लड़ाई में जर्जर संसाधनों के साथ अकेला छोड़ दिया है।
ऐसे में वे मूर्ख देशभक्त, जो नेता का हर कहा करने को तैयार हैं, समझ जायें कि लाइन में लगने से, लॉक डाउन होने से और सरकार की बकलोली में सहयोग करने से हालात नहीं सुधरेंगे। और मुझसे प्लीज मत पूछिए कि 1915 के स्पेनिश फ्लू (Spanish flu of 1915) के वक्त मैं कहाँ था, मैं पैदा नहीं हुआ था।
पूछिये पीएम से, सीएम से, हेल्थ मिनिस्टर से।
आप बड़े ट्रोल हैं, पीएम और सीएम फॉलो करते हैं, तो सर्विसेज मांगते हुए दो ट्वीट ही कर दीजिए। गुस्सा दिखाइए। उन्हें यह समझने की जरूरत है कि उनका डिवोटेड सहयोगी भी फिलवक्त अपील और फरमान के भुलावे में नहीं आने वाला।
यह वक्त जमीन पर सर्विस डिलीवरी का है, लिप सर्विस का नहीं। दबाव बनाइए।
*याद रहे, यह आपकी पार्टी का नहीं, बल्कि आपके और हमारे परिवार की जिंदगी का सवाल है।*
ताली और थाली जैसी प्रतीकात्मक चीजों से इसलिए दिक्कत है। इनका कोई भी अर्थ निकाला जा सकता है। जैसे मोदी की अपील का मतलब 12 घण्टे में वायरस के मर जाने से लेकर वाइब्रेशन से वायरस खत्म होने तक निकाला गया। इस छद्म विज्ञान को अनपढ़ ही नहीं, पढ़े लिखे लोग भी फैला रहे हैं। इसलिए जरूरी है कि विकट स्थितियों में नेताओं को तार्किक और टू द पॉइंट बात करनी चाहिए। ताकि अर्थ का अनर्थ होने की संभावना कम हो।
जरूरी था कि ठोस कदमों के रूप में जनता को आश्वासन दिया जाता और विज्ञान पर भरोसा रखने कहा जाता।
जहां मैं रहता हूँ उसके पास मोहल्ले में गालियाँ 20 फ़ीट से भी कम चौड़ी हैं। हर घर में 5 से 10 लोग रहते हैं। ज़्यादातर मजदूर वर्ग के हैं। ये सभी लोग मोदी की अपील पर वायरस को मारने गली में आ गए और बर्तन पीटने लगे। पूरी गली खचाखच भर गई। पटाखे फोड़े गए। डीजे चला। लोग जश्न मना रहे हैं कि कोरोना को हरा दिया।
इस भीड़ के कारण एक दिन के कर्फ्यू का भी जो प्रभाव था बर्बाद हो गया। इस मूर्खता की जिम्मेदारी कौन लेगा?
इस बीमारी से दुनिया भर में हज़ारों लोगों की जानें जा चुकी हैं। भारत में भी जाएंगी ये निश्चित है। कई लोगों ने आजीविका खोई, और कई अभी खोएंगे आप भी तैयार रहें। ऐसे में त्यौहार की तरह कर्फ्यू को मनाना मूर्खता ही नहीं असंवेदनशीलता भी है!
आपको लगता है कि लोग स्वास्थ्य कर्मियों और दैनिक कर्मचारियों को सम्मान दे रहे हैं? शायद नहीं।
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भारत में इतने लोग मजदूरों कामगारों को इज्जत देते तो फिर देश मे आज तक यहाँ छुआछूत और मैला ढोने की प्रथा जिंदा न होती। मेरे जानने में ऐसे बहुत से लोग ऐसी भाषा बोलते हैं "ये मजदूर लोग होते ही हैं चोर, चरित्रहीन पैसे से इनसे कुछ भी करा लो"। क्या वही लोग आज उन्हें सम्मान दे रहे ताली थाली बजाके? शायद नहीं। क्या ऐसा ही सम्मान कल भी दिया जाएगा? शायद नहीं। क्या लोग कल से अपने कूड़े वाले को चाय पानी पूछने लगेंगे क्योंकि वह इस महामारी में भी कूड़ा उठाने आ रहा है? क्या लोग अब जातिवाद और छुआछूत के खिलाफ और न्यूनतम मजदूरी के लिए आवाज़ उठाने लगेंगे? शायद नहीं। क्या लोग डॉक्टरों के सम्मान में अस्पताल में पंक्ति तोड़ना बन्द कर देंगे? शायद नहीं। फिर दोगलापन क्यों ?
सच ये है कि लोगों के मन में न स्वास्थ्य कर्मियों के लिए सम्मान है न मजदूरों के लिए। उनके मन में एक आदमी के लिए भक्ति है और उसकी कही हर बात को वे येन केन प्रकारेण सही साबित करेंगे।
और देश की जनता और सच्चाई को समझे बिना ऐसे समय में ऐसे आह्वान करना या तो पहले दर्जे की मूर्खता है या हीरो बनने का नाजायज़ शौक।
अमित सिंह शिवभक्त नंदी
(लेखक-अमित सिंह, कंप्यूटर साइन्स - इंजीनियर, सामाजिक-चिंतक हैं। दुर्बलतम की आवाज बनना और उनके लिए आजीवन संघर्षरत रहना ही अमित सिंह का परिचय है। हिंदी में अपने लेख लिखा करते हैं)
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