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मस्तिष्क में मिर्गी-क्षेत्र के सटीक निर्धारण के लिए नया उपकरण

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hastakshep
05 Aug 2022
विकसित हुआ अस्थि-ऊतकों के पुनर्निर्माण में सहायक नया बायोमैटेरियल

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New tool for precise determination of epileptic regions in the brain

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दुनिया में चौथा सबसे आम तंत्रिका विकार है मिर्गी

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नई दिल्ली, 05 अगस्त: मिर्गी (Epilepsy) को दुनिया में चौथे सबसे आम तंत्रिका विकार (neurological disorder) के रूप में चिन्हित किया जाता है, जो विश्व में हर वर्ष लाखों लोगों को प्रभावित करता है। इसमें शरीर पर आंशिक अथवा संपूर्ण रूप से पड़ने वाले अनैच्छिक प्रभाव देखने को मिलते हैं, जिन्हें आमतौर पर दौरे के रूप में जाना जाता है। इस प्रकार के दौरों का कारण शरीर में अत्यधिक एवं असंतुलित विद्युतीय प्रवाह को माना जाता है, जिससे चेतना (Consciousness) लुप्त हो जाती है, और ऐसी स्थिति बन जाती है कि प्रभावित व्यक्ति का अपनी आंतों (bowel) या मूत्राशय (bladder) के कार्य पर नियंत्रण नहीं रहता है।

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कम समय में बिना चीरफाड़ एपिलेप्टोजेनिक ज़ोन की पहचान कर सकेगा नया उपकरण

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मिर्गी के लिए जिम्मेदार मस्तिष्क क्षेत्र, जिसे एपिलेप्टोजेनिक ज़ोन (Epileptogenic Zone) के नाम से जाना जाता है, की पहचान के लिए भारतीय शोधकर्ताओं के एक ताजा अध्ययन में एक नये डायनोस्टिक उपकरण की पेशकश की गई है।

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शोधकर्ताओं का कहना है कि यह उपकरण प्रचलित विधियों की तुलना में अधिक अनुकूल है, जिसकी मदद से बिना चीरफाड़ कम समय में एपिलेप्टोजेनिक ज़ोन की पहचान (Identification of the epileptogenic zone) की जा सकती है।

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यह अध्ययन भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी) दिल्ली के शोधकर्ताओं द्वारा किया गया है।  

क्या मिर्गी को नियंत्रित किया जा सकता है?

मिर्गी को आम तौर पर दवाओं से नियंत्रित किया जा सकता है। जब दवाएं मिर्गी के दौरे को नियंत्रित करने में विफल हो जाती हैं, तो इसे दवा-प्रतिरोधी मिर्गी कहा जाता है। मस्तिष्क की संरचनात्मक असामान्यताएं दवा-प्रतिरोधी मिर्गी के लिए संभावित रूप से सबसे अधिक जिम्मेदार होती हैं। इसीलिए, मस्तिष्क सर्जरी ऐसे रोगियों के लिए पूर्ण इलाज प्रदान कर सकती है। लेकिन सर्जिकल मूल्यांकन में सबसे जटिल कार्य विद्युतीय असामान्यता की उत्पत्ति का निर्धारण, और मस्तिष्क की संरचनात्मक असामान्यता के साथ इसके संबंध का पता लगाना है।

मस्तिष्क की संरचनात्मक असामान्यताएं इतनी सूक्ष्म होती हैं कि अकेले एमआरआई की मदद से भी उनकी पहचान कठिन होती है। इसके लिए इलेक्ट्रोएन्सेफलोग्राम (ईईजी) मूल्यांकन के साथ व्याख्या करनी पड़ती है।

न्यूरोसर्जन द्वारा उपयोग किए जाने वाले अन्य तौर-तरीकों में पॉज़िट्रॉन एमिशन टोमोग्राफी (पीईटी) स्कैन और मैग्नेटोएन्सेफलोग्राफी (एमईजी) शामिल हैं। पीईटी स्कैन में रेडियोधर्मी पदार्थ का सेवन शामिल है। वहीं, भारत में एमईजी सुविधा बहुत सीमित है। क्रैनियोटॉमी और रोबोट-असिस्टेड सर्जरी में चीरफाड़ करनी पड़ती है, जिसमें चिकित्सकों को मस्तिष्क पर इलेक्ट्रॉड लगाने के लिए खोपड़ी में छेद करना पड़ता है। एपिलेप्टोजेनिक ज़ोन डिटेक्शन (Epileptogenic Zone) में 2-8 घंटे लगते हैं, और मरीजों के लिए यह बेहद असुविधाजनक होता है।

आईआईटी दिल्ली के प्रोफेसर ललन कुमार के नेतृत्व में शोधकर्ताओं की टीम ने मिर्गी फोकल की पहचान के लिए बिना चीरफाड़ (Non-invasive) ईईजी आधारित ब्रेन सोर्स लोकलाइज़ेशन (BSL) फ्रेमवर्क विकसित किया है, जो कम समय में परिणाम दे सकता है, और रोगी के अनुकूल है। मिर्गी के दौरे से संबंधित ईईजी डेटा के आधार पर आंकड़ों की संरचना के प्रसंस्करण से जुड़ा एल्गोरिदम कुछ मिनटों के भीतर निर्दिष्ट क्षेत्र को इंगित कर सकता है। विशेष रूप से, शोधकर्ताओं ने मिर्गी के दौरे के क्षेत्र का पता लगाने के लिए अभिनव हेड हार्मोनिक्स आधारित एल्गोरिदम की रूपरेखा प्रस्तुत की है।

प्रोफेसर ललन कुमार का कहना है कि “हमने मिर्गी दौरे के क्षेत्र का पता लगाने के लिए गोलाकार हार्मोनिक्स और हेड हार्मोनिक्स आधारित प्रक्रिया के उपयोग का प्रस्ताव पेश किया है। बिना चीरफाड़ और कम समय में मिर्गी क्षेत्र का पता लगाने से जुड़ा यह प्रयास महत्वपूर्ण है।”

शोधकर्ताओं ने एपिलेप्टोजेनिक ज़ोन की पहचान के लिए नैदानिक ईईजी डेटा के आधार पर प्रस्तावित एल्गोरिदम को अपने अध्ययन में प्रामाणिक पाया है। उनका कहना है कि प्रस्तावित ढांचा स्वचालित और समय-कुशल मिर्गी क्षेत्र के निर्धारण में चिकित्सकों को एक प्रभावी समाधान प्रदान कर सकता है।

यह अध्ययन, आईआईटी दिल्ली में इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग विभाग से जुड़ी शोधार्थी डॉ अमिता गिरी के पीएचडी शोध कार्य का एक हिस्सा है।

प्रोफेसर ललन कुमार एवं डॉ अमिता गिरी के अलावा, शोध टीम के सदस्यों में आईआईटी दिल्ली के शोधकर्ता प्रोफेसर तपन के. गांधी, और दीनानाथ मंगेशकर अस्पताल एवं अनुसंधान केंद्र, पुणे के शोधकर्ता डॉ नीलेश कुरवाले शामिल हैं। यह अध्ययन शोध पत्रिका साइंटिफिक रिपोर्ट्स में प्रकाशित किया गया है। (इंडिया साइंस वायर)

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