देश चार लोगों; अम्बानी अडानी और मोदी शाह का राज बर्दाश्त नहीं करेगा- डॉ अशोक ढवले

hastakshep
01 Aug 2021

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 हाल के दौर में जमकर लड़ी है देश की जनता, इन संघर्षों को आगे बढ़ाना ही होगा

शैली स्मृति व्याख्यान में हाल के दौर के जन आंदोलन और उनकी विशेषताएं पर बोले डॉ अशोक ढवले

भोपाल, 01 अगस्त 2021. "आदरांजलि देने का काम सिर्फ शब्दों से नहीं किया जाता। सच्ची आदरांजलि उस रास्ते पर चलकर दी जाती है जिसे दिखाकर शैली हमारे बीच से गए हैं। यह रास्ता कैसे भी हालात हों उनमें संघर्ष तेज करने, उसे आगे बढ़ाने और उसके आधार पर वामपंथी विकल्प तैयार करने तथा उसके अनुरूप संगठन बनाने का है।"

इन शब्दों के साथ अखिल भारतीय किसान सभा के अध्यक्ष डॉ अशोक ढवले ने शैलेन्द्र शैली स्मृति व्याख्यान 2021 के अपने व्याख्यान को पूरा किया।

"हाल के दौर के जन आंदोलन और उनकी विशेषताएं" विषय पर बोलते हुए उन्होंने तीन मुख्य संघर्षो; नागरिकता क़ानून के खिलाफ भारतीय जनता के संग्राम, मजदूरों की लड़ाई और किसानों के ऐतिहासिक आंदोलन के दायरे में अपनी बात रखी।

उन्होंने कहा कि इन तीनों आंदोलन की मुख्य विशेष समानता यह है कि ये मोदी - अमित शाह की सरकार और उसकी नीतियों के खिलाफ हैं।

हाल के दौर का एक असाधारण आंदोलन था शाहीन बाग आंदोलन

2019 से सीएए और एनआरसी के खिलाफ शुरू हुए आंदोलन की याद दिलाते हुए डॉ ढवले ने कहा कि भारतीय नागरिकों की नागरिकता पर सवाल उठाने वाली साजिश के खिलाफ देश भर में हुए इस आंदोलन की ख़ास बात इसमें बड़े पैमाने पर मुस्लिम जनता की भागीदारी, इसकी अगुआई मुस्लिम महिलाओं के हाथों में होने और हिन्दू, बौद्ध, दलितों सहित हर तरह के भारतीयों की हिस्सेदारी थी। शाहीन बाग़ की तरह पूरे देश में यह व्यापक रूप से फैला और अपने झण्डे पर सावित्री फुले, भगत सिंह, कैप्टेन लक्ष्मी सहगल, रानी लक्ष्मीबाई को अपना प्रतीक और इन्क़िलाब जिंदाबाद, भगत सिंह जिंदाबाद को अपना नारा बनाया, कोरोना की पहली लहर के चलते यह बीच में रुक गया - किन्तु हाल के दौर का यह एक असाधारण आंदोलन था।

उदारीकरण के खिलाफ 20 राष्ट्रीय हड़तालें कर चुके मजदूरों के संग्राम को रेखांकित करते हुए उन्होंने इसकी तीन प्रकार की लड़ाइयों को याद दिलाया। पहले लॉकडाउन में करोड़ों प्रवासी मजदूरों की दुर्दशा, उनके असहाय और भूखे लौटने की स्थिति, मोदी सरकार की बेरुखी और वापसी यात्रा में मध्यप्रदेश के 16 मजदूरों की महाराष्ट्र के रेल हादसे में हुए मौतों का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा कि इस अकथ पीड़ा की जिम्मेदारी से मोदी सरकार बच नहीं सकती।

उन्होंने याद दिलाय कि इन वापस लौटते मजदूरों की मदद में लाल झंडा खड़ा हुआ, इसी के साथ जनवादी महिला समिति, एसएफआई, नौजवान सभा सहित अनेक जनवादी संगठन भी उतरे। कोरोना में गरीबों की हालत जितनी खराब हुयी कि गंगा भी शववाहिनी बन गयी। इन सब स्थितियों के खिलाफ इस दौर में भी असंगठित श्रमिक लड़े, आंगनबाड़ी आशा कर्मियों ने हड़तालें कीं। संगठित श्रमिकों पर हमले पहले लेबर कोड के नाम पर हुए उसके बाद निजीकरण की आपराधिक मुहिम चली।

निजीकरण के अपराधों का ब्यौरा देते हुए डॉ अशोक ढवले ने बताया कि शिक्षा और स्वास्थ्य सहित ऐसा कोई क्षेत्र नहीं है जिसे अम्बानी या अडानी को बेचा न गया हो। यही वजह है की महामारी के दौरान ये दोनों एशिया के नंबर एक और दो रईस बन गए।

निजीकरण की लूट का एक उदाहरण उन्होंने विशाखापट्टनम स्टील प्लांट का दिया। करीब 35 हजार मजदूरों और 3 लाख करोड़ रुपयों की संपत्ति वाले इस प्लांट को मोदी शाह सरकार सिर्फ 1300 करोड़ रुपयों में बेचने की फ़िराक में है। मगर मजदूर इसके खिलाफ लड़ रहा है और किसान उसके साथ है।

उन्होंने बताया कि पिछले साल 26 नवम्बर की देशव्यापी श्रमिक हड़ताल के बाद अब कई दिनों की हड़ताल की तैयारी की जा रही है।

Eight Features of the Historical Peasant Movement

ऐतिहासिक किसान आंदोलन की आठ विशेषताएं गिनाने के बाद उसके नेताओं में से एक डॉ ढवले ने कहा कि सारी मुश्किलों और साजिशों को पार करने के बाद अब इस आंदोलन का राजनीतिक असर दिखने लगा है। चार राज्यों के चुनाव में भाजपा की पराजय तथा केरल में फिर शून्य पर पहुँचा देना इसका उदाहरण है। पंजाब तथा उत्तरप्रदेश के पंचायत चुनावों में भी यही हुआ - अब संयुक्त किसान मोर्चे ने मिशन उत्तरप्रदेश और उत्तराखंड का एलान कर दिया है, जिसकी शुरुआत 5 सितम्बर को मुज़फ्फरनगर में विराट किसान रैली से की जाएगी। भाजपा को आने वाले चुनावों में भी हराया जाएगा। देश चार लोगों; अम्बानी अडानी और मोदी शाह का राज बर्दाश्त नहीं करेगा।

उन्होंने आव्हान किया कि अब सिर्फ एकजुटता या समर्थन की नहीं संघर्षों में वास्तविक भागीदारी की जरूरत है। इस प्रसंग में उन्होंने 9 अगस्त के भारत बचाओ आंदोलन सहित संयुक्त किसान मोर्चे, ट्रेड यूनियनों के साझे मंच और जन संगठनों के आव्हानो को सफल बनाने की अपील की।

उस दिन शैली न होते तो न जाने क्या होता !!

शैली स्मृति व्याख्यान में कामरेड शैलेन्द्र शैली की असाधारण नेतृत्व क्षमता को याद करते हुए डॉ अशोक ढवले ने 1984 का एक संस्मरण सुनाया।

उन्होंने बताया कि जनवरी 1984 में दमदम में हुयी एसएफआई की नेशनल कांफ्रेंस से ठीक पहले शैली महाराष्ट्र एसएफआई के कन्वेंशन में केंद्र की ओर से भाग लेने आये थे और वहां से सीधे महाराष्ट्र डेलीगेशन के साथ कोलकाता की ट्रेन में रवाना हुए थे। रास्ते में भाटापारा स्टेशन (रायपुर और बिलासपुर के बीच का एक रेलवे स्टेशन ) पर कुछ गुंडों ने एसएफआई के साथियों को टारगेट पर लेकर गाड़ी पर हमला बोल दिया। आनन फानन में कई हजार स्थानीय लोग इकट्ठा हो गए और जिस डब्बे में एसएफआई का पूरा - लगभग 100 का - डेलीगेशन था, उस पर पेट्रोल डालकर आग लगाने की तैयारी की जाने लगी। इस उन्माद के बीच कामरेड शैली ने प्लेटफार्म पर अकेले उतरकर उन्मादी भीड़ को इतनी सरलता के साथ समझाया कि थोड़ी ही देर में गुंडे अलग-थलग पड़ गए और रुकी हुयी ट्रेन सुरक्षित आगे बढ़ गयी।

 उन्होंने कहा कि यह घटना हमें जिंदगी भर याद रहेगी - हम आज भी उसका ध्यान कर सोचते हैं कि यदि उस दिन शैली नहीं होते तो न जाने कितना बड़ा हादसा हो जाता।

डॉ ढवले ने कहा कि कामरेड शैलेन्द्र शैली एक अदभुत नेता थे। उनकी यह हम सबके दिलों में हमेशा रहेगी।

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