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बसोर समुदाय का पुश्तैनी धंधा प्लास्टिक सामग्री छीन रही हैं

Basor community's ancestral business is snatching plastic materials. पर्यावरण व प्रकृति के साथ पूरे मानव समाज के लिए खतरा है प्लास्टिक. बंसोर समुदाय के बारे में जानकारी

परिवार के साथ बांस के सामान बनाती गणेशी Ganeshi making bamboo items with family

परिवार के साथ बांस के सामान बनाती गणेशी

मध्य प्रदेश में बसोर समुदाय का पुश्तैनी धंधा क्या है?

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भोपाल, 26 अप्रैल 2023 (पूजा यादव): मध्य प्रदेश में बसोर समुदाय के लोग अपना पुश्तैनी काम (Ancestral business of Basor community in Madhya Pradesh) बांस से डलिया, छबड़ी, सूपा, पंखा, टपरी, टपरा, कुर्सी, झूला, झटकेड़ा, फर्नीचर,फूलदान और टोपली आदि बनाना छोड़कर मजदूरी करने लगे हैं. ऐसा इसलिए, क्योंकि इनके बनाये बांस की इको फ्रेंडली सामग्रियों (Eco-friendly bamboo products made by the Basor community) की जगह तेजी से प्लास्टिक की बनी सामग्रियों ने ले लिया है. क्या शहर और क्या गांव, इस चलन को इतना बढ़ावा मिल चुका है कि यह प्लास्टिक लोगों के जीवन का हिस्सा बन गई है. 

पर्यावरण व प्रकृति के साथ पूरे मानव समाज के लिए खतरा है प्लास्टिक

जी हां, वही प्लास्टिक जो पर्यावरण व प्रकृति ही नहीं, बल्कि पूरे मानव समाज के लिए खतरा है, उसका उपयोग लगातार बढ़ रहा है. चिंता इसलिए भी है कि प्लास्टिक अब तेजी से गांवों को कब्जे में ले रहा है. इसकी वजह से दोहरा संकट खड़ा हो गया है. एक तरफ इसके चलन ने बसोर समुदाय से उनका पुश्तैनी कामकाज छीनकर उन्हें आर्थिक रूप से कमजोर कर दिया है, तो दूसरी ओर प्लास्टिक कचरे से पर्यावरण का नुकसान भी बढ़ता जा रहा है.

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पुश्तैनी धंधा छोड़ने को क्यों मजबूर हो रहे हैं बसोर समुदाय के लोग?

पर्यावरण और प्रकृति के संरक्षण को लेकर तो कई स्तर पर प्रयास चल रहे हैं और कई योजनाओं पर काम भी हो रहा है, लेकिन बसोर समुदाय के हाथ से जाते स्वरोजगार पर किसी का कोई ध्यान नहीं है. तभी तो 55 वर्षीय गणेशी बाई बंशकार कहती हैं, "इंसानों को नुकसान पहुंचाने वाली प्लास्टिक की सामग्री बनाने वालों को सस्ते दामों पर जमीनें उपलब्ध कराई जा रही हैं, कारखाना लगाने में मदद दी जाती है, अनुदान दिये जा रहे हैं, कम ब्याज पर कर्ज मिल जाता है, न जाने कई तरह की रियायतें दी जा रही हैं और हम बसोर समुदाय के जीवन का हिस्सा बन चुके बांस की कीमतें बढ़ती जा रही हैं. रुपये लेने के बाद भी जो बांस दिया जाता है, वह पहले की तुलना में कम मोटा व लंबाई में कम दिया जा रहा है. यहां तक कि जरुरत का बांस तक नहीं देते हैं. समाज के अधिकतर लोग तो यह काम छोड़ ही चुके हैं, हमें भी छोड़ने के लिए मजबूर होना पड़ेगा". 

वह कहती हैं, अब तो हमें मदद की उम्मीद भी नहीं है, क्योंकि हमें कब का अकेले छोड़ दिया गया है.

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Basor community's ancestral business is snatching plastic materials

मप्र की राजधानी भोपाल के बांसखेड़ी क्षेत्र में राज्य प्रदूषण नियंत्रण कार्यालय परिसर के सामने सड़क के किनारे बैठी गणेशी बाई बंशकार प्रतिदिन यहां अपनी अस्थाई दुकान लगाती हैx. सूरज धीरे-धीरे ढल रहा है मगर उvके सामान इक्के दुक्के ही बिके हैं. इसी के साथ उसकी उम्मीदें भी टूट रही हैं. 

गणेशी बाई बंशकार भोपाल के डीआईजी बंगला क्षेत्र की ही रहने वाली हैं. उनका विवाह टीकमगढ़ के देवदा गांव में छक्कीलाल बंशकार से हुआ था, जो अब इस दुनिया में नहीं हैं. गणेशी बाई की 6 संतानों में 5 बेटियां और 1 बेटा रहा, लेकिन बेटा भी 36 वर्ष की उम्र में लिवर की बीमारी के कारण दुनिया से चल बसा. 

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गणेशी बाई, अपनी बहू और अपने तीन पोते-पोतियों के साथ बांस से बने सामानों को बनाने का काम करती हैं. वह रोज़ सुबह से शाम तक बांसखेड़ी में रोड के किनारे पुश्तैनी काम करती है और यहीं पर बांस से बनी घरेलू उपयोग में काम आने वाली सामग्री की दुकान भी लगाती हैं.

भोपाल में बांस का रेट क्या है? 

वह बताती है कि 40 वर्ष पहले 4 इंच मोटा व 18 फुट लंबा बांस डेढ़ रुपये में आता था, उससे छोटी बड़ी करके 4 डलिया बना लेते थे. अब उससे पतला और कम लंबाई वाला बांस 30 से 35 रुपये में खरीदना पड़ रहा है. उससे डलिया भी दो ही बन पाती हैं. अच्छा बांस असम से मंगवानी पड़ती है, जो 150 रुपये का एक मिलता है. गणेशी बाई कहती हैं कि पहले प्लास्टिक से बनी डलिया, सूपा, टोकरी, छबड़ी, तस्ला, मघ, बाल्टी, गिलास, डोआ, पंखा, टपरी जैसी सामग्री दूर दूर तक नहीं थी इसलिए बांस से बनी सामग्री खूब बिकती थी. एक महीने में 50 से 100 डलिया बेच देती थीं. 40 वर्ष पूर्व एक डलिया के 3 से 4 रुपये मिलते थे. इस तरह उस दौर में न्यूनतम 200 से अधिकतम 500 रुपये का कारोबार एक दिन में होता था. कहती हैं, आज से दस वर्ष पहले तक 700 से 1000 रुपये एक दिन में कमा लेती थीं, लेकिन वर्तमान में प्लास्टिक के सामानों की मांग के कारण कभी 150 तो कभी 500 रुपये तक की ही बिक्री हो रही है. इससे खर्च भी नहीं निकल रहा है.

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गणेशी के नजदीक ही सावित्री बाई भी बांस से बनी सामग्री की दुकान लगाती हैं. वह कहती हैं, "पहले की बात ही कुछ और थी, अब तो दिन भर में एक ग्राहक भी आ जाए तो बहुत है." 

पुराने समय को याद करते हुए वह कहती हैं, "प्लास्टिक ने हमारे हाथों का काम छीन लिया है. हमारे बच्चों को मजदूरी करने जाना पड़ रहा है, तब घर का राशन पानी खरीद पाते हैं और दो वक़्त का भोजन मिल पाता है. एक समय था, जब परिवार के सभी सदस्य बांस से ही अनेक सामग्री बनाते थे और दूसरे सदस्य उन्हें बेचते थे. कई बार तो सामग्री कम पड़ जाती थी और रात के तीन-तीन बजे तक काम करना पड़ता था. सुबह भी जल्दी उठकर काम में लग जाते थे." 

वह कहती हैं "पहले बांस की टोकरी, डलिया, छबड़ी, टपरी, बड़ा झटकेड़ा खरीदने के लिए गांव से लोग शहर आते थे. यहां तक कि लोगों के घर शादियां होती थी तो एक वर्ष पहले पूड़ी, चावल रखने के लिए बड़ी डलिया बनाने के थोक में आर्डर मिल जाते थे, यहां तक कि ग्राहक नगद राशि देकर चले जाते थे. कई बार तो दुकान लगाने तक की जरुरत नहीं पड़ती थी, क्योंकि घर से ही सामग्री बिक जाती थी. अब तो गांवों में घूम घूमकर बेचने पर भी बांस से बनी टोकरी, डलिया, सूपा के कोई खरीदार नहीं मिलते, क्योंकि प्लास्टिक की सामग्री गांव-गांव तक पहुंच चुकी है."

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बैतूल के नसीराबाद के रहने वाले मधु बासोर कहते हैं "हमने तो बहुत काम किया और अभी भी जैसे तैसे कर रहे हैं, लेकिन अब नई पीढ़ी इसमें बिल्कुल भी हाथ नहीं डाल रही है, क्योंकि इसमें फायदा ही नहीं है तो मेहनत करने का क्या मतलब?" 

वह कहते हैं कि खुद उनके बच्चे यह काम नहीं करते, केवल वह और उनकी पत्नी ही इस काम को कर लेते हैं. 

मप्र के छिंदवाड़ा जिले के नवेगांव के देवी सिंह बताते हैं, एक समय था जब गांव में बांस की सामग्री को लेकर बासोर समुदाय के लोग साल में 8 से 10 चक्कर लगा देते थे. बिक्री भी खूब होती थी लेकिन अब ये नहीं आते हैं. इनकी जगह प्लास्टिक की सामग्री बेचने वाले बाइक पर आते हैं और बेचकर चले जाते हैं.

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बंसोर समुदाय के बारे में जानकारी (Information about Bansor community in Hindi) 

दरअसल, बंसोर समुदाय की संख्या उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश में सबसे अधिक पाई जाती है. इस जाति को अनुसूचित जाति का दर्जा प्राप्त है. बसोर परंपरागत रूप से बांस के फर्नीचर,बांस हस्तकला आदि के निर्माण में शामिल थे. उनके काम के कारण ही उन्हें बंसोर नाम से जाना जाता है. मप्र में बसोर मुख्य रूप से जबलपुर, भोपाल और सागर जिले में आबाद हैं. यहां वे बुंदेलखंडी बोली बोलते हैं. ये उत्तर प्रदेश के जालौन, हमीरपुर, महोबा,झांसी, कानपुर और बांदा जिलों में भी आबाद हैं.

बहरहाल, विशेषज्ञों की मानें तो प्लास्टिक के लगातार उपयोग करने से सीसा, कैडमियम और पारा जैसे रसायन मानव शरीर के संपर्क में आते हैं. ये जहरीले पदार्थ कैंसर, जन्मजात विकलांगता, इम्यून सिस्टम और बचपन में बच्चों के विकास को प्रभावित कर सकते है. माना जाता है कि लगातार इसका उपयोग करने से पल्मोनरी कैंसर हो सकता है वहीं तंत्रिका और मस्तिष्क को भी नुकसान पहुंच सकता है. लेकिन सस्ता सामान के नाम पर जहां हम अनजाने में अपने लिए बीमारी खरीद रहे हैं वहीं बसोर समुदाय को बेरोज़गारी के दहाने पर पहुंचा रहे हैं. यदि समय रहते सचेत नहीं हुए तो तबाही दोनों ओर है.

Basor community's ancestral business is snatching plastic materials

(चरखा फीचर)

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