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द्वारा जस्टिस मार्कंडेय काटजू
नीचे दिए गए अपने लेखों में मैंने समझाया है कि सच्चा न्याय क्या होना चाहिए I यह व्यक्तिगत हित या व्यक्तिगत धारणाओं के विचारों से पूरी तरह अलग होना चाहिए।
A Judge should be totally detached
Qazi Sirajuddin, my ideal judge: Markandey Katju
न्यायिक इतिहास से अब मैं इसके कुछ अन्य उदाहरण दे रहा हूं:
1. जब मैं इलाहाबाद उच्च न्यायालय में एक वकील था, एक शाम मैं अपने घर के पुस्तकालय में लंदन में बैठे एक ब्रिटिश उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के फैसले को पढ़ रहा था। इस फैसले में न्यायाधीश विस्तार से, और स्पष्ट, सटीक भाषा में, कीमत ( price ) और मूल्य (value ) के बीच के अंतर, की व्याख्या कर रहे थे I अर्थशास्त्र में यह एक महत्वपूर्ण अंतर है (उदाहरण के लिए, हम जिस हवा में सांस लेते हैं, उसका बहुत मूल्य है, क्योंकि हम इसके बिना नहीं रह सकते, लेकिन इसकी कोई कीमत नहीं है)।
फिर मैंने फैसले की तारीख देखी। यह 15 सितंबर 1940 था, जब जर्मन वायु सेना, लूफ़्टवाफे़ ( Luftwaffe ) ने द्वितीय विश्व युद्ध में लंदन पर अपना सबसे भयंकर हवाई हमला किया, जिसके परिणामस्वरूप एक अग्नि का तूफ़ान ( firestorm ) आया, जिसे लंदन की दूसरी बड़ी आग के रूप में जाना जाता है ( Second Great Fire of Lodon ), जिससे कई मौतें हुईं और संपत्ति की भारी क्षति हुई।
पूरी तरह से अविचलित मन से, चारों ओर बम विस्फोट से बेफिक्र, और अपनी व्यक्तिगत सुरक्षा के बारे में उदासीन, न्यायाधीश कीमत और मूल्य के बीच के अंतर को शांति से समझा रहे थे। यह अलगाव, जिसे अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस फ्रैंकफर्टर ( Justice Frankfurter ) अक्सर अस्पृहा या उदासीनता ( disinterestedness ) कहते थे, एक सच्चे न्यायाधीश की पहचान है।
2. व्हिटनी बनाम कैलिफोर्निया, 1927 ( Whitney vs California ) में, अपीलकर्ता पर अमेरिका में एक कम्युनिस्ट पार्टी का आयोजन करने का आरोप लगाया गया था। साम्यवाद सरकार को हिंसक रूप से उखाड़ फेंकने में विश्वास करता है, लेकिन यह साबित नहीं किया जा सका कि व्हिटनी ने किसी भी तत्काल हिंसा की वकालत की। उस मामले में, उन शब्दों में जो न्यायिक इतिहास में गूंजते हैं, अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस ब्रैंडिस ( Justice Brandeis ) ने कहा:
''केवल गंभीर हानि के भय से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के दमन को न्यायोचित नहीं ठहराया जा सकता। एक ज़माने में कुछ महिलाओं को चुड़ैल मान कर जलाया जाता था। वाणी का कार्य मनुष्य को अतार्किक भय के बंधन से मुक्त करना है। मुक्त भाषण के दमन को सही ठहराने के लिए, यह मानने के लिए उचित आधार होना चाहिए कि आशंकित खतरा आसन्न है।
मौजूदा कानून की हर भर्त्सना कुछ हद तक इस संभावना को बढ़ाती है कि इसका उल्लंघन होगा I साम्यवाद के प्रचार से ये सम्भावना और बढ़ती है I लेकिन उल्लंघन का समर्थन, हालांकि नैतिक रूप से निंदनीय हो, लेकिन मुक्त भाषण से इनकार करना औचित्यपूर्ण नहीं है जहां यह इंगित करने के लिए कुछ भी नहीं है कि प्रचार पर तुरंत हिंसात्मक कार्रवाई की जाएगी। प्रचार और उकसावे के बीच, तैयारी और प्रयास के बीच, एकत्रीकरण और साजिश के बीच व्यापक अंतर को ध्यान में रखना चाहिए। स्पष्ट और वर्तमान खतरे (clear and present danger) की खोज का समर्थन करने के लिए, यह दिखाया जाना होगा कि प्रचार से तत्काल गंभीर हिंसा की आशा थी, या इसकी वकालत की गई थी।
जिन लोगों ने क्रांति से हमारी आजादी जीती, वे कायर नहीं थे। उन्हें राजनीतिक परिवर्तन का डर नहीं था। उन्होंने स्वतंत्रता की कीमत पर व्यवस्था को वर्चस्व नहीं दिया।
स्वतंत्र और निर्भय तर्कशक्ति में विश्वास रखने वाले साहसी, स्वावलंबी पुरुषों के लिए भाषण से उत्पन्न होने वाले किसी भी खतरे को तब तक स्पष्ट और उपस्थित ( clear and present ) नहीं समझा जा सकता जब तक कि आशंकित अशुभ घटना इतनी आसन्न न हो कि वह पूर्ण चर्चा का अवसर देने से पहले ही आ जाए। यदि बहस के माध्यम से झूठ और भ्रांतियों को उजागर करने का समय है, तो बुराई को टालने के लिए, लागू किया जाने वाला उपाय अधिक भाषण है, न कि मौन करना'।
3. शीत युद्ध ( Cold War ) के प्रारंभिक वर्षों के दौरान, अमेरिका में साम्यवादी विध्वंस के डर को सीनेटर जोसेफ मैककार्थी ( Senator Joseph Mccarthy ) द्वारा भड़काया गया, जो जांच करने वाली एक सीनेट उपसमिति के अध्यक्ष बने, और संयुक्त राज्य अमेरिका में एक सामान्य डर व्यापक रूप से फैल गया।
इस अत्यधिक आवेशित माहौल में अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट ने डेनिस बनाम यूएस, 1951 ( Dennis vs US ) में अपीलकर्ताओं के खिलाफ फैसला सुनाया, जिन पर संयुक्त राज्य अमेरिका में कम्युनिस्ट पार्टी का आयोजन करने और भाषण और समाचार पत्रों द्वारा अपने विचारों को फैलाने के लिए सहमत होने का आरोप लगाया गया था। अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट की बहुमत ने उनकी सजा को बरकरार रखा।
असहमति जताते हुए, जस्टिस ह्यूगो ब्लैक ( Justice Hugo Black ) ने कहा कि बहुमत की राय ने 1919 में शेंक बनाम यूएस ( Schenck vs US ) में जस्टिस होम्स ( Justice Holmes ) द्वारा निर्धारित सुस्थापित 'स्पष्ट और वर्तमान खतरे के परीक्षण' ( clear and present danger test ) को खारिज कर दिया, और यह दिखाने के लिए कुछ भी नहीं था कि अपीलकर्ता सरकार के खिलाफ तत्काल सशस्त्र विद्रोह आयोजित कर रहे थे, प्रयास कर रहे थे, या इसकी वकालत कर रहे थे।
उन्होंने अपना निर्णय इन स्वर्ण शब्दों में समाप्त किया जो न्यायिक इतिहास में प्रतिष्ठापित हैं:
"सार्वजनिक राय जो अब है, कम ही लोग इन कम्युनिस्ट याचिकाकर्ताओं की दोषसिद्धि का विरोध करेंगे। हालाँकि, मुझे आशा है कि शांत समय में, जब वर्तमान दबाव, जुनून और भय कम हो जाएंगे, तो यह, या कोई बाद का न्यायालय, पहले संशोधन ( First Amendment of the US Constitution ) द्वारा दी हुई स्वतंत्रता को उच्च पसंदीदा स्थान पर बहाल करेगा जहाँ वे एक स्वतंत्र समाज में होती हैं''।
4. भारत की तत्कालीन प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी के संसद के चुनाव को 1975 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा अवैध घोषित कर दिया गया था क्योंकि उन्होंने चुनावी दुराचार का इस्तेमाल किया था, और उन्हें 6 साल के लिए चुनाव लड़ने से अयोग्य घोषित कर दिया गया था।
तत्पश्चात, सत्ता पर काबिज होने के लिए, उन्होंने आपातकाल की घोषणा की, और नागरिकों के संवैधानिक अधिकारों को निलंबित कर दिया, जिसमें जीवन और स्वतंत्रता का अधिकार, भाषण की स्वतंत्रता आदि शामिल थे। परिणामस्वरूप, विपक्षी दलों के हजारों नेताओं और अन्य लोगों को झूठे आरोपों में बिना मुकदमे के गिरफ्तार किया गया और लंबे समय तक जेल में रखा गया।
कई उच्च न्यायालयों ने उनकी हिरासत को अवैध ठहराया, लेकिन जब मामला सर्वोच्च न्यायालय में अपील में आया, तो 4-1 के फैसले (न्यायमूर्ति एचआर खन्ना की असहमति) द्वारा अदालत ने कहा कि भारत के संविधान का अनुच्छेद 21, जो जीवन और स्वतंत्रता के अधिकार की गारंटी देता है, को निलंबित कर दिया गया, इसलिए किसी व्यक्ति को कार्यपालिका की इच्छा पर उसके जीवन या स्वतंत्रता से वंचित किया जा सकता है, जिसे अदालत में चुनौती नहीं दी जा सकती थी।
अपने असहमतिपूर्ण फैसले में न्यायमूर्ति खन्ना ने कहा कि जीवन और स्वतंत्रता का अधिकार संविधान द्वारा नहीं बनाया गया, बल्कि मनुष्य में निहित है, और इस प्रकार वे संविधान से पहले थे।
अपनी बहादुर असहमति के कारण, न्यायमूर्ति खन्ना भारत के मुख्य न्यायाधीश नहीं बन सके जबकि वे उत्तराधिकार की पंक्ति में मुख्य न्यायाधीश ए एन रे के बाद सर्वोच्च न्यायालय में सबसे वरिष्ठ न्यायाधीश थे, लेकिन इंदिरा गांधी ने उनका अधिक्रमण ( supersession ) कर दिया। अपना फैसला सुनाने के एक दिन पहले उन्होंने अपनी पत्नी से कहा था कि वह मुख्य न्यायाधीश का पद खो देंगे, लेकिन उन्हें अपना कर्तव्य निभाना है।
जस्टिस काटजू सर्वोच्च न्यायालय के अवकाशप्राप्त न्यायाधीश हैं