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तरक्कीपसंद तहरीक : लोकभाषा ही भारतीय संस्कृति की भाषा है

बिहार प्रगतिशील लेखक संघ के 17वें राज्य सम्मेलन के दूसरे दिन का पहला सत्र था 'इक्कीसवीं सदी में तरक्कीपसंद उर्दू-हिंदी अदब के फ़िक्री बुनियाद.'

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hastakshep
15 May 2023
तरक्कीपसंद तहरीक : लोकभाषा ही भारतीय संस्कृति की भाषा है

बिहार प्रगतिशील लेखक संघ के 17वें राज्य सम्मेलन का दूसरा दिन

तरक्कीपसंद तहरीक : 1936 से 1957 तक आंदोलन और उसके बाद प्रवृत्ति के रूप में रहा है

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बिहार प्रगतिशील लेखक संघ के 17वें राज्य सम्मेलन का दूसरा दिन

पटना, 15 मई. बिहार प्रगतिशील लेखक संघ के 17वें राज्य सम्मेलन के दूसरे दिन का पहला सत्र था 'इक्कीसवीं सदी में तरक्कीपसंद उर्दू-हिंदी अदब के फ़िक्री बुनियाद.'

संचालक मणिभूषण ने अपने संबोधन में कहा, "तरक्कीपसंद तहरीक को पढ़ाते समय किन दुश्वारियों का सामना करना पड़ता उससे उस्ताद लोग वाकिफ है. यह जलसा इस अंजुमन के लिए तारीखी महत्व का है."

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विषय प्रवेश करते हुए 'कथान्तर' के सम्पादक राणा प्रताप ने कहा, " आज़ादी के बाद गद्य का विकास होता है. गद्य एक जनतान्त्रिक विधा है. भीष्म साहनी, अमरकान्त को नहीं छोड़ा जा सकता है. इक्कीसवीं सदी की उम्र तो अभी मात्र 20-22 साल का है. आज चिंता नहीं चुनौती का विषय है. उम्मीद की किरण इस पूरे आंदोलन में ख़ासकर पिछले दस साल में नहीं दिखाई देती थी अब दिखाई दे रही है. इंकलाब कहने में नहीं बल्कि जीवन व समाज में भी होता है."

मुज़फ्फरपुर प्रलेस के रमेश ऋतम्भर ने कई कहानियों का उदाहरण बात को आगे बढ़ाते हुए कहा, "आज सबसे ज्यादा सुरक्षित हो अराजनीतिक होने की प्रवृत्ति बढ़ रही है. आज कई -कई अस्मिताएं एक साथ टकरा रही हैं. हम तकनीक का इतना अपमान कर रहे हैं कि बिना आधुनिक बने इसका इस्तेमाल कर रहे हैं. लेखन का छद्म व पाखंड उजागर हो रहा है. श्रेष्ठता का दम्भ इतना खतरनाक है कि हर सीढ़ी का आदमी अपने से नीचे वाले को नीची निगाह से देखता है. हम वहाट्सअप पर सिर्फ धार्मिक मैसेज भेज रहे हैं. हम कितनी भेदों के साथ जी जा रहे हैं. असुर जनजाति पर पहला उपन्यास लिख रहे हैं. पत्रिकाओं में कैसे कहानियों ने नए समाज को पकड़ा है, इसे देखने की जरूरत है. जिस गाँव को हम प्यारा गाँव कहते हैं, इस गाँव में भाई-भाई के आपसी झगड़े में लाखों मुकदमे हैं न्यायालय में. वो गाँव अच्छा कैसे हो सकता है. बिना सौंदर्यशास्त्र की परवाह करते हुए दलित, आदिवासी साहित्य आ रहा है. कैसे रूढ़ि तोड़ रहे हैं समाज के विभिन्न तबके के लोग, इसे सामने आ रहे हैं. बिहार साहित्य की सबसे बड़ी प्रयोगभूमि है. प्रगतिशील वामपंथी दलों के कार्यकर्ता ही आपके काम आएंगे. अपने समाज का प्रभुशाली वर्ग दूसरे जाति के प्रभु वर्ग को बिठाता है वह अपनी जाति के गरीब को साथ नहीं बिठाता है."

इस सत्र की सदारत करते हुए सफदर इमाम क़ादरी ने अपने संबोधन में गांधी का उदाहरण देते हुए कहा, "वे अपने अंतिम दिनों में बंग्ला सीख रहे हैं. कई बार भाषा को लिखने के लिए लिपि को समाप्त कर दिया गया है. समाज में जितने रंग, नस्ल के लोग हैं उसी प्रकार लिपि को बचाने की जरूरत है. तरक्की पसंद तहरीक की उठान जो थी बाद में वह मद्धिम पड़ गई. 1936 से 1957 तक काफी सक्रियता थी. जगह-जगह कांन्फ्रेंस हो रही थी. लेकिन 1957 में कहा गया कि आंदोलन के रूप में खत्म हो रहा है पर प्रवृत्ति के रूप में बची रहेगी. जिन फिक्री बुनियादों पर यह तहरीक टिकी थी वह आज भी बरकरार है. प्रगतिशील लेखन में बुनियादी चीजें वैसी ही हैं. उसके बाद 1957 के बाद यह संगठन चलता रहा. सज़्ज़ाद झीर ने मंटो के बारे में सरदार जाफ़री के विश्लेषण से असहमत थे. सज़्ज़ाद ज़हीर के पाकिस्तान चले जाने से नुक्सान हुआ. 1947 तक हिंदी-उर्दू का विभाजन उतना नहीं था. रामविलास शर्मा के बनने से वह ऊँचाई उतनी नहीं थी. इसी काल में मैंनेफेस्टो का रिवीजन होता है. बाद के काल में संगठन कमजोर हुआ. 1936-57 के बीच दूसरी धारा के लोग न थे लेकिन 1957 के बाद प्रयोगवाद आदि का बोलबाला बढ़ता चला गया. जो प्रवृत्तियां हमारी रचनाओं में अंत सलीला बनकर बहुत रहा था. तरक्कीपसंद तहरीक के विरोध में जो रचनाएं थीं उसका भी ठीक से मूल्यांकन नहीं हुआ है. कैफी आज़मी की भाषिक सरंचना आधुनिकतावादियों का था. प्रगतिशीलता आधुनिकतावाद में शामिल होकर जीवित रही. उर्दू साहित्य में मुस्लिम फ़िरक़ापरसती का कैसे विरोध किया, इसके बारे में क्या लिखा गया. हमें दोनों को एक तराजू पर न तौला जाये. यह सब 1992 में बाबरी मस्जिद के बाद का फिनोमिना है."

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इस सत्र में अरविन्द प्रसाद, शगुफ्ता, सुनील सिंह, प्रो अरुण कुमार, कुमार सर्वेश आदि ने सवाल पूछे.

बिहार की लोकभाषाओं में प्रतिवाद के स्वर 

इस सत्र की अध्यक्षता सीताराम प्रभन्जन ने किया जबकि संचालन परमाणु कुमार का था.

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परमाणु कुमार ने कहा, "प्रतिरोध का साहित्य इस देश में ढाई -तीन हजार साल पुराना है. उत्तर वैदिक काल से ही इसके उदाहरण मिलने लगते हैं. मगही में देवेन मिसिर के बुझाऔल मशहूर हैं. कई बार गप के रूप में भी प्रतिरोध उपस्थित रहता है."

दूसरे दिन के दूसरे सत्र में मगही भाषा के बारे में बात करते हुए अशोक समदर्शी ने कहा, "मगही में लिखा तो बहुत जा रहा है पर प्रतिरोध के स्वर में कम हैं. श्रीनंदन शास्त्री, मथुरा प्रसाद नवीन जैसे रचनाकार बहुत कम हैं."

भोजपुरी साहित्य के संबंध में अपनी बात रखते हुए सुनील पाठक ने कहा " भोजपुरी के गीत जो चलते वाहनों में सुनते हैं वे जो गवैये हैं, व्यास हैं वे रामकथाओं के माध्यम से अपनी पिछड़ी मानासिकता को प्रदर्शित करते हैं. लेकिन भोजपुरी साहित्य में इन्हें नहीं गिना जाता. भोजपुरी के कवि सिपाही सिंह श्रीमन्त जो भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़े थे, जो पुरानी भीत खत्म कर नई भीत, नई नींव डालकर उठाने के बात करते हैं. हीरा डोम की 'अछूत की शिकायत' हो, या 'फिरंगिया' कविता हो, इन सबमें तो लोकभाषाओं के अवदान को समाप्त कर दें तो फिर हिंदी में बचता क्या है."

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मैथिली के प्रतिनिधि अरविन्द प्रसाद ने कहा, "मनुष्य द्वारा पहली बार कहने की बात प्रतिरोध की रही है. गूंगापन के विरुद्ध बात थी. विद्यापति की रचनाओं में प्रतिवाद था. जैसे बेमेल विवाह के खिलाफ बात को देखा जाना चाहिए. ठीक इसी प्रकार बाबा नागार्जुन ने बलचनमा उपन्यास को लिया जा सकता है. राजकमल चौधरी, सोम चौधरी आदि ने प्रतिरोध के स्वर को मज़बूत किया है. कम्युनिस्ट नेता भोगेन्द्र झा एक कवि भी थे जो जन्नत को धरती उतारकर स्वर्ग की खिलाफ बात करते हैं."

सुनीता गुप्ता ने हस्तक्षेप करते हुए कहा, "लोकभाषाओं के प्रारम्भिक स्वर लोकगीतों में हैं. पुरुषों द्वारा रचित रामायण में सीता उत्पीड़ित रहीं लेकिन लोकगीतों में सीता राम के बारे अलग नजरिया रखते हैं कि अपने पुत्र लव-कुश के जन्म की खबर अपने पति राम को नहीं देना चाहती क्योंकि उसने सीता को निकाल दिया. एक लोकगीत में कहा जाता है कि हे विधाता मुझे लड़की क्यों बनाया, बनाया तो सुंदर क्यों बनाया, फिर गरीब क्यों नहीं बनाया. इन सब गीतों में प्रतिवाद के स्वर हैं."

गया प्रलेस के कृष्ण कुमार ने कहा, "लोकभाषा एक हृदय से निकलकर दूसरी भाषा में जाती है. लोकपीड़ा को अभिव्यक्ति दी जाती है लोकभाषा में. 1857 का गीत है दू रुपैया देके, पियवा के छोड़वाये लेबो'. लोकभाषा से लोकजीवन सामने आ जाता है. रामनरेश पाठक, जयराम सिंह की रचना में मिठास रहा करता है."

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अध्यक्षीय वक्तव्य देते हुए कहा, "ख़डी बोली भी बोली ही है. ख़डी बोली जितना लोकभाषाओं से जुड़ेगी उतना ही बेहतर रहेगा. लोकभाषा ही भारतीय संस्कृति की भाषा है. पहली अभिव्यक्ति अपनी भाषा में करें उसके बाद ही ख़डी बोली में करें. लोकभाषा से स्वीकार भाव होना चाहिए."

सांगठनिक सत्र के दौरान बिहार प्रगतिशील लेखक संघ के महासचिव ने प्रतिवेदन प्रस्तुत किया. उसके बाद नई कमिटी का चुनाव हुआ. 65 सदस्यीय नई कार्यकारिणी का चुनाव हुआ. ब्रज कुमार पांडे अध्यक्ष, रवीन्द्र नाथ राय को महासचिव तथा अनीश अंकुर को उपमहासचिव के रूप में चुना गया.

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