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सबकी खबर ले, सबकी खबर दे वाला जनसत्ता अपने ही पत्रकार की मृत्यु की खबर न दे पाया

सबकी खबर ले, सबकी खबर दे वाला जनसत्ता अपने ही पत्रकार की मृत्यु की खबर न दे पाया

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प्रताप सिंह जी ने व्हाट्सएप पर सतीश पेडणेकर के निधन की खबर (news of the death of Satish Pednekar) दी।

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हम 1980 से 2016 तक लगातार अखबार का संस्करण निकलते रहे हैं। यह बहुत चुनौतीपूर्ण काम है और इसकी जवाबदेही बड़ी होती है। अखबार कितना ही अच्छा निकले, उसकी तारीफ हो या न हो, कहीं कोई चूक हो जाती है तो खाल उधेड़ दी जाती है। यह बहैसियत एक संपादक हर खबर पर स्टैंड लेने का मामला जितना है, पूरी टीम को साथ लेकर चलने का मामला उससे बड़ा है।

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अखबार में बतौर संपादक जिनका नाम छपता है, संपादकीय लिखने और नीतियां तय करने तक उनकी भूमिका सीमित हो जाती है। सारा खेल डेस्क के जिम्मे होता है।

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सतीश पेडणेकर जी जनसत्ता को डेस्क से आकार और तेवर देने वाले पत्रकार थे। प्रताप जी की सूचना के बाद कहीं कोई चर्चा नहीं देखी। अब अमित जी का यह पोस्ट।

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हमारी बात अलग है कि हर मुद्दे, हर खबर पर मैनेजमेंट से हमारा सीधा टकराव हो जाता था और हम जो सही समझते थे, वही करते थे। मालिक मैनेजर किसी की नहीं सुनते थे। सतीश जी निर्विवाद व्यक्ति थे।

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सतीश पेडणेकर जैसे महत्वपूर्ण व्यक्ति के निधन की खबर जनसत्ता में न होना, जिन्होंने जनसत्ता को जनसत्ता बनाया, बताता हैं कि पत्रकारिता का किस हद तक पतन हुआ और इसमें काम करने वाले लोग कितने संवेदनाहीन हो गए हैं।

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हमने प्रभाष जी और ओम थानवी के खिलाफ, उनकी नीतियों के खिलाफ हंस और समयांतर समेत समाचार पोर्टल पर तब लिखा, जब वे सर्वेसर्वा थे। देश भर में सामाजिक आंदोलन में शामिल होते रहे। लेकिन तब जनसत्ता में हम सब की स्वतंत्रता और स्वायत्तता का माहौल इतना जबर्दस्त था कि न प्रभाष जी और न थानवी जी ने हमें कभी रोका, टोका। हम लोगों में बरसों तक बोलचाल बन्द रहती थी। सभी अपने स्टैंड से टस से मस नहीं होते थे लेकिन अखबार निकलने में हमेशा एक टीम बने रहे। ऐसे अखबार में अपने पुराने साथियों के प्रतिन ऐसे अमानुषिक बर्ताव से स्तंभित हूं।

चौथाई सदी हमने आखिर इस अखबार में खफा दिए। सतीश जी के शुरू से साथी रहे अमित जी का लिखा दरअसल हिंदी पत्रकारिता की शोक वृत्तांत है। लीजिए, पढ़ लीजिए।

अफसोस कि 'जनसत्ता' में तीन दशक खपाने वाले पत्रकार के निधन की खबर तक नहीं अमित प्रकाश सिंह

हिंदी दैनिक "जनसत्ता" वाकई दुर्दिन में है। इस दैनिक में नींव से इमारत तक बनाने वाले पत्रकारों के निधन की खबर भी आज इसके संपादक नहीं छपने देते। सतीश पेंडरेकर जनसत्ता की शुरुआती संपादकीय टीम में थे। वे काबिल थे इसीलिए दिल्ली जनसत्ता में चुने गए। वे योग्य थे तभी वे मुंबई संस्करण शुरू कराने भेजे गए। वे काबिल थे इसी लिए उन्हें संझा संस्करण का संपादक बनाया गया। योग्य वे जरूर थे इसलिए वे नई दिल्ली जनसत्ता में विशेष संवाददाता भी बने।

काम करने की अट्ठावन साल की उम्र आते ही वे सेवा निवृत्त हुए। छह जून 2022 को उन्होंने दिल्ली में ही अंतिम सांस ली। लेकिन उनकी खबर जनसत्ता में छापी नहीं गई।

किसी दैनिक को कामयाब करने में उस टीम की जरूरत होती है जो मुख्य संपादक के इशारों को समझते हुए परिश्रम करे। जब अखबार जम जाता है तो हर आदमी, जो उस अखबार से जुडा होता है खुद को संपादक भी मानता है और खुश होता है।

कोई अखबार सिर्फ चित्र, कार्टून, विचार और खबर के बल पर बाजार में नहीं टिकता। उसका जुड़ाव पेंदीदार बुद्धिजीवियों, लेखकों से होना जरूरी है। प्रभाष जोशी यह गणित जानते थे। इसलिए हर दम्भी लेखक, सामाजिक कार्यकर्ता और पत्रकार को उन्होंने अपने तरीके से चुना।

अखबार यदि धनी-मानी लोग निकाल पाते तो हिन्दी के अखाड़े में दिल्ली शहर में हजार स्तरीय अखबार होते। अखबार निकालना यदि प्रबंधकों के बस में होता तो हर प्रबंधक खुद अपना नाम संपादक के रूप में डालता और बाजार में कामयाब होता। हालांकि आज कुछ अपवाद संभव हैं।

बहरहाल जनसत्ता का झुकाव शुरू से समाज संस्कृति और रचनाकारों के साथ जुडाव का था। इनसे जुडे लोग संपादकीय टीम में भी थे। लेकिन वह परम्परा 'जनसत्ता 'के बाजार में कामयाब होने के बाद गड़बड़ाने लगी। इस पर प्रबंधक और मालिक तब हावी हो गए जब रामनाथ गोयनका ने अपनी देह छोड़ी। अखबार के कई संस्करण निकले और प्रबंधकों और मालिकों का दखल खूब बढ़ने लगा। संपादकीय टीम के पुराने लोगों ने प्रतिरोध किया लेकिन उनकी ज्यादा नहीं चली। सब जानते हैं कि कैसे इस अखबार को समाप्त किया गया। और मंजिल दूर भी नहीं।

दिल्ली छोड़ लगभग अन्य शहरों के सारे संस्करण सिमट चुके हैं। दिल्ली को भी सिमटाने में टीम जुटी है। पर सिंधु घाटी का दबा इतिहास खोदने वाले जुटें, इसके पहले यह इच्छा तो होती ही है कि हमारा काम न सही पर मरने पर नाम तो काश उस अखबार में छपा होता जिसमें अपनी जवानी दे दी। लेकिन जनसत्ता के मालिक, प्रबंधक और संपादक इस तथ्य के लिए हमेशा याद किए जाएंगे कि कैसे अपने स्वार्थों के लिए इन्होंने दूसरे परिश्रमी सहयोगियों के नाम और काम को बतौर सूचना भी उनके दिवंगत हो जाने पर छपने नहीं दिए।

सोचिए, जनसत्ता संपादकीय में चाकरी कर रहे उस सहयोगी के अपने बच्चे, युवा और रिश्तेदार और मित्र क्या सोचते होंगे ? अपने, पापा या मम्मी के निधन के बाद जब उनके बारे में उस अख़बार में कोई खबर नहीं मिलती जिसमें काम के लिए भागने की बेचैनी में वे उनके साथ कभी बैठ नहीं पाते थे! क्या यह शर्मनाक नहीं है बंधु । -------------------------अमितप्रकाश सिंह-----------"

पलाश विश्वास

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