ओबीसी आरक्षण पर जस्टिस काटजू का मत | Justice Katju’s opinion on OBC reservation
ओबीसी (Other Backward Castes / अन्य पिछड़ा वर्ग) युवाओं की शिकायत है कि भारत में मेडिकल कॉलेजों में एम.बी.बी.एस कोर्स में प्रवेश के लिए मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया ने केंद्रीय रूप से पूल की गई सीटों (राज्य समर्पित सीटों का 15%) में दशकों से ओबीसी को आरक्षण देने से इनकार किया है।
(जोहन्ना दीक्षा का लेख ‘why denial of OBC reservation।n All।ndia Quota for medical seats।s a social।njustice‘ – edexlive.com )
पूरे सम्मान के साथ, मैं यह प्रस्तुत करता हूँ कि शैक्षणिक संस्थानों और सरकारी नौकरियों में एस.सी (Scheduled Castes) के लिए आरक्षण का औचित्य जो भी हो, ओबीसी के लिए आरक्षण शुद्ध धोखाधड़ी है।
कई साल पहले जब मैं मद्रास उच्च न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश था, मैं नेशनल लॉ स्कूल यूनिवर्सिटी, बैंगलोर के एक समारोह में भाग लेने गया था। वहां सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश के पद से सेवानिवृत्त हुए न्यायमूर्ति बी.पी जीवन रेड्डी भी उपस्थित थे।
जस्टिस रेड्डी ने इंदिरा साहनी बनाम भारत संघ, (Indira Sawhney vs Union of।ndia, AIR 1993 SC 477) में सुप्रीम कोर्ट के 9 जजों की संविधान पीठ के फैसले में मुख्य निर्णय दिया था, जिसमें वी.पी सिंह सरकार द्वारा ओ.बी.सी को आरक्षण देने की मंडल आयोग की सिफारिश को लागू करने के फैसले को वैध माना गया था।
जस्टिस रेड्डी के साथ डिनर के दौरान (जो मुझसे बहुत वरिष्ठ थे, और जिनका मैं सम्मान करता हूं) मैंने उनसे कहा कि ओबीसी के लिए आरक्षण को वैध मानने का उनका फैसला सही नहीं था। उन्होंने मुझसे पूछा क्यों?
मैंने उत्तर दिया कि आज़ादी से पहले 1947 में ब्रिटिश शासन के तहत भारत के अधिकांश क्षेत्रों में जमींदारी व्यवस्था कायम थी। उस समय, जमींदार ज्यादातर उच्च जाति के थे, और उनके किरायेदार यादव और कुर्मियों जैसे ओबीसी थे। ये यादव, कुर्मी, आदि उस समय (यानी आजादी से पहले) बहुत गरीब और लगभग सभी अनपढ़ थे।
स्वतंत्रता के बाद जमींदारी उन्मूलन अधिनियम (जैसे यूपी जमींदारी उन्मूलन अधिनियम, 1951) के द्वारा ज़मींदारी व्यवस्था को समाप्त कर दिया गया था। फलस्वरूप उच्च जातियों ने अपने जमींदारी अधिकारों को खो दिया, और उनके किरायेदार, यानी यादव, कुर्मी आदि भूमिधर बन गए। भूमि से आने वाली आय से उन्होंने अपने बच्चों को शिक्षित किया, और अब कई यादव, कुर्मी आदि डॉक्टर, इंजीनियर, वकील, वैज्ञानिक, शिक्षक आदि हैं। दूसरे शब्दों में, वे अब उतने पिछड़े नहीं हैं, जितने 1947 से पहले थे। यह सही है कि अभी भी कई ओबीसी हैं जो गरीब हैं, लेकिन उच्च जातियों में भी कई गरीब हैं।
वीपी सिंह सरकार ने ओबीसी को आरक्षण देने की सिफारिश इंदिरा साहनी के मामले में फैसले के बाद 1993 में ही लागू कर दी थी। लेकिन 1993 में यादवों, कुर्मियों आदि को पिछड़ा नहीं कहा जा सकता था (जैसा कि ऊपर बताया गया है), भले ही वे 1947 से पहले पिछड़े थे। इसलिए जब ओबीसी वास्तव में पिछड़े थे (आजादी से पहले) तो उन्हें कोई आरक्षण नहीं मिला, लेकिन अब जब वे पिछड़े नहीं रहे (यानी 1993 में) तब उन्हें आरक्षण दिया जा रहा था। क्या यह धोखा नहीं था ? और केवल वोट पाने के लिए नहीं किया गया था ?
जब मैंने यह सब जस्टिस रेड्डी को समझाया, उन्होंने कहा कि इन तथ्यों को मामले की सुनवाई करने वाली पीठ के समक्ष नहीं रखा गया था। उनके सामने मंडल कमीशन रिपोर्ट थी, जिसे उन्हें विशेषज्ञों की एक रिपोर्ट के रूप में स्वीकार करना पड़ा।
मैंने उत्तर दिया कि जो हुआ सो हुआ, लेकिन सच्चाई तो यही है जो मैंने समझाया। भारत में ओबीसी के लिए आरक्षण शुद्ध धोखा और वोट पाने की तरकीब है।
जस्टिस मार्कंडेय काटजू,
पूर्व न्यायाधीश,
सुप्रीम कोर्ट ऑफ़ इंडिया
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