/hastakshep-prod/media/post_banners/XzxVtTZyl5jHUmgjFBYm.jpg)
October 5 was celebrated as World Habitat Day | Fundamental right to housing
5 अक्टूबर विश्व आवास दिवस के रूप में मनाया गया। World Habitat Day की शुरूआत 1986 में नैरोबी शहर से हुई थी। यह दिवस हर साल अक्टूबर महीने के पहले सोमवार को संयुक्त राष्ट्र संघ के नेतृत्व में पूरे विश्व में मनाया जाता है। 2022 तक सबको घर देने वाली मोदी सरकार आवास दिवस को लेकर कोई आयोजन या वक्तव्य नहीं दिया।
भारत के शहरी मंत्री हरदीप सिंह पुरी ने लोकसभा में जानकारी दी है कि
‘‘2011 की जनगणना की अनुसार शहर में बेघर लोगों की संख्या 9,38,348 है’’।
पूरे भारत में 17.72 लाख लोगों के पास अपना घर नहीं है। इस आंकड़े से उन लोगों को बाहर रखा गया है जो प्लास्टिक के पन्नियों, या इसी तरह के अस्थायी शेड बना कर रहते हैं। इसमें उन लोगों को भी शामिल नहीं किया जाता है जो कि एक कमरे के मकान में कुछ बाहर तो कुछ अन्दर सो कर गुजारा करते हैं। अगर ऐसे लोगों को भी शामिल किया जाये तो यह संख्या काफी अधिक हो जाती। 2001 में ग्रामीण क्षेत्रों में 11.6 लाख बेघरों की संख्या (Number of homeless) थी जो की 2011 में 8.34 लाख हो गया लेकिन इसी बीच शहरों में 7.78 लाख बेघरों की संख्या थी जो कि 2011 में बढ़कर 9.38 लाख हो गया। 2022 तक सबको घर देने वाली सरकार ‘आवास का अधिकार विधेयक-2016’ (The Housing and Planning Act 2016 (HPA)) को विपक्ष के पूर्ण समर्थन के बावजूद अभी तक कानून नहीं बनाया है। 2022 तक सबको घर देने का वादा ‘जहां झुग्गी वहीं मकान’ की तरह ख्याली पुलाव की तरह लग रहा है, क्योंकि 13 सितम्बर और 24 सितम्बर 2020 को यमुना खादर और बटाला हाउस, ओखला में 500-500 के करीब झुग्गियां को तोड़ दिया गया बिना पुनर्वास किए हुए।
भारत में ‘विश्व आवास दिवस’ के पूर्व लोगों बेघर कर तोहफा दिया जा चुका है। यही कारण हो सकता है कि ‘विश्व आवास दिवस’ पर सरकार मौन व्रत रखना ही ठीक समझी हो।
सरकार की नीतियों के कारण लोग गांव से उजड़ कर शहरों की तरफ आये और यहां पर आकर फुटपाथ-फ्लाइओवर और झुग्गी-बस्तियों को अपना आवास बनाया। सरकार ने लोगों की अन्दर एक धारणा फैला दी कि इस तरह के जीवन यापन करने वाले लोग चोर, कामचोर, मुफ्त के खाने वाले, जमीन पर कब्जा करने वाले होते हैं। यही कारण है कि इस तरह के लोगों को आम जनता भी हेय दृष्टि से दिखती है जिसका असर न्यायपलिका पर भी पड़ता है। यही कारण है कि दिल्ली हाई कोर्ट ने कहा था कि इनका (झुग्गी-बस्ती) पुनर्वास करना जेब कतरों को इनाम देने जैसा है।
31 अगस्त्, 2020 को सुप्रीम कोर्ट के तीन जजों की बेंच ने रेलवे किनारे से 48,000 झुग्गियों को तीन माह में हटाने का तुगलकी फरमान सुना दिया है और पुनर्वास के लिए सरकार के रहमो करमो पर छोड़ दिया। ‘जहां झुग्गी वहां मकान’ का नारा देने वाली सरकारें अभी तक यह नहीं बता पाई कि इन लोगों को कहां और कैसे पुर्नवास करेगी, उनकी रोजी-रोटी का क्या होगा?
सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के खिलाफ दिल्ली के बस्तियों में 18 सितम्बर को ‘मेरा घर-मेरा अधिकार’ के तहत लोगों ने ताली-थाली बजाकर और कैंडल जला कर अपने आवास की मुद्दे को रखा और इनके समर्थन में देश के अन्य हिस्सों के लोगों ने किया। जहां पर महिला-बच्चे, नौजवान-बुजुर्ग सभी ने हाथ में तख्तियां लिए हुए थे और कह रहे थे- ‘कहां है जहां झुग्गी वहां मकान, मोदी जी पूरा करो अपना काम’, ‘हम अपना अधिकार मांगते नहीं किसी से भीख मांगते’, ‘सर्वोच्च न्यायलय असंवैधानिक आदेश वापस लो, ‘संविधान को गलत ठहरा रहे बेदखली करने आ रहे’, ‘जबरन बेदखली का प्रहार छीना जा रहा जीने का आधार’, ‘हमें भी जीने और रहने का अधिकार है’।
हम मनसरोवर पार्क के पास लाल बाग झुग्गी में गये। यह वही झुग्गी हैं जहां 2019 में आग लग गई थी और 100 से अधिक झुग्गियां जल कर खाक हो गईं और एक बच्ची के जलने से मौत हो गई। इस झुग्गी पर दिसम्बर 2013 में भी बुलडोजर चला था तब उपमुख्यमंत्री सिसोदिया ने जाकर दुबारा वहां पर झुग्गी बनवाई।
बस्ती के लोगों ने बताया कि वे 18 सितम्बर को विरोध किया था और प्रधानमंत्री को याद दिलाया था कि वह अपने चुनावी वादे ‘जहां झुग्गी वहां मकान’ को पूरा करें।
यह बस्ती करीब 25 साल पुरानी है इससे पहले यह बस्ती सीलमपुर गुरूद्वारे के पास थी जहां से उनको उजाड़ दिया गया तो वह आकर यहां पर बस गये। इस बस्ती में उत्तर प्रदेश की लोगों की संख्या काफी है जिसमें से अधिकांश घुमक्कड़ जाति से हैं और यहां पर शादी विवाह में ढोल बजाने और शनिवार को निबू-मिर्च टांगने का काम करते हैं। खाली समय में मजदूरी का काम करते हैं तो कुछ लोग ईरिक्शा और रिक्शा चलाने का काम करते हैं। इस बस्ती में कुछ ऐसे भी परिवार हैं जिनकी जिविका इस बस्ती से ही चलती है जिसमें 4 परिवार ऐसा है कि बस्ती में ही सिलाई करने का काम करते हैं तो कुछ लोग छोटी दुकानें कर अपनी गुजारा चलाते हैं।
बस्ती के बाहर एक गोल सा जाली लगी हुई है जिस पर बच्चे खेल रहे हैं। हमें लगा कि यह सुविधा सरकार की तरफ से दी गई हो क्योंकि दिल्ली के पार्कों में ‘ओपन जीम’ लगाये जा रहे हैं। लेकिन यह मेरा सोच गलत निकला पता चला कि यह किसी का व्यक्तिगत है जो कि जीविका चलाने के उद्देश्य से लगाया है बच्चों से पैसा लेता है तब उनको नेट में प्रवेश करने देता है।
बस्ती में प्रवेश करते ही झुग्गी के बाहर चरपाई पर दो महिलाएं बैठी नजर आईं जिनमें से एक महिला सिलाई का काम कर रही थी तो एक महिला चरपाई पर बैठी बच्ची से बात कर रही थी। बात करने से पता चला कि वह दोनों मां-बेटी हैं। फारजाना (36) ने बताया कि उनकी यहीं पर शादी हुई और उनके बच्चे भी यहीं पैदा हुए। वह जिस स्कूल में पढ़ी उसी स्कूल में उनके बच्चे सातवीं और पांचवीं कक्षा में पढ़ते हैं।
फरजाना ने बताया कि वह बस्ती में ही पुराने कपड़े की सिलाई करती हैं और पति अशोक नगर में रिक्शा चलाते हैं। लॉक डाउन में काम नहीं चलने से घर चलाना मुश्किल होता है। वह कहती हैं कि बच्चे सरकारी स्कूल में पढ़ते हैं तो किताब तो मिल जाती है लेकिन कॉपी तो उनको खरीद कर देने पड़ते हैं तो उनके पास कॉपी खरीदने के लिए भी आज के समय पैसा नहीं है। उनकी झुग्गी से कुछ दूरी पर सरकारी शौचालय है तो वे लोग उसी में जाते हैं पीने के लिए भी पानी थोड़ी दूर पर टंकी हैं वहां से मिल जाती है। पहले पास में टंकी थी लेकिन वहां पर पानी गिरने से दुकानदार का चालान होता था तो उसने टंकी को बंद ही कर दिया तो अब थोड़ी दूर जाना पड़ता है।
पानी के टैंकर की तरफ इशारा करते हुए बताती हैं कि जब से झुग्गी टूटने की बात हुई है और मीडया, एनजीओ के लोग आ जा रहे हैं तब से टैंकर आना शुरू हुआ है। फरजाना के परिवार के पास गांव में भी कुछ नहीं है जो भी है यही है इसलिए वह गांव भी नहीं जा सकती और वह दूर भी नहीं जाना चाहती है। दूर जाने से उनके कमाई नहीं हो पायेगी।
रामअवतार सिंह (40) मुरादाबाद के रहने वाले हैं और विकलांग हैं। वह अपनी बुर्जुग मां के साथ यहीं पर रहते थे, लेकिन मां एक साल पहले चल बसी।
रामअवतार बताते हैं कि वह 15 साल से इस बस्ती में रह रहे हैं और सिलाई का काम करके 1000-1500 रू. कमा कर गुजारा करते हैं। रामसिंह गांव पर आते जाते नहीं है क्योंकि उनके पास गांव में कोई जमीन नहीं है। वह करीब 16 साल की उम्र में दिल्ली आ गये थे। वह तीसरी कक्षा तक पढ़े हैं पढ़ाई के दौरान ही वह गांव के पास कस्बे में सिलाई की दुकान पर काम करने लगे थे और वहीं से सिलाई सीख लिये। वह गांव से आये तो टेलर का काम करने लगे किसी फैक्ट्री में जगह होती थी तो वह फैक्ट्री में ही सो जाते थे जब फैक्ट्री बदलती थी और वहां रहने का जगह नहीं होता तो वह फुटपाथ पर सो जाते थे। उनकी माता जी जब उनके पास रहने के लिए आईं तो वह किराये पर कमरा लेकर शहादरा में रहने लगे। वह एक बार बीमार हो गये तो तीन माह का किराया हो गया ठीक होने पर वह कमा कर 1120 रू. किराये का दिये और 500 रू. बाकी था तो मकान मालिक ने कमरे से भगा दिया।
वह मां के साथ मनसोरवार पार्क में आ गये वहां पर धूल थी और खड्डा था वही बांस-बल्ली से घेर कर रहने लगे। धीरे- धीरे मां ने मिट्टी लाकर जगह को ऊंचा किया और तब राम सिंह कमाने के लिए शहादरा जाते थे वह इस घर में अभी तक 21 हजार रू. लगा चुके हैं।
राम सिंह कहते हैं कि हमारे घर में तो इस मशीन के अलावा और कुछ नहीं है अगर झुग्गी तोड़ी जायेगी तो हम मशीन भी नहीं ले जा सकते हैं। हम विकलांग हैं हमारी पेंशन नहीं है हमें पेंशन देने की जगह हमसे हमारी झुग्गी भी छीनी जा रही है।
सोनू (20) 12 वीं कक्षा का छात्र है और इसी बस्ती में रहता है। लॉकडाउन के कारण परिवार में आमदनी नहीं होने से वह इसी बस्ती में रेहड़ी पर चाउमीन बेचेने का काम 20 दिन पहले ही शुरू किया है।
खुशील इस बस्ती में 25 साल से रह रहे हैं वह ढोल तास बजाने का काम करते हैं लेकिन लॉक डाउन के कारण उनका काम बन्द है। वह बस्ती में ही पान बेचने का काम करते हैं। उनके बेटे आदित्य (5) का हाथ टूट गया है वह अस्पताल लेकर गये तो उनसे पहले कोरोना टेस्ट कराने को बोला गया तो वह जाफराबाद में एक पहलवान के पास ले जाकर पट्टी करवाये। आदित्य बिना कपड़े ही नंगा घूम रहा था जिस सरकार को इनके तन पर कपड़े देना था वह इनसे छत भी छीन रही है।
घोंचू (25) ने कहा कि उनका जन्म यहीं का है। वह मजदूरी करते हैं और शादी में ढोल बजाने का काम करते हैं लेकिन काम अभी मिल नही रहा है। वह कहते हैं कि हम यहां चैन से दो रोटी कमा खा रहे थे लेकिन सरकार वह भी छीनने पर लगी है।
धनदेश, चन्दौसी के रहने वाले हैं और पैर से विकालंग है वह चप्पल की फैक्ट्री में काम करने लोनी जाते हैं जहां 200 रू. रोज का उन्हें मिलता है। वह 1000 रू. किराये देकर रहते हैं। वह कहते हैं कि झुग्गी टूट जायेगा तो वह गांव चले जायेंगे क्योकि वह ज्यादा किराया नहीं दे सकते।
Number of homeless are increasing due to government policies
सरकार एक तरफ घोषणा करती है कि 2022 तक कोई बेघर नहीं रहेगा लेकिन 2020 में देखा जा रहा है कि सरकारी नीतियों के कारण बेघरों की संख्या बढ़ती जा रही है। यही कारण है कि यहां ठंड में हर साल हजारों लोगों की मौत हो जाती है, सरकारी रिपोर्ट के अनुसार 2001 से 2014 तक ठंड में कम से कम 10,933 लोगों की मौत हुई है (सच्चाई इससे कहीं ज्यादा है)। जिस सरकार का काम आवास देना था वह आवास तोड़ रही है। आवास का अधिकार लोगों की मौलिक अधिकार रोटी-कपड़ा-मकान में शामिल है जो देना सरकार का काम है। लेकिन सरकार अपने कामों से पीछे हटती नजर आ रही है।
सुनील कुमार
/hastakshep-prod/media/post_attachments/1xAUUWMQvfMiewKTUEpG.jpg)