
शुक्ल पक्ष फलक पर ढुलकता चाँद …
टुकड़ी-टुकड़ी डली-डली घुलता चाँद …
सर्दी ..गरमी ..बरसात ..
तन तन्हा अकेली रात …
मौसमों के सफ़र पर मशरिक़ से मगरिब डोलता है ..
निगाहों-निगाहों में सभी को तोलता है…
मसरूफियात से फ़ुरसत कहाँ आदमी को ..
अब भला चाँद से कौन बोलता है ….
दिन जलाये बैठी इन बिल्डिंगों का उजाला ….
बढ़ा के हाथ फलक से रात ..
खींच लेता है ..
इन चुधिंयाती रौशनी में बेचारा चाँद
आँख मींच लेता है …..
शुक्ल की ये रातें ….
ये शहर जगमगाते ….
बिल्डिंगों के काले साये ..
बढ़-बढ़ कर चाँद खाते हैं …
छुप-छुप सरकता है ओट से चाँद के पाँव लड़खड़ाते हैं …
चाँद का हश्र देख ..
अँधियारा पाख चाँद उबार लेता है …
कुछ दिनों के लिये ही सही
फलक से चाँद उतार लेता है ….
तब चाँद बेधड़क मेरे क़रीब आता है …
उजियारे पाख के तमाम क़िस्से तफ़्सील से सुनाता है …
कौन सी रात …
कितनी घनेरी थी …
चर्च के पीछे इक बेरी थी ..
उस बेरी के काँटों ने चाँद उलझाया था ..
जाने उन बेरियों पर किसका साया था ….
रात पूनम की थी
ख़ामोश थी …
चुप रास्ते की कंकरीट…
बेरी से छिला चाँद ..
बदन पड़ी झरींट ..
मैं चाँद पर मरहम लगाती हूँ …
गुनगुना कर …
चाँद को ..
चाँद की इक नज़्म सुनाती हूँ ….
चाँद सब दर्द भूलकर ..
नज़्मों में गुम जाता है …
हर्फ़ों पर फिसलता है …
ग़ज़लों में थम जाता है …
तब मैं शहर के ठियों से नाज़ुक उँगलियों से चाँद उठा लाती हूँ …
चोरी-चोरी चाँद को चाँद के गाँव ले जाती हूँ जहाँ..
घुप्प अँधियारे …
चाँद चौबारे चढ़ लुक ढुक जाता है चाँद
झट्ट से इमलियों की ओट में छुप जाता है …
चाँद इन चमकीली रातों से और निभाना नहीं चाहता ….
किसी भी सूरत वापस फलक पर जाना नहीं चाहता ….,
फिर चढ़ शाम के टीले …
दिखा ..ख़्वाब रूपहले …
सूरज का चाँद बरगलाना …
आ चल फलक तक चल चाँद …
बेनागा रोज बुलाना …
इन नर्म लहजों से पिघलकर चुपड़ी बातों में फिसल कर …
मासूम चाँद तल्खियाँ भूल जाता है ..
फिर उसी मतलबी ..
फलक की पनाहों में झूल जाता है …
यूँ चाँद को मालूम है ..
शुक्ल के ..
इन बेमुरव्वत रास्तों में कुछ नहीं रक्खा है …
अँधियारे पाख की इक कविता है जिसने चाँद बचा रक्खा है ..
डॉ. कविता अरोरा
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