ग़लती या एक राजनीतिक साज़िश ?
उज्ज्वल भट्टाचार्या
चुनाव के मौसम में आचार संहिता लागू की जाती है और उनका अक्सर उल्लंघन होता है। यही नहीं, सामाजिक व सांस्कृतिक मूल्यों पर भी ध्यान नहीं दिया जाता है। नेताओं से ग़लतियाँ भी होती हैं और इनकी वजह से उन्हें शर्मिन्दा होना पड़ता है।
कुछ मामले बिल्कुल स्पष्ट हैं। मैं नहीं समझता कि कांग्रेसी उम्मीदवार इमरान मसूद भाजपा नेता मोदी को मारने की हैसियत रखते हैं। मुझे यह भी नहीं लगता कि वह उन्हें सचमुच मारना चाहते हैं। लेकिन सार्वजनिक मंच पर ऐसी बात करना अक्षम्य है। इसकी जितनी निन्दा की जाय, कम है।
सभी राजनीतिक दलों में मसूद जैसे छुटभैये हो सकते हैं। ऐसी बेवकूफ़ियों को विरोधी उछालेंगे, यह उनका हक़ है। लेकिन जो नेता राजनीतिक द्वंद्व या विमर्श के केन्द्र में है, वे अगर ऐसी बात करते हैं, मामला बिल्कुल अलग हो जाता है।
पिछले दिनों ऐसी घटनायें हुयी हैं। विभिन्न रैलियों में इतिहास से सम्बंधित नरेंद्र मोदी की अजीबोगरीब टिप्पणियाँ सुनने को मिली हैं। मैं इसे उनके भाषण तैयार करने वालों की मूर्खता और उनकी असावधानी मानता हूँ। इन पर चुटकी ली जा सकती हैं, लेकिन इन ग़लतियों को गम्भीरता से नहीं लिया जा सकता। केजरीवाल द्वारा गुजरात की सभा में जीवित व्यक्तियों की शहीदों की तालिका में शामिल करना भी ऐसी ही असावधानी का नमूना है। विरोधियों ने इसे उछाला है। ठीक ही किया है।
भारत के नक्शों में कश्मीर को विवादास्पद क्षेत्र के रूप में दिखाने पर छिड़ी बहस इन सभी सवालों से अलग है। उसका महत्व व्यापक व दूरगामी है। भाजपा की वेबसाइट पर गूगल का एक नक्शा प्रस्तुत किया गया, जिसमें कश्मीर को विवादास्पद क्षेत्र के रूप में दिखाया गया। यह भाजपा की व भारत में मुख्य धारा के राजनीतिक दलों की घोषित नीति और समझ के विपरीत है। असावधानी की वजह से हुयी इस ग़लती को अगर विरोधी उछालते हैं तो कहना पड़ेगा कि यह उनका हक़ है। लेकिन इसका महत्व उससे अधिक नहीं है, इसके पीछे भाजपा का कोई राजनीतिक उद्देश्य नहीं था।
इसके विपरीत आम आदमी पार्टी की कथित वेबसाइट पर कश्मीर को विवादास्पद क्षेत्र बताने का आरोप व उसकी वजह से अरविंद केजरीवाल को पाकिस्तान का एजेंट कहना कहीं अधिक महत्वपूर्ण व साथ ही, एक अत्यंत ख़तरनाक रुझान है। यह आरोप एक मुख्यमंत्री व प्रधानमंत्री पद के दावेदार की ओर से अपने मुख्य प्रतीकात्मक विरोधी पर लगाया गया है। यह वेबसाइट आम आदमी पार्टी की नहीं है, नरेंद्र मोदी से ग़लती हुयी है– यह कोई बड़ी बात नहीं है। ऐसी ग़लतियाँ होती हैं, इनकी वजह से चुनाव अभियान दिलचस्प बनता है। लेकिन इस ग़लती के पीछे राजनीतिक उद्देश्य छिपा हुआ था और वह उद्देश्य हमारे राष्ट्र के लिये, सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन के ताने-बाने के लिये अत्यन्त ख़तरनाक व दुर्भाग्यपूर्ण है।
बात 1970 के आस-पास की है। मैं उस वक्त भाकपा का कार्यकर्ता हुआ करता था, साथ ही, सुभाष चंद्र बोस का अनन्य भक्त था। एक जनसभा को सम्बोधित करने कॉमरेड भूपेश गुप्त बनारस आये हुये थे। सभा के बाद पार्टी ऑफ़िस में बात हो रही थी, और मैंने सुभाष चंद्र के बारे में चालीस के दशक में कम्युनिस्टों द्वारा कही बातों का ज़िक्र छेड़ा। उनका जवाब मुझे याद है। उन्होंने कहा था – “देखो, सुभाष बाबू की राजनीतिक आलोचना करना कम्युनिस्टों का हक़ था। वह सही था या ग़लत, इस पर बहस की जा सकती है। लेकिन हमने उनकी देशभक्ति पर सवालिया निशान उठाया था। यह सरासर ग़लत था।राजनीतिक आलोचना के तहत विरोधियों को देशद्रोही कहना अक्षम्य अपराध है।”
किसी भी राष्ट्र के लिये, यहाँ तक कि सभ्य समाज के लिये भी, देशद्रोहिता और आतंकवादी सबसे गर्हित व अक्षम्य अपराध हैं। विरोधियों पर ऐसे आरोप लगाना भी। आज अगर चुनाव अभियान में ऐसे आरोप लगाये जाते हैं, तो आने वाले दिनों में ऐसे आरोपों के आधार पर सरकारी मशीनरी का दुरुपयोग करते हुये विरोधियों को कुचला भी जा सकता है। कुछ ऐसा ही हमने सोनी सोरी के मामले में देखा है। ऐसी रुझानों के ख़िलाफ़ मुकम्मल तौर पर उठ खड़े होना लाज़मी हो गया है, क्योंकि भारत की भावी राजनीतिक दिशा पर आज सवालिया निशान लगा हुआ है।
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