1990 के दशक के अंत व उसके बाद वाले वर्षों में बर्लिन के हुम्बोल्ट विश्वविद्यालय में प्रो. युंग हुआ करते थे। भारतविद्या के प्रोफ़ेसर, जर्मन बुद्धिजीवियों के बीच भाजपा के प्रति सहानुभूति रखनेवाले एक विरल अपवाद।
2002 के बाद एक संगोष्ठी में हम आमने-सामने थे। मेरा कहना था कि गुजरात के नरसंहार में भारतीय लोकतंत्र का संकट प्रतिबिम्बित हुआ है। मेरे तर्कों का खंडन करते हुए उन्होंने कहा था कि यह घटना निंदनीय होने के बावजूद इसमें व्यवस्था का संकट नहीं दिखा है। इसके विपरीत 1975 में आपात स्थिति की घोषणा में भारत में व्यवस्था का संकट दिखा था।
आज मैं उनसे सहमत हूं।
चाहे 1984 हो या 2002, इनमें भारतीय लोकतंत्र, भारत में राष्ट्र की परिकल्पना, या इन दोनों से बढ़कर सामान्य सामुदायिक जीवन के आधारभूत मूल्यों पर वैचारिक हमला नहीं किया गया था। इन्हें ग़लत माना गया था। इनकी ज़िम्मेदारी असामाजिक तत्वों पर डालते हुए अपने हाथ धो लेने की कोशिश की गई थी।
आज स्थिति बिल्कुल अलग है। देश में व्यापक स्तर पर दलितों और अल्पसंख्यकों पर हमले किये जा रहे हैं, सत्तारूढ़ दल के सांसद के मंच से कब्रों से मुस्लिम औरतों को निकालकर उनसे बलात्कार की बात की जा रही है, तथाकथित संत और साध्वी विधर्मियों के ख़िलाफ़ ज़हर उगले जा रहे हैं, महिलाओं के लिये मध्ययुगीन आचार संहिता पेश की जा रही है, स्वायत्त संस्थानों की संप्रभुता पैरों तले कुचली जा रही है, सिविल सोसायटी के संगठनों पर दमन चक्र चल रहा है, विरोधियों को हरामज़ादों और शैतान की संज्ञा दी जा रही है, उन्हें पाकिस्तान भेजने की बात की जा रही है, राष्ट्रीय आंदोलन के नेताओं की छवि ध्वस्त करने के लिये एक व्यापक मुहिम छेड़ी गई है।
परोक्ष समर्थन या ख़ामोशी के ज़रिये मीडिया का व्यापक हिस्सा इन्हें पारित कर रहा है। सत्तारूढ़ खेमे में प्रबुद्ध होने का दावा करने वाले इन्हें बहुमत समुदाय के जायज़ गुस्से का इज़हार कह रहे हैं।
2002 के बाद देश के प्रधान मंत्री ने राजधर्म शब्द का प्रयोग करते हुए उदारवाद की अंतरात्मा को अपने साथ जोड़ लिया था, भले ही वह शब्द बिल्कुल बेअसर रहा हो। आज ऐसा कोई शब्द नहीं दिख रहा है। दादरी कांड को अवांछित कहने के लिये प्रधान मंत्री को दस दिन तक इंतज़ार करना पड़ता है, फिर भी
वह स्पष्ट शब्दों में उसकी निंदा नहीं करते हैं, उसे अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर घोषित करते हैं। इससे पहले भी वह गाड़ी के नीचे दबे कुत्ते के पिल्ले की मौत पर शोक व्यक्त कर चुके हैं।
यह एक नई स्थिति है। सतह के नीचे उदार भारत, गंगा-जमुनी भारत, हां, सदियों का अमृतस्य पुत्र भारत भी तड़पने लगा है।
लेखकों का पुरस्कार लौटाना, उनके इस्तीफ़े इस बेचैनी के साथ पहली प्रतिक्रिया है। उसके प्रति सरकारी भारत, मीडिया भारत के भौंकने से स्पष्ट हो गया है कि दुश्मन ने उन्हें पहचान लिया है।
यह मोर्चेबंदी की शुरुआत है। अभी हमें बहुत कुछ देखना है, जो हमने 1984 या 2002 में नहीं देखा था।
उज्ज्वल भट्टाचार्या