शैलेन्द्र चौहान
कुष्ठरोग (लिप्रोसी) या हेन्सेन रोग (Hansen's disease) एक जीर्ण रोग है जो माइकोबैक्टिरिअम लेप्राई (Mycobacterium leprae) नामक जीवाणु (बैक्टिरिया) के कारण होता है। यह मुख्य रुप से मानव त्वचा, ऊपरी श्वसन पथ की श्लेष्मिका, परिधीय तंत्रिकाओं, आंखों और शरीर के कुछ अन्य क्षेत्रों को प्रभावित करता है। यह न तो वंशगत है और न ही दैवीय प्रकोप। यह रोग छूत से नहीं फैलता। इस रोग का कारण 'माइक्रो बैक्टीरयिम लेप्रे' नामक जीवाणु (बैक्टीरिया) का त्वचा में प्रवेश समझा जाता है। इन जीवाणुओं की खोज लगभग सौ वर्ष पूर्व हैनसेन नामक एक नार्वेजियन ने डेनमार्क के एक अनुसंधानशाला में की थी। इस अनुसंधान के फलस्वरूप आगे चलकर यह बात ज्ञात हुई कि ये जीवाणु क्षयरोग के जीवाणु की जाति के हैं और जो औषधियाँ क्षयरोग की चिकित्सा में सफल हैं, उनमें से अधिकांश इस रोग के जीवाणुओं को भी नष्ट करने में सक्षम हैं। किंतु यह जीवाणु किस प्रकार शरीर में प्रवेश करते हैं, अभी स्पष्ट रूप से ज्ञात नहीं हो पाया है। इस समय इस बात के जानने की चेष्टा की जा रही है कि कहीं ये जीवाणु भोजन अथवा साँस के साथ तो शरीर में प्रवेश नहीं करते। इनका प्रवेश जिस प्रकार भी होता है, बच्चों में इसका संक्रमण अधिक होता है और बहुधा रोगग्रस्त के दीर्घकालिक संसर्ग से ही इसका संक्रमण होता है। इस रोग के संबंध में लोगों में यह गलत धारणा है कि यह असाध्य है। कुष्ठ की गणना संसार के प्राचीनतम ज्ञात रोगों में की जाती है। इसका उल्लेख चरक और सुश्रुत ने अपने ग्रंथों में किया है। उत्तर साइबेरिया का छोड़कर संसार का कोई भाग ऐसा नहीं था जहाँ यह रोग न रहा हो। किंतु अब ठंडे जलवायु वाले प्राय: सभी देशों से इस रोग का उन्मूलन किया जा चुका है। यह अब अधिकाशंत: कर्क रेखा (Tropic of Cancer) से लगे गर्म देशों के उत्तरी और दक्षिणी पट्टी में ही सीमित है और उत्तरी भाग की अपेक्षा दक्षिणी भाग में अधिक है। भारत, अफ्रीका और दक्षिणी अमरीका में यह रोग अधिक व्यापक है। भारत में यह रोग उत्तर की अपेक्षा दक्षिण में अधिक है। उड़ीसा, आंध्रप्रदेश, तमिलनाडु और दक्षिण महाराष्ट्र में यह क्षेत्रीय रोग है। उत्तर भारत में यह हिमालय की तराई में अधिक देखने में आता है।
कुष्ठ, रोग होने के साथ ही यह एक सामाजिक समस्या भी है। उपेक्षित रोगी जीवन से निराश होकर प्राय: वाराणसी आदि तीर्थों एवं अन्य स्थानों पर चले जाते हैं जहाँ उन्हें रहने को स्थान और खाने को भोजन आसानी से मिल जाता है। वहाँ के भिक्षुक बनकर घूमते हैं। अक्सर भीख मांगते हुए किसी कुष्ठ रोगी को देखकर हमारे मन में वितृष्णा का संचार होने लगता है। यानि हमारे अचेतन मष्तिष्क में इस रोग के प्रति एक गहरा डर पैठा होता है। जबकि यह सोच अवैज्ञानिक है। इससे हमें उबरना होगा। तभी समाज में कुष्ठ रोगियों के प्रति संवेदनशीलता की स्थिति बनेगी। अत: चिकित्सा व्यवस्था के साथ-साथ यह भी आवश्यक है कि समाज में कुष्ट के रोगी के प्रति घृणा के भाव दूर हों। महात्मा गांधी ने कुष्ठ रोग के सामाजिक प्रभाव को समझा था। उन्होंने इस रोग के साथ जुड़े सामाजिक कलंक को मिटाने के लिए कार्य किया और कुष्ठ रोगियों को समाज की मुख्य धारा में लाने का प्रयास किया। गलित कुष्ट की वीभत्सता से समाज इतना आक्रांत है कि लोग कुष्ट के रोगी को घृणा की दृष्टि से देखते हैं और उसकी समुचित चिकित्सा नहीं की जातीैं। उसके साथ अमानवीय व्यवहार किया जाता है। वास्तविकता यह है कि कुष्ट रोग से कहीं अधिक भयानक यक्ष्मा, हैजा और डिप्थीरिया हैं। यदि लक्षण प्रकट होते ही कुष्ट रोग का उपचार आरंभ कर दिया जाए तो इस रोग से मुक्त होना निश्चित है। मनुष्य स्वस्थ होकर अपना सारा कार्य पूर्ववत् कर सकता है। डॉ. केयर वेलुत बेल्जियम की महिला डॉक्टर हैं, जो कुष्ठ रोग से पीडि़त लोगों की सेवा के लिए कृत संकल्प रहीं। कुष्ठ रोगियों की पीड़ा दूर करने के लिए 5 दशक से अधिक समय तक उन्होंने नि:स्वार्थ सेवा की। 1979 में उन्होंने भारत की राष्ट्रीयता अपनाई, क्योंकि वे उसी देश में रहना चाहती थीं, जिसे उन्होंने अपनाया था। बाबा आम्टे द्वारा वरोरा (जिला-चंद्रपुर) महाराष्ट्र में कुष्ठ रोग से पीड़ित लोगों की सेवा और सहायता का काम प्रारंभ किया गया। कुष्ठ रोगियों के लिए बाबा आम्टे ने सर्वप्रथम, ग्यारह साप्ताहिक औषधालय स्थापित किए, फिर 'आनंदवन' नामक संस्था की स्थापना की। उन्होंने कुष्ठ की चिकित्सा का प्रशिक्षण तो लिया ही, अपने शरीर पर कुष्ठ निरोधी औषधियों का परीक्षण भी किया। 1951 में 'आनंदवन' का अभ्युदय हुआ। बाबा आम्टे के प्रयत्न से दो अस्पताल बने, विश्वविद्यालय स्थापित हुआ, एक अनाथालय खोला गया, नेत्रहीनों के लिए स्कूल बना और तकनीकी शिक्षा की भी व्यवस्था हुई। 'आनंदवन' आश्रम अब पूरी तरह आत्मनिर्भर है और लगभग पाँच हज़ार व्यक्ति उससे आजीविका चला रहे हैं। डॉ. जगदीश देवराव सामंत महाराष्ट्र में लोक नायक जय प्रकाश नारायण कुष्ठ रोग उन्मूलन न्यास के संस्थापक हैं। उन्होंने लगभग 50 वर्षों तक कुष्ठ रोगियों की समर्पण भाव से सेवा की
कुष्ठ रोग के संबंध में कुछ गलत तथ्य हमारे समाज में प्रचलित हैं। कुछ लोगों का विश्वास है कि वंशानुगत कारणों, अनैतिक आचरण, अशुद्ध रक्त, खान-पान की गलत आदतें जैसे सूखी मछली, पूर्व पापकर्म आदि कारणों से कुष्ठ रोग होता है। लोग मानते हैं कि कुष्ठरोग केवल कुछ ही परिवारों में फैलता है। यह केवल स्पर्शमात्र से हो जाता है। कुष्ठ रोग प्राय: कुरूपता के साथ जुड़ा हुआ होता है और कुरूपता आने के बाद ही कुष्ठ रोग का निदान किया जा सकता है। कुष्ठ रोग अत्यंत संक्रमणशील है एवं यह संक्रमणशीलता कुरूपता से जुड़ी हुई है। कुष्ठ रोग लाइलाज है। या जिन परिवारों में कुष्ठ रोगी हैं, उस परिवार के बच्चों को कुष्ठ रोग होगा ही। यह सर्वथा एक मिथ्या प्रचार है जो सही जानकारी के आभाव के कारण होता है। आयुर्वेद में कुष्ठ रोग की चिकित्सा के लिये मुख्यत: खदिर और बाबची का उपयोग होता है। सुश्रुत में इसके लिए भल्लक तेल का उपयोग बताया गया है। चालमोगरा का तेल खाने और लगाने का भी विधान है। चालमोगरा के तेल का प्रयोग इस रोग में आधुनिक चिकित्सक भी करते हैं। इनके प्रयोग से यह रोग ठीक हो सकता है। अंग्रेजी दवाएं तो इसके इलाज के लिए उपलब्ध हैं ही। इथाइल, एस्टर, प्रोमीन, सल्फ्रटोन, आइसोनेक्स और स्ट्रेप्टोमाइसीन इस रोग की मुख्य औषधियाँ हैं।