‘ आतंक ’ – हिन्दुत्वादी संगठनों की देश में हुई सांप्रदायिक हिसाओं में अग्रणी भूमिका रही है
इन सभी के अलावा एक दूसरा पक्ष भी है, बतौर उदाहरण 16 मई 2014, एक तरफ जहां 16 मई को मोदी की जीत के रुप में जाना जाता है, तो वहीं इसी दिन सुप्रीम कोर्ट ने 24 सितंबर 2002 अक्षरधाम हमले के आरोपियों को बरी कर दिया। इन दोनों परिघटनाओं को लेकर बात करने की यहां जरुरत इसलिए आन पड़ी कि जो मोदी आज ‘क्लीन इंडिया’ अभियान चला रहे हैं, उन्हीं के राज में 2002 के हुई गुजरात में सांप्रदायिक हिंसा के बाद अक्षरधाम मंदिर पर हुए हमले को हिन्दुओं के खिलाफ मुसलमानों के जिहाद के रूप में प्रचारित किया गया था, और बड़ी ‘बहादुरी’ से ‘अक्षरधाम के दहशतगर्दों’ को पकड़ने का दावा किया गया। जिन्हें देश के सर्वोच्च न्यायालय ने 11 साल कैद के बाद बरी कर दिया।
बात भाजपा और गुजरात तक न रुक जाए, क्योंकि आज के परिदृश्य में यह इस महत्वपूर्ण बहस को संकीर्णता के दायरे में ले जा सकती है, इसलिए एक दूसरा उदाहरण उत्तर प्रदेश से। 22 दिसंबर 2007 को बाराबंकी से तारिक और खालिद की आतंकवाद के नाम पर की गई गिरफ्तारी पर उठ रहे सवालों के मद्देनजर तत्कालीन मुख्यमंत्री मायावती ने मार्च 2008 में इसकी सत्यता जानने के लिए आरडी निमेष कमीशन का गठन किया। निमेष कमीशन ने अगस्त 2012 में अपनी रिपोर्ट मुख्यमंत्री अखिलेश यादव को सौंप दी। राजनीतिक व मानवाधिकार संगठनों ने रिपोर्ट को सार्वजनिक करते हुए, कार्यवाई की मांग की। यूपी सरकार द्वारा रिपोर्ट के न सार्वजनिक करने पर आतंकवाद के नाम पर कैद बेगुनाहों के सवालों को उठाने वाले संगठन रिहाई मंच ने निमेष कमीशन की रिपोर्ट को सरकार के अंदरखाने से प्राप्त कर मीडिया में जनहित में जारी कर दिया। इस रिपोर्ट ने यूपी एसटीएफ के उस दावे पर सवालिया निशान उठा दिया कि उसने यूपी के कचहरी धमाकों के आरोपियों को बाराबंकी में उस वक्त पकड़ा जब वह विस्फोटकों के साथ बाराबंकी रेलवे स्टेशन पहुंचे थे। जबकि वहीं दूसरी तरफ तारिक के परिजनों का कहना था कि तारिक को 12 दिसबंर 2007 को रानी की सराय आजमगढ़ से तो वहीं 16 दिसंबर को खालिद को मडि़याहूं जौनपुर से यूपी एसटीएफ ने उठाया था।
आरडी निमेष कमीशन आतंकवाद के आरोपियों की गिरफ्तारी की सत्यता की जांच के लिए बना था, और उसने गिरफ्तारी को संदिग्ध मानते हुए दोषी अधिकारियों के खिलाफ कार्यवाई करने की बात कही। पर यूपी की सपा सरकार जिसने आतंकवाद के आरोप में कैद निर्दोषों को रिहा करने का अपने चुनावी घोषणा पत्र में वादा किया था, उसने न सिर्फ निमेष कमीशन की रिपोर्ट को दबाया बल्कि इससे बढ़े हौसले के चलते 18 मई 2013 को खालिद की हत्या पुलिस व आईबी के अधिकारियों ने करा दी, जिसे खालिद के चचा जहीर आलम फलाही द्वारा दर्ज एफआईआर में देखा जा सकता है, क्योंकि खालिद इस मामले में अहम गवाह था। लगातार देश में बढ़़ रहे विरोध प्रदर्शनों और लखनऊ विधानसभा के सामने रिहाई मंच के अनिश्चित कालीन धरने के दबाव में यूपी सरकार ने 4 जून को निमेष कमीशन रिपोर्ट को स्वीकारा, जबकि मांग सार्वजनिक करते हुए कार्यवाई की थी। उत्तर भारत जब मई-जून की गर्मी और लू के थपेड़ों के बीच से गुजर रहा था तो ऐसे में अनिश्चितकालीन विरोध प्रदर्शनों का जो सिलसिला, यूपी विधानसभा के सामने शुरू हुआ, बारिश के महीनों में भी जारी रहा, सरकार इस दबाव में लगातार अपने मानसून सत्र को टालती रही। अंततः 121 दिनों के लंबे धरने के दबाव में यूपी सरकार ने निमेष आयोग रिपोर्ट को सितंबर 2013 में मानसून सत्र के दौरान विधानसभा के पटल पर रखा, पर दोषी पुलिस व आईबी अधिकारियों के खिलाफ कार्यवाई रिपोर्ट नहीं लाई, जिसकी अनुशंषा निमेष आयोग ने की थी।
यहां अहम सवाल है कि जैसे ही कि आतंकवाद के मामलों में उसकी सत्यता के जुड़े सवाल जब देश की सुरक्षा व खुफिया एजेंसियों के खिलाफ जाने लगते हैं तो ‘सेक्युलर’ और ‘नान सेक्यलुर’ सभी सरकारों का रवैया एक हो जाता है। यह वह प्रक्रिया होती है जब राज्य अपने ही नागरिकों के खिलाफ ‘मुस्तैदी’ से खड़ा हो जाता है, उसे आतंकी मानकर। आखिर क्या वजह है कि एक सेवानिवृत्त न्यायाधीश जो इसी व्यवस्था का हिस्सा हैं, उनके सुझावों को क्यों नहीं माना जा रहा है। क्योंकि, सवाल सिर्फ तारिक-खालिद की गिरफ्तारी का नहीं है, बल्कि सुरक्षा व खुफिया एजेंसियों के उस दावे का भी है कि वे 22 दिसंबर 2007 को बाराबंकी भारी पैमाने पर विस्फोटकों के साथ पहुंचे थे और वे किसी बड़ी घटना को अंजाम देने की फिराक में थे। तो ऐसे में सवाल उठता है कि अगर उनकी गिरफ्तारी ही संदिग्ध हो जाती है तो पुलिस के उस दावे का क्या किया जाए जिसने देश के आम अवाम में तारिक-खालिद के प्रति न सिर्फ न नफरत पैदा की ही, बल्कि देश के नागरिकों में आतंकवादी घटना हाने वाली थी, का डर व दहशत फैलाया। तो वहीं सवाल उठता है कि अगर तारिक-खालिद की गिरफ्तारी संदिग्ध थी तो उनके पास से जो खतरनाक विस्फोटकों की बरामदगी का दावा यूपी एसटीएफ ने किया, वह उनके पास कैसे पहुंचा? ठीक इसी तरह गुजरात के अक्षरधाम मंदिर पर हुए आतंकी हमले के जिन गुनहगारों को पकड़ने का दावा किया गया था, उनके 11 साल बाद बेगुनाह रिहा होने पर सवाल उठना लाजिमी है कि अक्षरधाम में हमले में मारे गए बेगुनाह नागरिकों का हत्यारा तब कौन है।
आतंकवाद के मामले में गिरफ्तारी को लेकर यह तो बात एक निमेष आयोग की थी। अगर न्यायायिक जांच आयोगों की रिपोर्टों को दबाने की घटनाओं का अध्ययन करें तो सिर्फ यूपी में एक लंबी फेहरिस्त है। हाशिमपुरा-मलियाना सांप्रदायिक हिंसा पर 6 अयोग बने, जिसमें से आज तक किसी की भी रिपोर्ट सार्वजनिक नहीं हुई, ठीक इसी तरह कानपुर दंगा कमीशन से लेकर बिजनौर दंगा कमीशन सबकी रिपोर्टें कैद हैं। ऐसा इसलिए कि अगर यह रिपोर्टें सार्वजनिक हो जांएगी तो असली सफेदपोश सांप्रदायिक हमलावर जो इन सांप्रदायिक हिंसा की घटनाओं की खेती की बदौलत बड़े राजनेता के रुप में शुमार हो चुके हैं और दोषी प्रशासनिक अमला जिसकी राज्य से लेकर केन्द्र तक के गलियारों में पहुंच हैं, के सांप्रदायिक चेहरे पर दंगाई होने का ठप्पा लग जाएगा।
गुजरात 2002 की सांप्रदायिक हमला हो या फिर 2013 मुजफ्फरनगर सांप्रदायिक हमला, इनको लेकर लगातार यह बात कही जा रही है कि सांप्रदायिक हिंसा में देश के बाहर की खुफिया एजेंसियों और आतंकी संगठन, सांप्रदायिक हिंसा के षडयंत्र रच रहे हैं। ऐसे में उठ रहे सवालों, कि सांप्रदायिक हिंसा की वारदातों में आतंकवादी संगठनों की मिलीभगत है तो ऐसे में यह नितांत जरुरी हो जाता है कि देश में हुए सांप्रदायिक हिंसा पर गठित आयोगों की जो रिपोर्टें सरकारों के ‘कैदखानों’ में बंद हैं, उनको सार्वजनिक किया जाए। क्योंकि समय-समय पर किसी बड़ी घटना की जांच के लिए बनने वाले आयोग सिर्फ घटना की वास्तविकता ही नहीं बल्कि उस समय क्या समाज में घटित हो रहा था, किसके द्वारा, पीड़ित कौन, पीड़ित करने वाला कौन है, इन सब पर एक ठोस दस्तावेज होता है। इन आयोगों की रिपोर्टों को कानून व्यवस्था से इतर रखकर देखने की भी जरुरत है। इसे इस बात से भी समझा जा सकता है कि जिस तरह देश में आदिवासी-दलित उत्पीड़न की घटनाओं के पीछे कानून व्यवस्था का सिर्फ सवाल न होकर हमारे समाज का मौजूदा ढाचां जिम्मेवार होता है, जिसकी वर्चस्वादी मानसिकता हमला करने के लिए उसे प्रोत्साहित करती है। ठीक इसी तरह सांप्रदायिक घटनाओं में भी यह प्रवृत्ति देखने को मिल जाती है। देश की आजादी या फिर उसके पहले देश में हुई सांप्रदायिक हिसांओं में मुस्लिम समाज का सबसे ज्यादा जान-माल का नुकसान यह पुष्ट करता है कि वह सांप्रदायिक हिंसा के दौरान सबसे ज्यादा पीड़ित होता है। जहां आदिवासी-दलित वर्णव्यवस्था आधारित भेदभाव का शिकार होता है तो वहीं मुस्लिम सांप्रदायिकता का। जिस तरीके से पुलिसिया अमला दलित-आदिवासी समाज के लोगों की शिकयतों को न सिर्फ दर्ज करने से मना करता है, बल्कि उन्हें फर्जी मुकदमों में फंसाता है, ठीक वही प्रवृत्ति मुसलमानों के प्रति उसकी होती है। क्योंकि वह उसी समाज से आता है जहां जाति, लिंग, भाषा, संप्रदाय, नस्ल आदि के आधार पर भेदभाव करने को वैधता हासिल है, जिसकी इजाजत हमारा संविधान नहीं देता है।
ऐसे में अगर देश में हुई विभिन्न सांप्रदायिक हिंसाओं के बाद बने आयोगों की रिपोर्टों को सार्वजनिक कर मौजूदा दौर में पड़ताल की जाए कि देश में हो रही सांप्रदायिक घटनाओं में आतंकवादी संगठनों की क्या भूमिका है, तो एक ठोस मूल्यांकन करने की स्थिति में हम होंगे। क्योंकि पिछले दिनों जिस तरह हिंन्दुत्वादी संगठनों के लोगों की मालेगांव, समझौता कांड से लेकर विभिन्न आतंकी घटनाओं में गिरफ्तारी हुई उससे साफ होता है कि आतंकवाद किसी खास धर्म की विचारधारा नहीं है। 1969 में हटिया समेत विभिन्न सांप्रदायिक हिंसा की वारदातें हो या फिर भागलपुर इन सभी जगहों पर भगवा संगठनों पर सांप्रदायिक हिंसा फैलाने का आरोप जांच आयोगों ने लगाया है। तो ऐसे में यह क्यों नहीं हो सकता कि जिन हिन्दुत्ववादी संगठनों की देश में हुई सांप्रदायिक हिसाओं में अग्रणी भूमिका रही है, उनके आतंककारी संगठन इन घटनाओं को अंजाम दे रहे हों, जिन्हें ‘कानूनी आतंकवादी संगठनों’ की परिभाषा में नहीं रखा जाता है। पाकिस्तान के सियालकोट का एक वीडियों जिसे अगस्त-सितंबर 2013 में मुजफ्फरनगर व आस-पास के इलाकों में भड़की सांप्रदायिक हिंसा का कारण माना जाता है, जिसे भाजपा विधायक संगीत सोम, जिन्हें मोदी सरकार बनने के बाद जेड प्लस सुरक्षा दी गई है, के द्वारा इंटरनेट पर वायरल करने का आरोप है, को आखिर क्यों नहीं आतंकारी संगठन का कारकून माना जाता है। क्या इस वीडियो को अगर किसी मुस्लिम ने अपलोड किया होता तो ऐसा ही ‘सम्मान’ उसे भी मिलता?
राजीव कुमार यादव