उज्ज्वल भट्टाचार्य
वामपंथी दलों की एकता समय की माँग - क्रान्ति स्वर नामक ब्लॉग में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (भाकपा) के यूपी राज्य सचिव डॉ. गिरीश ने एक लेख लिखा है।
वामपंथियों की एकता समय की माँग है - इस कथन से असहमत होना मुश्किल है। लेकिन मैं यह समझ नहीं पा रहा हूँ कि डॉ. गिरीश के इस लेख को कम्युनिस्ट पार्टी का राजनीतिक इतिहास समझा जाय, या संगठनात्मक रिपोर्ट। इस पूरे विवरण में कहीं इस बात का ज़िक्र नहीं है कि किन राजनीतिक प्रक्रियाओं और वर्ग संघर्ष की अनिवार्यताओं के चलते राजनीतिक घटनाओं और वामपंथी आन्दोलन का विकास हुआ। आज़ादी के आन्दोलन में विभिन्न धाराओं के हितों का जुड़ना और उनका अंतर्विरोध - कम्युनिस्ट पार्टी के गठन और विकास में उनकी भूमिका का कहीं कोई उल्लेख नहीं है। लेखक ने यूपी की घटनाओं का ब्योरा देने की कोशिश की है, लेकिन उसमें इन तथ्यों का कोई विवरण नहीं है कि इस प्रदेश में किस तरह वामपंथी रुझान की विभिन्न धारायें आपस में जुड़कर कम्युनिस्ट पार्टी में एकजुट हुयीं, और क्यों हुयी।
लेखक कहते हैं : "1949 में जमींदारी प्रथा की समाप्ति तथा 1950 के बाद देश के विकास के लिये बनने वाली प्रथम पंचवर्षीय योजना के निर्माण में भूमिका निभाने का कम्युनिस्टों ने योगदान किया।"
मेरा सुझाव है कि वह भाकपा की पहल पर पार्टी के इतिहास की दस्तावेजों के सातवें वॉल्युम को देखें, जिसका सम्पादन एम बी राव ने किया है। 1949 में पार्टी रणदिवे के रूसी रास्ते से उबरकर चीनी रास्ते को अपनाने के दौर में थी। यूपी में ज़मींदारी प्रथा की समाप्ति में योगदान की कैसी गुँजाइश थी - इस पर प्रकाश डालने की अगर वह कोशिश करते तो अच्छा होता। क्या इस सिलसिले में पार्टी की दस्तावेज़ों में कुछ कहा गया है ?
यही बात प्रथम पंचवर्षीय योजना के निर्माण में कम्युनिस्टों की भूमिका के सिलसिले में कही जा सकती है। पचास व साठ के दशक में कम्युनिस्ट पार्टी की ताकत बढ़ी। लेकिन जिन संघर्षों की वजह से ताकत बढ़ी, डॉ. गिरीश के विवरण में कहीं उनका ज़िक्र नहीं है।
यह सच है कि पार्टी के विभाजन में चीनी हमले के प्रति दृष्टिकोण की एक महत्वपूर्ण भूमिका रही। यह एक सैद्धान्तिक प्रश्न था - पूरी पार्टी मानती थी कि चीन एक समाजवादी देश है और चीनी पार्टी एक कम्युनिस्ट पार्टी है। एक अल्पमत ने सवाल उठाया था कि कोई समाजवादी देश हमलावर कैसे हो सकता है ? लेकिन डॉ. गिरीश भूल जाते हैं कि विभाजन के पीछे मुख्य कारण भारत में क्रान्ति के चरित्र और क्रान्तिकारी संघर्ष में मोर्चे के सवाल पर बुनियादी मतभेद था, जो भाकपा के कार्यक्रम 'राष्ट्रीय जनवादी क्रान्ति' और सीपीएम के कार्यक्रम 'लोक जनवादी क्रान्ति' के रूप में सामने आई। शायद यह सवाल भी दिलचस्प होता कि आज इन दोनों कार्यक्रमों की प्रासंगिकता कहाँ रह गयी है।
इस लेख की सबसे बड़ी कमज़ोरी सत्तर के दशक के बाद से पार्टी कमज़ोरी को समझने के सिलसिले में है। बहुगुणा के समय में भाकपा को सबसे ज़्यादा यानी 16 सीटें मिली। क्या उस समय पार्टी की ताकत पहले के मुकाबले बढ़ गयी थी ? यह अगर पार्टी के राज्य सचिव की समझ है, फिर यह समझना मुश्किल नहीं रह जाता है कि यूपी में पार्टी की हालत इतनी खस्ता क्यों है। कैसे ख़ास कर गाज़ीपुर, आज़मगढ़ या बनारस जैसे ज़िलों में पार्टी का जनाधार ख़त्म होता गया, पहचान की राजनीति की उसमें कौन सी भूमिका थी, नेतृत्व के एक बड़े हिस्से में व्यक्तिवादिता की क्या भूमिका थी, व्यक्तिवादिता के राजनीतिक कारण क्या थे - इस लेख में इन कारणों पर गौर करने की कोई ज़रूरत नहीं समझी गयी। 1969 के चुनाव में ही सीपीआई को चरण सिंह के नेतृत्व में आई पहचान की राजनीति की पहली थपेड़ झेलनी पड़ी थी और उसके सभी 14 विधायक चुनाव हार गये थे।
पहचान की राजनीति की परम्परा किसान विद्रोह या आदिवासी विद्रोह में देखी जा सकती है। ऐसा हर विद्रोह किसी एक नेता के इर्द-गिर्द उभरा है, वह नेता एक दैवी मिशन के तहत काम करता है, मान्य प्रतीकों को नकारते हुये वह वैकल्पिक प्रतीक तैयार करता है, जिसका नमूना वर्चस्व के जगत से लिया जाता है, सिर्फ़ क्रम को उलट दिया जाता है, वह एक टीले पर बैठता है, और यह टीला उसका सिंहासन होता है।
मेरी राय में आज भी पहचान की राजनीति में लोकतन्त्र का अभाव होगा, उसमें एक जाति या व्यक्ति का प्रभुत्व होगा। साथ ही वह क्षेत्रीय आधार पर विकसित होगा और इन क्षेत्रीय ताकतों के बीच सहयोग बेहद मुश्किल होगा। लेकिन इनकी वजह से उसकी ऐतिहासिक प्रासंगिकता नकारी नहीं जा सकती।
मेरा बुनियादी सवाल वामपंथी मोर्चे की भूमिका के सिलसिले में है। पश्चिम बंगाल की मिसाल अगर ली जाय तो ज़मीन का बँटवारा और पंचायती राज - इन दोनों क्षेत्रों में वाम मोर्चे की उपलब्धि ऐतिहासिक है। लेकिन भूमिहीन खेत मज़दूरों का सवाल, उसके साथ जुड़ा हुआ दलितों और पिछड़ी जातियों और मुस्लिम समुदाय के उत्थान का सवाल, और सबसे बढ़कर औद्योगिक क्षेत्र में एक वैकल्पिक मॉडल तैयार करने का सवाल - यहाँ वाम मोर्चे की उपलब्धियाँ कैसी रही हैं ? जो कुछ नहीं हो सका है, उसके कारण क्या हैं ? मेरी राय में यहाँ आलोचना और आत्मालोचना पर आधारित विश्लेषण ज़रूरी है।
यह आलोचना कम्युनिस्ट पार्टी की आलोचना नहीं है। सार्वजनिक मंच पर जिस छिछले तरीके से घटनाओं के विश्लेषण की कोशिश की गयी है, उसकी आलोचना है। मुझे नहीं लगता कि डॉ. गिरीश के विश्लेषण को भाकपा का विश्लेषण कहा जा सकता है। और डॉ. गिरीश भाकपा के राज्य सचिव हैं।