कश्मीर पर एमनेस्टी रिपोर्ट-अन्यायों की अनकही दास्तां
नेहा दाभाड़े
हाल में एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया के खिलाफ देशद्रोह और भारतीय दंड संहिता की अन्य धाराओं के अंतर्गत एफआईआर दर्ज की गई।
एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया ने कश्मीर के मुद्दे पर एक चर्चा का आयोजन किया था, जिसमें कश्मीरी पंडितों सहित सभी पक्षों के प्रतिनिधि आंमत्रित थे।
यह चर्चा, एमनेस्टी इंटरनेशनल द्वारा जम्मू-कश्मीर के उन लोगों को न्याय दिलाने के अभियान का हिस्सा था, जिनके मानवाधिकारों का उल्लंघन हुआ है।
कार्यक्रम में मौजूद कश्मीरी पंडितों ने भारतीय सेना की शान में नारे लगाए, जिसके प्रति उत्तर में दर्शकों में मौजूद कुछ युवकों ने कश्मीर की आज़ादी के नारे बुलंद किए।
एमनेस्टी ने यह साफ किया कि कश्मीरियों के आत्मनिर्णय के अधिकार के मसले पर उसके स्वयं के कोई विचार नहीं हैं। परंतु सरकार का कहना है कि यह आयोजन ‘देशद्रोह’ था।
इस घटनाक्रम पर मचे बवाल में एमनेस्टी की वह रिपोर्ट कहीं खो सी गई है, जिसमें उसने जम्मू-कश्मीर के नागरिकों के दुःखों और परेशानियों का खुलासा किया है।
कश्मीर इन दिनों एक युद्ध क्षेत्र बना हुआ है।
वहां एक ओर अतिवादी हिंसा कर रहे हैं तो दूसरी ओर सेना की वहां भारी मौजूदगी है। सेना इन अतिवादियों के खिलाफ लड़ रही है।
सेना व अन्य आंतरिक सुरक्षाबलों द्वारा आमजनों पर जो ज्यादतियां की जा रही हैं और उनके मानवाधिकारों का जो उल्लंघन हो रहा है, उस पर कई संगठन और व्यक्ति अपनी गहन चिंता व्यक्त कर चुके हैं।
एमनेस्टी की सन 2015 में प्रकाशित इस रिपोर्ट का शीर्षक है ‘‘डिनाइडः फेलियर्स इन अकाउंटेबिलिटी इन जम्मू एंड काश्मीर’’ (जम्मू-कश्मीर में जवाबदेही स्वीकार करने में असफलता से इंकार)। इस रपट में सुरक्षाबलों द्वारा मानवाधिकार उल्लंघन के मामलों में न्याय पाने के लिए पीड़ितों और उनके परिवारों को जिन मुश्किलातों का सामना करना पड़ता है, उनका विवरण दिया गया है।
रपट जो मुद्दे उठाती है, उनमें से कुछ इस प्रकार हैं:
रिपोर्ट की शुरुआत में कश्मीर में सुरक्षाबलों द्वारा बिना किसी भय के किए जा रहे मानवाधिकार उल्लंघनों का विवरण दिया गया है।
रिपोर्ट में कहा गया है कि सन् 1990 से 2011 की 21 वर्ष की अवधि में राज्य सरकार के आंकड़ों के अनुसार, घाटी में 43,000 लोग हिंसा में मारे गए। इनमें से 21,323 अतिवादी बताए जाते हैं, जिन्हें सुरक्षाबलों ने मार गिराया। वहां सक्रिय अतिवादियों के शिकार 13,226 नागरिक बने, जो किसी भी हिंसात्मक गतिविधि में शामिल नहीं थे।
सरकारी आंकड़ों के अनुसार, 5,359 सुरक्षाकर्मी, अतिवादियों के हाथों मारे गए और 3,642 नागरिक, सुरक्षाबलों के हाथों।
सशस्त्र बल (विशेषाधिकार) अधिनियम (एएफएसपीए) 1990 जैसे कानूनों द्वारा सुरक्षाबलों को असाधारण शक्तियां दे दी गई हैं, जिनके चलते वे कानून की हदों से बाहर जाकर लोगों की जान ले रहे हैं और मानवाधिकारों का उल्लंघन कर रहे हैं।
एएफएसपीए की धारा 7 के अनुसार, किसी भी सुरक्षाबल के सदस्य के विरूद्ध नागरिक अदालतों में मुकदमा चलाने के लिए केंद्रीय व राज्य सरकार की अनुमति अनिवार्य है।
राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर सुरक्षाबलों को ज्यादतियां करने की खुली छूट मिली हुई है।
जम्मू-कश्मीर में सेना के खिलाफ जो शिकायतें की गईं, उनमें से 96 प्रतिशत को ‘‘झूठे और बेबुनियाद’’ या ‘‘सैन्य बलों की छवि को खराब करने का प्रयास’’ बताकर खारिज कर दिया गया।
इस व्यवस्था के क्या परिणाम हुए हैं, इसका एक उदाहरण देते हुए रपट कहती है कि 17 वर्षीय जावेद अहमद मागरे, 30 अप्रैल, 2003 को अपने घर से गायब हो गया। उसके माता-पिता ने हर जगह उसकी तलाश की परंतु वह नहीं मिला। उसके घर के बाहर के फुटपाथ पर खून के धब्बे थे।
निकट के आर्मी कैम्प के अधिकारियों ने पहले तो जावेद के माता-पिता और परिवारवालों के प्रश्नों के गोलमोल उत्तर दिए। उसके बाद उन्हें बताया गया कि जावेद को पूछताछ के लिए ले जाया गया था और बाद में उसे सोरा मेडिकल इंस्टीट्यूट में मृत घोषित कर दिया गया।
माता-पिता को बाद में पता चला कि जावेद, सेना के साथ एक मुठभेड़ में घायल हो गया था और सेना का यह कहना था कि वह अतिवादी है।
जिला मजिस्ट्रेट द्वारा की गई जांच में यह सामने आया कि जावेद अतिवादी नहीं था और सेना उसकी मौत की परिस्थितियों के संबंध में जो जानकारी दे रही थी, वह झूठी थी।
उसके माता-पिता ने केंद्रीय रक्षा मंत्रालय से एएफएसपीए की धारा 7 के अंतर्गत दोषी अधिकारियों पर मुकदमा चलाने की अनुमति मांगी।
एक लंबे इंतज़ार के बाद, सन 2012 में रक्षा मंत्रालय से उन्हें अपने अनुरोध पत्र का उत्तर प्राप्त हुआ, जिसमें मुकदमा चलाने की अनुमति देने से इंकार करते हुए कहा गया था कि
‘‘…जो व्यक्ति मारा गया वह अतिवादी था और उसके पास से हथियार और असलाह बरामद हुए थे।’’
दुर्भाग्यवश, यह ऐसा एकमात्र मामला नहीं है जिसमें मुकदमा चलाने की अनुमति देने से इंकार कर दिया गया हो।
रक्षा और गृह मंत्रालय, जो क्रमशः सेना व आंतरिक सुरक्षाबलों के कर्मियों पर मुकदमा चलाने की अनुमति देते हैं, या तो ऐसी अनुमति देने से इंकार कर देते हैं या आवेदनों का बिना कोई कारण बताए कोई उत्तर ही नहीं देते।
एएफएसपीए उसी तरह का कानून है, जिसका इस्तेमाल अंग्रेज़ हमारे देश में किया करते थे ताकि राज्य द्वारा की जा रही हिंसा को कानूनी चुनौती न दी सके।
सरकार और संयुक्त राष्ट्रसंघ द्वारा गठित कई समितियों ने एएफएसपीए को अत्यंत सख्त और भयावह कानून बताया है, जो सुरक्षाबलों को बिना किसी कानूनी प्रक्रिया का पालन करे, लोगों की जान लेने का अधिकार देता है।
यह कई बार कहा जा चुका है कि एएफएसपीए के कारण घाटी में हिंसा की संस्कृति ने अपने पैर पसार लिए हैं और वहां राज्यतंत्र की जवाबदेही और पारदर्शिता के सिद्धांतों का खुलेआम उल्लंघन हो रहा है। विभिन्न समितियों ने इस कानून में बदलाव से लेकर उसे रद्द किए जाने तक की सिफारिशें की हैं।
एमनेस्टी रिपोर्ट में जो एक अन्य महत्वपूर्ण प्रश्न उठाया गया है वह यह है कि चूंकि सारे मुकदमे सैन्य अदालतों में चलाए जाते हैं इसलिए नागरिकों को इनके निर्णयों के खिलाफ अपील करने का विकल्प उपलब्ध नहीं होता।
भारत का संविधान, सैन्य न्यायालयों द्वारा दिए गए निर्णयों को उच्चतम न्यायालय के असाधारण अपीलीय अधिकारक्षेत्र (विशेष अनुमति याचिका) से बाहर रखता है। इस कारण, सैन्य अदालतों के निर्णयों को उच्चतम न्यायालय में भी चुनौती नहीं दी जा सकती।
सैन्य व सुरक्षाबलों पर लगाए गए ज्यादतियों के आरोपों की जांच इन्हीं बलों के अधिकारी करते हैं।
जाहिर है यह जांच निष्पक्ष नहीं हो सकती।
अंतर्राष्ट्रीय कानून के अंतर्गत, किसी भी अपराध की जांच किसी स्वतंत्र एजेंसी द्वारा की जानी चाहिए अर्थात ऐसी एजेंसी द्वारा, जिस पर कथित अपराध में शामिल होने का आरोप न हो।
भारतीय सेना के मानवाधिकार सेल के अनुसार, सन 2011 तक सेना के खिलाफ मानवाधिकार उल्लंघन की शिकायतों में से 96 प्रतिशत खारिज कर दी गईं।
सेना के अनुसार, सन 1993 से लेकर 2011 तक उसे मानवाधिकार उल्लंघन की 1,532 शिकायतें प्राप्त हुईं (995 जम्मू-कश्मीर से, 485 उत्तरपूर्वी राज्यों से और 52 अन्य राज्यों से)। इनमें से 1,508 की जांच की गई और 2011 तक 24 मामलों की जांच लंबित थी।
जम्मू-कश्मीर से प्राप्त 995 शिकायतों में से 986 की जांच की गई और 9 शिकायतें लंबित थीं।
सेना का कहना है कि उसने 986 में से 961 शिकायतों को झूठा और आधारहीन पाया। जिन 25 मामलों में शिकायतें सही पाई गईं उनमें 129 सैन्यकर्मियों को दोषी पाया गया और सज़ा दी गई।
रपट में सैन्य न्याय व्यवस्था की कमियों को उजागर किया गया है।
सेना में चार प्रकार के कोर्ट मार्शल होते हैं: जनरल कोर्ट मार्शल, डिस्ट्रिक्ट कोर्ट मार्शल, समरी जनरल कोर्ट मार्शल और समरी कोर्ट मार्शल।
इन सभी कोर्ट मार्शलों के सदस्य सेना के अधिकारी होते हैं अर्थात वे अपना काम स्वतंत्रतापूर्वक नहीं कर सकते।
कोर्ट मार्शल कार्यवाहियों की संविधान के अनुच्छेद 32 के अंतर्गत उच्चतम न्यायालय और अनुच्छेद 226 के अंतर्गत उच्च न्यायालयों द्वारा न्यायिक समीक्षा की जा सकती है।
सिद्धांतः कोर्ट मार्शल के किसी भी निर्णय को अनुच्छेद 32 या 226 के तहत रिट याचिका दायर कर चुनौती दी जा सकती है। परंतु अब तक ऐसा एक भी ज्ञात मामला नहीं है, जिसमें जम्मू-कश्मीर के किसी नागरिक ने रिट याचिका दायर कर कोर्ट मार्शल के निर्णय को चुनौती दी हो।
सैन्य न्यायालयों के स्वतंत्रतापूर्वक कार्य न कर पाने के जो नतीजे होते हैं, उनका विवरण देते हुए रपट में मुश्ताक का उदाहरण दिया गया है।
मुश्ताक अहमद हज्जाम, श्रीनगर के नोहाटा से 17 अगस्त, 1990 को एक स्थानीय मस्जिद में नमाज़ पढ़कर लौट रहा था जब उस पर सीआरपीएफ के एक जवान ने गोली चला दी। वह गंभीर रूप से घायल हो गया। परिवारजनों ने एफआईआर दर्ज करवाई।
सीआरपीएफ ने अपनी रपट में कहा कि जवान ने ‘आत्मरक्षा’ में गोली चलाई थी। पुलिस ने अपनी जांच में यह पाया कि जवान के खिलाफ सैन्यबल (जम्मू-कश्मीर) विशेषाधिकार अधिनियम की धारा 7 के अंतर्गत मुकदमा चलाए जाने के पर्याप्त आधार हैं। पुलिस को इस नतीजे पर पहुंचने में 6 साल लग गए। परंतु सीआरपीएफ की कोर्ट ऑफ इंक्वायरी और भारत सरकार यह कहती रही कि आरोपी के खिलाफ कोई आपराधिक मामला नहीं चलाया जा सकता और यह भी कि मामले की सुनवाई नागरिक अदालतें नहीं कर सकतीं।
मुश्ताक का परिवार आज भी न्याय पाने का इंतज़ार कर रहा है।
रपट के अनुसार, सेना व केंद्रीय सुरक्षाबलों की ज्यादतियों के शिकार लोगों की न्याय पाने की राह में पहली बाधा होती है पुलिस की शिकायत दर्ज करने में आनाकानी। यदि शिकायत दर्ज कर भी ली जाए तब भी पुलिस अदालतों द्वारा आदेश दिए जाने तक कोई कार्यवाही नहीं करती। अदालतों में मामले लंबे खिचते जाते हैं।
सेना व सुरक्षाबल, पुलिस की जांच में सहयोग नहीं करते। उनके सदस्य पूछताछ के लिए उपस्थित नहीं होते और ना ही पुलिस को हथियारों व असलाह और सुरक्षाकर्मियों की तैनाती के स्थानों से संबंधित रिकार्ड उपलब्ध करवाया जाता है। इसके कारण कई लोगों को न्याय नहीं मिल पाता।
कश्मीर में जो हालात हैं, उसके सबसे बड़े शिकार हैं उन लोगों के परिवार जो अचानक गायब हो जाते हैं या सुरक्षाबलों द्वारा जिन्हें मार डाला जाता है। उनके प्रकरणों की जांच की प्रगति के संबंध में परिवारजनों को कोई जानकारी नहीं दी जाती। पुलिस अधिकारी अक्सर उनसे मिलने से भी इंकार कर देते हैं। इसके अतिरिक्त, उन्हें आर्थिक परेशानियां भी झेलनी पड़ती है।
अक्सर सुरक्षा बलों के हाथों मारा जाने वाला व्यक्ति परिवार का एकमात्र कमाने वाला सदस्य होता है।
मुआवज़ा मिलने की प्रक्रिया बहुत कठिन और लंबी है। संबंधित अधिकारियों द्वारा यह दबाव बनाया जाता है कि मुआवजे के बदले परिवार को अपनी शिकायत वापिस लेना होगी।
कई लोग इस कारण से मुआवजा नहीं लेते। इसके अलावा, आर्थिक सहायता पाने की एक शर्त यह है कि मृत व्यक्ति का अतिवादियों से कोई संबंध नहीं होना चाहिए।
इस आरोप को गलत सिद्ध करना बहुत मुश्किल होता है। इसके अलावा मुआवज़ा पाने के लिए मृतक का मृत्यु प्रमाणपत्र प्रस्तुत करना अनिवार्य होता है।
यह मृत्यु प्रमाणपत्र उस स्थिति में नहीं बन पाता जब व्यक्ति गायब हो जाता है और उसकी लाश नहीं मिलती।
कानूनन किसी व्यक्ति को मृत तभी घोषित किया जाता है जब वह कम से कम सात साल की अवधि से गायब हो।
सिफारिशें
रपट में निम्न सिफारिशें की गई हैं:
* एएफएसपीए व दंड प्रक्रिया संहिता में राज्य व केंद्र सरकारों द्वारा मुकदमा चलाने की पूर्व अनुमति की अनिवार्यता का प्रावधान समाप्त किया जाए ताकि नागरिक अदालतों में स्वतंत्र और निष्पक्ष सुनवाई हो सके। जब तक यह नहीं होता तब तक पीड़ितों के परिवारों को मुकदमा चलाने की अनुमति संबंधी उनके आवेदन के बारे में सही व त्वरित जानकारी दी जानी चाहिए।
* कोर्ट मार्शलों की कार्यवाही और उनके निर्णयों के बारे में जानकारी सूचना के अधिकार के तहत उपलब्ध करवाई जानी चाहिए। संयुक्त राष्ट्र प्रिसिंपिल्स फॉर प्रिवेंशन ऑफ एक्स्ट्रा-लीगल, आरबिट्ररी एंड समरी एग्जीक्यूशन्स व अन्य अंतर्राष्ट्रीय समझौतों, जिन पर भारत ने हस्ताक्षर किए हैं, के अनुपालन में एएफएसपीए को समाप्त किया जाना चाहिए।
* मृतकों के परिवारों को मुआवजा प्राप्त करने के लिए असंभव शर्तों का पालन करने के लिए नहीं कहा जाना चाहिए और ना ही मुआवजे के बदले उन पर यह दबाव बनाया जाना चाहिए कि वे अपनी शिकायत वापस लें। मुआवजे की राशि इतनी होनी चाहिए कि संबंधित परिवार को हुए आर्थिक नुकसान की भरपाई हो सके।
अंत में हम केवल यह आशा कर सकते हैं कि सरकार इस रपट का संज्ञान लेगी और कश्मीर में व्याप्त असंतोष, हिंसा और आमजनों के आक्रोश से जनित परिस्थितियों के मद्देनज़र इसकी सिफारिशों पर अमल करेगी। कहने की आवश्यकता नहीं कि सालों से उनके मानवाधिकारों के उल्लंघन और उनके खिलाफ जारी हिसा से कश्मीरियों में भारी असंतोष व्याप्त है।
(मूल अंग्रेजी से अमरीश हरदेनिया द्वारा अनुदित)