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जनेश्वर मिश्र ने कई पीढ़ियों को राजनीतिक बहस की तमीज सिखाई

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hastakshep
23 Mar 2019

शेष नारायण सिंह

२२ जनवरी २०१० के दिन 76 साल की उम्र में जनेश्वर मिश्र ने इस दुनिया को अलविदा कहा। अपने प्रिय शहर  इलाहाबाद में उन्होंने अंतिम सांस ली। सुबह अचानक तबीयत बिगडऩे पर उन्हें लखनऊ के पी.जी.आई. ले जाने की सलाह दी गई क्योंकि उन के ऊपर ब्रेन हैमरेज का अटैक हुआ था। शहर से बाहर भी नहीं निकल पाए थे कि आखरी वक्त आ गयाऔर  समाजवादी राजनीति के शलाका पुरूष ने हमेशा के लिए कूच कर दिया और इस तरह से उसी इलाहाबाद में उन्होंने अपने आपको समाहित कर दिया जहां की क्षिति, जल, पावक और वायु उनके रोम-रोम में समाया हुआ था।

जनेश्वर मिश्र ने मूर्तिभंजन की कला की  बुनियादी समझ से हमारी पीढी के बहुत सारे लोगों को अवगत कराया था. किसी भी विचार धारा को नेता के कहने पर स्वीकार कर लेने की बात के वे सख्त विरोधी थे . वे इतने बड़े  इंसान थे कि अपना विरोध करने वालों को भी प्रोत्साहित करते थे. आज देश में कोई भी ऐसा राजनेता नहीं है जिसको उसके सामने बैठ कर ललकारा जाय और वह बहस की प्रणाली से अपना बचाव करे . अब तो विरोध करने वालों को लाठी  दंडों से  ठीक किया जाता है . मैंने पचासों बार जनेश्वर मिश्र की किसी भी बात को उनके सामें बैठकर गलत साबित करने की कोशिश की है  लेकिन उनकी तर्क शक्ति इतनी धार दार थी कि उनकी बात मानना पड़ता था .

जनेश्वर मिश्र की मृत्यु के साथ की समाजवादी आंदोलन की उस परम्परा का पटाक्षेप हो गया जिसमें गप के जरिये सभी विषयों पर चर्चा होती थी। डॉ. लोहिया भारतीय राजनीति की इस पंरम्परा के आदि पुरूष थे। दिल्ली में लोहिया के बाद मधु लिमये ने उस पंरम्परा को जारी रखा था। मधु जी के बाद जनेश्वर मिश्र के यहां पूरे देश से आए समाजवादियों का मिलन स्थल बना था। दो साल पहले वह उजड़ गया. जनेश्वर मिश्र समाजवादियों की उस पंरम्परा के प्रतिनिधि थे फकीरी जिसका स्थाई भाव है। इलाहाबाद में बी.ए. की पढ़ाई के लिए दाखिला लिया लेकिन ऐसी पढ़ाई शुरू की कि कभी कोर्से पूरा ही नहीं हुआ. वहां से एल एल बी आदि की भी पढाई की लेकिन कभी इलाहाबाद नहीं छूटा .वहां से कभी छुट्टी  ही नहीं मिली और पांच दशक बाद अपना नाम ही कटवा कर विदा हो गए.

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इंटरमीडिएट के छात्र के रूप में ही जनेश्वर मिश्र ने यह सबूत दे दिया था कि वे संघर्ष के लिए ही पैदा हुए हैं। बलिया में जब उन्हें पता लगा कि उपस्थिति कम होने की वजह से परीक्षा नहीं दे सकते तो इलाहाबाद आकर बोर्ड के अधिकारियों से मिले। जब यहां भी काम नहीं बना तो लखनऊ जाकर शिक्षामंत्री संपूर्णानंद से मिलकर उत्तर प्रदेश के उन सभी छात्रों को इंटर परीक्षा में शामिल होने की अनुमति का आदेश पारित करवाया जिनकी उपस्थिति कम थी। पचास के दशक से ही इलाहाबाद और बाकी उत्तर प्रदेश के सभी समाजवादी आंदोलनों में जनेश्वर मिश्र के हस्ताक्षर साफ नजर आते थे। समाजवादी नेताओं की एक बड़ी फेहरीस्त है जो जनेश्वर मिश्र के कामरेड रहे चुके है। मुलायम सिंह यादव, बृज भूषण तिवारी, मोहन सिंह, जनार्दन द्विवेदी, सत्यदेव द्विवेदी आदि सभी उनके साथी थे। गैर कांग्रेसवाद की डॉ. लोहिया की राजनीतिक सोच को अमली जामा पहनाने की गरज से 1963 में जो चार उपचुनाव हुए थे उसमें फर्रूखाबाद वाला चुनाव डॉ. लोहिया ने खुद लड़ा था। पूरे देश के समाजवादी वहां जमा हुए। इलाहाबाद विश्वविद्यालय और उत्तर प्रदेश के नौजवानों की अगुवाई जनेश्वर ने की थी।

जब उन्होंने जवाहर लाल नेहरू की बहन विजय लक्ष्मी पंडित को फूलपुर संसदीय क्षेत्र में चुनौती दी तो पूरी दुनिया के प्रगतिशील लोगों की नजर उस चुनाव पर थी। संयुक्त राष्ट्र के राजदूत बनने के चक्कर में विजय लक्ष्मी पंडित ने इस्तीफा  दिया तो कांग्रेस ने केशव देव मालवीय को फूलपुर उपचुनाव के 1969 में उम्मीदवार बनाया। वहां जनेश्वर मिश्र न्र उनको घेरा और पराजित किया .उनकी जीत का जश्न पूरी दुनिय के प्रगतिशीलों ने मनाया था. प्रधान मंत्री इंदिरा गाँधी की परिवार की सीट पर उनको शिकस्त देककर जनेश्वर ने १९७७ की  कांग्रेस की पराजय की बुनियाद रख दी थी. यह समय लोकसभा में बहसों को भी स्वर्ण युग है। हरि विष्णू कामथ, मधुलिमये, ज्योतिर्मय बसु, अटल बिहारी वाजपेयी, श्याम नंदन मिश्र ,जनेश्वर मिश्र सभी विपक्षी बेंचों पर बैठते थे और इंदिरा गांधी की सरकार को सही विपक्ष मिलता था।

इमरजेंसी में जेल यात्रा काटने के बाद जब वे 1977 में फूलपुर से चुनकर आए तो जनता पार्टी की सरकार में मंत्री बने। वैसे मंत्री तो वे 1989, 1990 और 1996 में भी बनाए गए लेकिन मंत्री पद का उन पर कोई असर नहीं पड़ता था। गंभीर से गंभीर राजनतिक विषयों पर बातचीत के जरिए विमर्श करना उनकी फितरत थी। समाजवाद में भी उन्होंने पाखंड का हमेशा विरोध किया और पूंजीवादी समाजवाद को कभी बर्दाश्त नही किया। जीवन के अंतिम दिनों में उन्हें अपनी पार्टी के एक नेता की तल्ख बातों का भी सामना करना पड़ा लेकिन इस रिर्पोटर को उन्होंने जो बात ऑफ दि रिकार्ड बताई थी। उससे साफ है कि वे बिना मतलब की टिप्पणी की परवाह नहीं करते थे। बृज भूषण तिवारी, मुलायम सिंह यादव और राम गोपाल यादव के खिलाफ वे कोई भी उल्टी सीधी बात बर्दाश्त नहीं कर पाते थे। आखरी कुछ वर्षो मे मिठाई खाना मना था लेकिन साथ बैठे लोगों को जरूर खिलवाते थे और थोड़ा सा खुद भी चख लेते थे। उनकी महानता में बाल सुलभ सादगी थी जिसकी वजह से बड़ा से बड़ा और मामूली से मामूली आदमी उन्हें अपना मानता था।

जनेश्वर मिश्र के जाने के दो साल बाद लगता है कि पता नहीं कितने युग हो  गए हैं .आम आदमी और समाजवादी राजनीति की एक बहुत महत्वपूर्ण कड़ी  कहीं खो गयी . लेकिन  समय तो अपनी गति से चलता ही रहेगा ..

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