तराई में नदियों से तबाही रोकने के लिए फिर चलेगा अभियान
लखीमपुर खीरी। उत्तर प्रदेश का तराई क्षेत्र पीलीभीत से लेकर कुशीनगर तक फैला हुआ है। यह क्षेत्र वनाच्छादित भी रहा है और यहाँ नदियोँ का भी जाल बिछा हुआ है।
नेपाल सीमा से सटा होने और नेपाल के मित्र राष्ट्र होने के कारण खुली सीमा के चलते आजादी के बाद सुरक्षा की दृष्टि से पं. नेहरू और पंत ने यहाँ कालोनियल स्कीम चलाकर जमीनें देकर लोगोँ को बसाना शुरू किया।
आबादी बढ़ने के साथ ही जँगलोँ का कटान भी शुरू हुआ। शाल के जँगलोँ से लकड़ी की तस्करी, भूमाफियाओँ द्वारा जँगल काट कर वन विभाग की जमीनों पर कब्जा और नदियोँ के किनारे की जमीनोँ पर खेती…जिसके कारण बारिश मेँ भू-क्षरण होकर नदियोँ की तलहटी मे सिल्ट जमने की प्रक्रिया तेज हुई, नदियोँ की जलग्रहण क्षमता घटनी शुरू हुई और तराई जीवन रेखा समझी जाने वाली नदियों ने ही तराई में तबाही मचानी शुरू कर दी।
नदियोँ में जलग्रहण क्षमता कम होने से पहाड़ी नदियों से आने वाले जल या डैम से छोड़े गए लाखों क्यूसेक पानी के प्रवाह को तराई की नदियोँ ने समाहित करना बंद कर दिया और संपूर्ण तराई मेँ जल प्लावन और नदियोँ के भू-कटान ने पूरे गाँव के गाँव अपने आगोश में लेना शुरु किया। प्रतिवर्ष हजारो लोग बेघर होकर सडकों के किनारे छप्पर डाल कर या प्लास्टिक के तिरपाल लगा कर रहने लगे। हजारों हेक्टेयर फसलें बरबाद होने लगीं, हजारों बेजुबान जानवर और बेबस इंसान इस तबाही की भेंट चढ़ने लगे लेकिन इस तबाही को रोकने के कोई के कोई सार्थक प्रयास आज तक नहीं शुरू किए गए और ना ही विस्थापितोँ के पुनर्वास की कोई ठोस योजना बनाई गई।
नदियोँ के भू-कटान पर रोक लगाने के लिए अभी तक सिर्फ कटानस्थल पर ठोकरें बनाने का बंदोबस्त किया जा रहा है जो अस्थाई समाधान है। इसमेँ प्लास्टिक की यूरिया – डीएपी – सीमेँट आदि की बोरियों का इस्तेमाल किया जाता था लेकिन इस बंदोबस्त मेँ इस्तेमाल होने वाली बोरियोँ की अल्पायु देखते हुए तीन साल पहले निजी कंपनी रिलायंस ने प्रवेश किया और प्लास्टिक के जी.ई.सी. बैग बनाने शुरू किए जिनमें रेत भरकर ठोकरे बनने लगी। लेकिन गंगा फ्लड कंट्रोल कमीशन पटना के अभियंताओँ और अधिकारियोँ ने स्थलीय जाँच में प्रदेश सरकार के बाढ़ खंड द्वारा करवाए जाने वाले कामों में ढेरों अनियमितताएँ पाईँ।
आज इस तबाही को रोकने के लिए जरूरत नदियोँ की सिल्ट साफ़ करवाकर उनकी जलग्रहण क्षमता बढ़ाना, दसियोँ किलोमीटर रास्ता बदल चुकी नदियोँ को उनके पुराने घाटो पर वापस ले जाना, पाट चौड़े करना, चौड़े तटबंध बनाकर उन पर सघन वृक्षारोपण, नेपाल की नदियों से इधर आने वाले पानी पर नियंत्रण के लिए बातचीत आदि तात्कालिक जरूरतें हो गई हैं।
इसमेँ आज सबसे बड़ी और पहली जरूरत विस्थापितोँ के पुर्नवास की है। इन सब मुद्दोँ पर तीस साल पहले भी इन पँक्तियोँ के लेखक द्वारा तराई आंदोलन की शुरूआत की जा चुकी है। राजनीतिक रूप से तराई क्रांति दल का गठन भी हुआ है किंतु संसाधनोँ के अभाव के चलते ये प्रयास अंजाम तक नहीं पहुँच सके।
अब इस अभियान को पुर्नजीवित करने के प्रयास फिर से शुरू किए गए हैं। इस मुहिम मेँ सीतापुर के बाढ़ कटान वाले रेउसा के गाँजरी क्षेत्र को भी जोड़ा गया है। इस क्षेत्र के उर्जावान युवा कार्यकर्ता साथी उत्कर्ष अवस्थी के नेतृत्व मेँ अभियान की कमान संभालने को तैयार हुए हैं। बैठकेँ भी आयोजित की जा रही हैँ और लोगोँ, सँगठनोँ से भी बातचीत शुरू हुई है। उम्मीद है कि निकट भविष्य मेँ यह अभियान एक नए रूप मेँ सामने आ सकेगा जो हजारोँ पीड़ितोँ के लिए इस अभियान को किसी सार्थक परिणाम तक पहुँचाने मेँ कामयाब होगा।
– रामेंद्र जनवार
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