सत्ता की अंधी गली के अलावा कुछ नहीं हो सकती विचारधारा और सिद्धान्त विहीन राजनीति की मंजिल
‘आप के नेता कांग्रेस के मौसेरे, भाजपा के चचेरे और कॉरपोरेट के सगे भाई हैं’ से आगे की कड़ी...
कॉरपोरेट पॉलिटिक्स की नई बानगी-3
प्रेम सिंह
हाल में आप पार्टी के एक नेता को यूजीसी की समिति से निकाले जाने का प्रकरण मीडिया में काफी चर्चित रहा।
भारत में कुकुरमुत्तों की तरह निजी विश्वविद्यालय खुल गये हैं। खुद देश के राष्ट्रपति प्राईवेट विश्वविद्यालयों का विज्ञापन करते हैं। विदेशी विश्वविद्यालयों को लाने की पूरी तैयारी है।
भारत के राज्य और केंद्रीय विश्वविद्यालयों को बरबाद करने की मुहिम सरकारों ने छेड़ी हुई है। इसका नवीनतम उदाहरण दिल्ली विश्वविद्यालय में चार साला बीए प्रोग्राम (एफवाईयूपी) को थोपना है। ऐसे में सरकार की समितियों से बाहर आकर शिक्षा पर होने वाले नवउदारवादी हमले का डट कर मुकाबला करने की जरूरत है। कई संगठन और व्यक्ति पूरे देश में यह काम कर रहे हैं।
आप नेता को कारण बताओ नोटिस मिलने पर बिना जवाब दिये यूजीसी की समिति की सदस्यता से इस्तीफा देना चाहिए था और अपनी पार्टी स्तर पर शिक्षा के निजीकरण व बाजारीकरण के विरोध में जुट जाना चाहिए था।
लेकिन उन्होंने इसे मीडिया इवेंट बना दिया और सवाल उठाया कि अगर वे कांग्रेस की सदस्यता लेते तो क्या सरकार तब भी उनकी यूजीसी समिति की सदस्यता पर सवाल उठाती? हालाँकि उन्हें सरकार से पूछना ही था तो यह पूछते कि समाजवादी जन परिषद (सजप) का सदस्य रहते वे समिति में रह सकते थे, तो आप पार्टी का सदस्य रहते क्यों नहीं रह सकते?
समिति का सदस्य बनाए जाते समय वे जिस राजनीतिक पार्टी के सदस्य थे, उसका नाम छिपा ले जाने का यही अर्थ हो सकता है कि वे करीब दो दशक पुरानी सजप की सदस्यता को गम्भीरता से नहीं लेते थे।
दरअसल, सरकारी संस्थाओं की सदस्यता, सभी जानते हैं, सरकारी नजदीकियों से मिलती है। विद्वता हमेशा उसकी कसौटी नहीं होती। खुद विद्वता की कसौटी आजकल एक-दूसरे को ऊपर उठाना और नीचे गिराना हो गयी है।
अगर किसी विद्वान की किसी समिति की सदस्यता चली जाती है तो उसमें बहुत परेशान होने की बात नहीं है।
परेशानी की बात यह है कि विभिन्न समितियों में विद्वानों की उपस्थिति के बावजूद सरकारें निजीकरण को हरी झंडी दिखा रही हैं।
ऐसे में कोई सरोकारधर्मी विद्वान किसी समिति में कैसे रह सकता है?
कहा जाता है कि अपने पर रीझे रहने वाले लोग खुद माला बनाते हैं और खुद ही अपने गले में डाल लेते हैं। आप के नेता, जो पहले अलग-अलग चैनलों और सरकारों के लिये सर्वे करते थे, अपने लिये सर्वे करके जीत के दावे कर रहे हैं। राजनीतिक शालीनता की सारी सीमाएं उलांघते हुये विरोधी पार्टियों के नेताओं को बेईमान और अपने को ईमानदार प्रचारित कर रहे हैं। उन्होंने विरोधी पार्टियों के चुनाव चिन्हों को भी विरूपित किया है, जिसकी शिकायत एक पार्टी ने चुनाव आयोग से की है।
इतना ही नहीं, राष्ट्रीय ध्वज तिरंगे को उन्होंने अपनी राजनीतिक महत्वाकाँक्षाओं की पूर्ति का जरिया बना लिया है।
किराए के कार्यकर्ता तिरंगा लहराते हैं और फेंक कर चल देते हैं।
दरअसल, ये आत्ममुग्ध लोग हैं। आत्ममुग्धता - ‘हम सबसे अच्छे हैं’ - से ग्रस्त लोगों का मनोविश्लेषणात्मक अध्ययन बड़ा रोचक हो सकता है। आत्ममुग्ध लोग अपने होने को चमत्कार की तरह लेते हैं, और मानते हैं कि उनका किया हर पाप भी पवित्र होता है। वे अपने गुणग्राहक आप होते हैं और पतन की अतल गहराइयों में गिरने के बावजूद उदात्तता की भंगिमा बनाए रहते हैं। दुनिया की सारी दूध-मलाई मारने के बावजूद वे अपने को सारी दुनिया द्वारा सताया हुआ जताते हैं। दुनिया और भारत के साहित्य में आत्ममुग्ध (नारसिसिस्ट) नायकों की लंबी फेहरिस्त मिलती है। वास्तविकता में वे कई जटिल कारणों से मानसिक रोगी होते हैं, लेकिन भ्रम समस्त रोगों का डॉक्टर होने का पालते और फैलाते हैं।
आईएसी, भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन और आप में आत्मव्यामोहित ‘नायकों’ की फेहरिस्त देखी जा सकती है।
हम परिघटना पर हम केवल इतना कहना चाहते हैं कि तानाशाही और फासीवाद का रास्ता यहीं से शुरू होता है।
मीडिया की मार्फत अफवाहबाजी का जो सिलसिला इन महाशयों ने शुरू किया, नरेंद्र मोदी उसी में से निकल कर आया है।
भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन के दौरान गांधी का काफी नाम लिया गया।
अन्ना हजारे को, जिन्होंने जंतर-मंतर से पहली प्रशंसा हजारों नागरिकों का राज्य-प्रायोजित नरसंहार करने वाले गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी की की, लगातार गांधीवादी कहा और लिखा जाता रहा। अरविंद केजरीवाल अपने को उन्हीं का शिष्य कहते हैं। इसीलिये ‘गुजरात का शेर’ से ‘भारत माता का शेर’ बने नरेंद्र मोदी के खिलाफ आज तक कुछ नहीं लिखा या बोला है। कश्मीर पर दिये गये बयान की प्रतिक्रिया में प्रशांत भूषण पर हमला अन्ना हजारे और रामदेव के भक्तों ने ही किया था।
अफजल गुरु के पार्थिव शरीर को श्रीनगर से आयी महिलाओं को सौंपने की मांग को लेकर प्रैस क्लब में निश्चित की गयी प्रैस वार्ता नहीं होने देने वाले हुड़दंगियों में आप के कार्यकर्ता भी शामिल थे।
आप में प्रतिक्रियावादी लोगों की भरमार है। आप के नेताओं को चुनाव जीतना है तो उन्हें पुचकार कर रखना होगा।
गांधी साधन और साध्य को अलग करके नहीं देखते थे। इस पार्टी के नेता चुनाव जीतने के लिये कुछ भी करने की नीयत से परिचालित हैं।
वास्तव में इस पार्टी के निर्माण और लक्ष्य दोनों में कपट समाया हुआ है।
भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन के दौरान राजनीति और नेताओं के प्रति गहरी घृणा का प्रचार किया गया। हालांकि नीयत पहले से ही राजनीतिक पार्टी बनाने की थी, जो अन्ना हजारे की अनिच्छा के बावजूद बना ली गयी।
यह भी सुना गया कि केजरीवाल रामलीला मैदान में अन्ना का अनशन खत्म करने के पक्ष में नहीं थे। क्योंकि अनशन पर अन्ना की मृत्यु हो जाने की स्थिति में केजरीवाल अन्ना की जगह लेकर राजनीति की उड़ान भर सकते थे। वे पहले ही डरे हुये थे कि बाबा रामदेव राजनीति की दौड़ में आगे न निकल जाएं।
इस सारे दंद-फंद का लक्ष्य भी कपट से भरा था - नवउदारवाद की मार से बदहाल गरीब भारत की आबादी को उससे लाभान्वित होने वाले अमीर भारत के पक्ष में हांका जा सके।
आप के प्रचार की शैली कांग्रेस जैसी है।
जिस तरह पूरी कांग्रेस राहुल गांधी की नेतागीरी जमाने के लिये कारिंदे की भूमिका निभाती है, आप के नेता-कार्यकर्ता केजरीवाल के कारिंदे बने हुये हैं।
जिस पार्टी के शुरू में ही इस कदर व्यक्तिवाद हावी हो, सत्ता मिलने पर वह और मजबूत ही होगा। आप पार्टी में व्यक्तिवाद के चलते एक टूट हो चुकी है। पार्टी आगे चली तो और टूटें भी हो सकती हैं।
व्यक्तिवाद पूँजीवादी मूल्य है।
भारत की राजनीति में यह सामंतवाद के साथ मिलकर परिवारवाद, वंशवाद, क्षेत्रवाद जैसे गुल खिलता है।
जैसे बड़ी पार्टियाँ अंधाधुंध प्रचार करके अपने नेता के नाम की पट्टी मतदाताओं की आंखों पर बांध देना चाहती हैं, वही रास्ता आप पार्टी के रणनीतिकारों ने अपनाया है। पोस्टर, बैनर, होर्डिंग के अलावा मोबाइल और नेट पर एक ही आदमी के नाम का प्रचार किया जा रहा है। वह भी सीधे मुख्यमंत्री के रूप में।
आप घर-दफ्तर में बैठे हैं, किसी कार्यक्रम में शिरकत कर रहे हैं, गाड़ी चला रहे हैं, आपके मोबाइल पर लिखित या रिकार्ड की गयी आवाज में अन्ना हजारे के शिष्य अरविंद केजरीवाल का मैसेज आ जायेगा।
अंधाधुंध प्रचार अंधाधुंध धन के बिना नहीं हो सकता। यानी ये ‘अच्छे’ और ‘ईमानदार’ लोग सीख दे रहे हैं कि राजनीति करनी है तो कांग्रेस और भाजपा से सीख लो!
लोकतंत्र में प्रचार का यह तरीका फासिस्ट रुझान लिये है, जिसमें केवल एक नेता की छवि मतदाताओं के ऊपर दिन-रात थोपी जाती है।
Save