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देश की असली समस्या नक्सली हैं या आदिवासी?

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hastakshep
08 Jun 2013
देश की असली समस्या नक्सली हैं या आदिवासी?

9 जून, बिरसा शहादत दिवस पर विशेष | Special on June 9, Birsa Martyrdom Day

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- ग्लैडसन डुंगडुंग-

25 मई, 2013 को छत्तीसगढ़ के सुकमा जिले में काँग्रेस की परिवर्तन यात्रा में हमला कर 27 लोगों की हत्या के बाद केन्द्र सरकार यह कह रही है कि नक्सलवाद देश की सबसे बड़ी समस्या है। मीडिया इस मुद्दे पर लगातार बहस करवा रहा है। कुछ विशेषज्ञ यह कह रहे हैं कि लाल गलियारा में थलसेना और वायुसेना उतारकर नक्सलियों को खत्म कर दिया जाये वहीं कुछ का मत है कि नक्सलियों के साथ वार्ता करना चाहिये

चर्चा यह भी हो रही है कि आदिवासियों पर अन्याय, अत्याचार एवम् उनके संसाधनों को लूटकर कॉरपोरेट घरानों को सौंपने की वजह से ही यह समस्या दिन-ब-दिन बढ़ती जा रही है।

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यहाँ सबसे आश्चार्यजनक बात यह है कि पूरे चर्चा में कहीं भी आदिवासी दिखायी नहीं देते हैं। ऐसा लगता है मानो इस देश में आदिवासियों को बोलने की आजादी ही नहीं है। चूँकि समस्या आदिवासियों से जुड़ी हुयी है इसलिये उनके सहभागिता के बगैर क्या इसका हल हो सकता है? लेकिन यहाँ पहले यह तय करना होगा कि देश की सबसे बड़ा समस्या नक्सली हैं या आदिवासी?

यहाँ यह समझना जरूरी होगा कि प्राकृतिक संसाधनों पर अपना अधिकार को लेकर आदिवासी लोग विगत 300 वर्षों से संघर्ष कर रहे हैं जबकि नक्सलवाद पिछले चार दशकों की देन है। आदिवासी योद्धा बाबा तिलका मांझी ने अँग्रेजों से कहा था कि जब जंगल और जमीन भगवान ने हमें वारदान में दिया है तो हम सरकार को राजस्व क्यों दे? लेकिन अँग्रेजी शासकों ने उनकी एक नहीं सुनी। फलस्वरूप, आदिवासी और अँग्रेजी शासकों के बीच संघर्ष हुआ।

13 जनवरी, 1784 को बाबा तिलका मांझी ने भागलपुर के कलक्टर ऑगस्ट क्लीवलैण्ड की तीर मारकर हत्या कर दी, वहीं अँग्रेजी सैनिकों ने भी आदिवासियों की हत्या की। अंततः अंग्रेजी सैनिकों ने बाबा तिलका मांझी को भी पकड़ कर चार घोड़ों के बीच बाँध दिया और फिल्मी शैली में भागलपुर ले जाकर हजारों की तादाद में इकट्ठी हुयी भीड़ के सामने आम जनता में भय पैदा करने के लिये बरगद के पेड़ में फाँसी पर लटका दिया। लेकिन आदिवासी जनता उनसे डरी नहीं और लगातार संघर्ष चलता रहा, जिसमें संताल हुल, कोल्ह विद्रोह, बिरसा उलगुलान प्रमुख हैं। फलस्वरूप, अँग्रेज भी आदिवासी क्षेत्रों पर कब्जा नहीं कर सके और उन्हें आदिवासियों की जमीन, पारम्परिक शासन व्यवस्था एवम् संस्कृति की रक्षा हेतु कानून बनाना पड़ा। लेकिन आजादी के बाद भारत सरकार ने इसे कोई सबक नहीं लिया। आदिवासियों के मुद्दों को समझने की कोशिश तो दूर, देश के प्रथम प्रधानमन्त्री जवाहरलाल नेहरू एवम् गृहमन्त्री सरदार बल्लभभाई पटेल ने एक षड़यन्त्र के तहत आदिवासी क्षेत्रों को आजाद भारत का हिस्सा बना लिया जबकि आदिवासी अपने क्षेत्रों को ही देश का दर्जा देते रहे हैं जैसे कि संताल दिशुम, मुंडा दिशुम या हो लैंड, इत्यादि।

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नेहरू ने तो आदिवासियों को यहाँ तक कह दिया था कि अगर आप तड़प रहे हैं तो देश के हित में तड़पो यानी अपनी जमीन, जंगल, खानिज, नदियों और पहाड़ों को हमें दे दो और देशहित के नाम पर तड़प-तड़प कर मर जाओ।

आजादी से अब तक आदिवासियों के बारे में बार-बार यही कहा जाता रहा है कि उन्हें देश की मुख्यधारा में लाना है। ऐसा इसलिये हुआ क्योंकि देश का बहुसंख्यक आबादी आदिवासियों को जंगली, अनपढ़ एवम् असभ्य व्यक्ति से ज्यादा स्वीकार करने के लिये तैयार ही नहीं है और अब उन्हें नक्सली कहा जा रहा है। वहीं तथाकथित मुख्यधारा में शामिल करने के नाम पर आदिवासियों को उनकी भाषा, संस्कृति, परम्परा, पहचान, अस्मिता और प्राकृतिक संसाधनों से बेदखल किया जा रहा हैं और उनका समतामूलक सभ्यता विनाश की दिशा में है इसलिये वे खुद को बचाने के लिये नक्सलियों की ओर रुख कर रहे हैं क्योंकि उन्हें यह लगने लगा है कि आधुनिक हथियारों से लैस भारतीय सैनिकों से वे तीन-धनुष के बल पर लड़ नहीं पायेंगे।

नक्सलवाद की उपज जमींदारों और खेतिहरों के बीच फसल के बँटवारे को लेकर हुयी या यो कहें कि भूमि सुधार इसके केन्द्र था यानी जो जमीन को जोते वहीं जमीन का मालिक हो।
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आजादी का भी सबसे बड़ा वादा भूमि सुधार ही था लेकिन आज की तारीख में भूमि सुधार सरकार और नक्सली दोनों के एजेण्डा से बाहर हो चुका है। अब दोनों की नजर प्राकृतिक संसाधनों पर टिकी हुयी है, जो देश के मानचित्र को देखने से स्पष्ट होता है कि यह वही क्षेत्र है जो आदिवासी बहुल है, प्राकृतिक संसाधनों से भरा पड़ा है और यह लाल गलियारा भी कहलाता है।

सरकार चाहती है कि आदिवासी गलियारा को लाल गलियारा बताकर खाली कर दिया जाये। उन्होंने इसके लिये दो लाख अर्द्धसैनिक बलों को लगा रखा है और पूरी तैयारी चल रही है कि इसे कैसे औद्योगिक गलियारा बनाया जाये।

देश के प्रधानमन्त्री डॉ. मनमोहन सिंह ने 2009 में संसद में यह कहा था कि खनिज सम्पदाओं से भरा क्षेत्र में नक्सलवाद के विस्तार से पूँजी निवेश प्रभावित हो सकता है। 1990 के दशक में नक्सलवाद दलितों तक सीमित था क्योंकि उच्च जाति के लोग दलितों पर अमानवीय अत्याचार करते थे। लेकिन आर्थिक उदारीकरण के बाद देश में विदेशी पूँजी निवेश बढ़ता गया और नक्सलवाद दलित बस्तियों से निकलकर आदिवासियों के गाँवों में पहुँच गया। इसी बीच झारखण्ड एवम् छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों की स्थापना हुयी जहाँ देश का अकूत खनिज सम्पदा मौजूद है। इन राज्यों की सरकारों ने औद्योगिक घरानों के साथ एम.ओ.यू. की झड़ी लगा दी है लेकिन आदिवासी समाज के बीच मानव संसाधन का विकास नहीं किया। फलस्वरूप, औद्योगीकरण आदिवासियों के विनाश का कारण बनता जा रहा है इसलिये वे इसका पूरजोर विरोध कर रहे हैं लेकिन राज्य सरकारों को इसे कोई फर्क नहीं पड़ा है। औद्योगिक नीति 2012 में झारखण्ड सरकार ने कोडरमा से बहरागोड़ा एवम् रांची से पतरातू तक फोर लेन सड़क के दोनों तरह 25-25 किलो मीटर की जमीन अधिग्रहण कर औद्योगिक गलियारा बनाने का प्रस्ताव किया है। लेकिन इस क्षेत्र के आदिवासी लोग कहाँ जायेंगे? इसी तरह छत्तीसगढ़ एवम् ओडिसा की सरकारों ने विदेशी पूँजी निवेश के बल पर खुद को आर्थिक रूप से उभरता राज्य घोषित कर दिया है।

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अगर झारखण्ड, छत्तीसगढ़ एवम् ओडिशा को देखा जाये तो नक्सलवाद की वजह से आदिवासी समाज को भारी क्षति हो रही है। झारखण्ड में 6000 निर्दोष आदिवासियों को नक्सली होने के आरोप में विभिन्न जेलों में डाल दिया गया है, वहीं छत्तीसगढ़ में 2000 एवम् ओडिसा में 2000 निर्दोष लोग जेलों में हैं। इसी तरह लगभग 1000 लोग फर्जी मुठभेड़ में मारे गये हैं एवम् 500 महिलाओं साथ सुरक्षा बलों ने बलात्कार किया है। वहीं 1000 लोगों को पुलिस मुखबिर होने के आरोप में नक्सलियों मार गिराया है और हजारों की संख्या में आम ग्रामीणों को नक्सलियों ने मौत के घाट उतार दिया है। कुल मिलकर कहें तो दोनों तरफ से आदिवासियों की ही हत्या हो रही है और उनका जीवन तबाह हो रहा है। यहाँ यह भी चर्चा करना जरूरी होगा कि बन्दूक की नोक पर नक्सलियों को खाना खिलाने, पानी पिलाने व शरण देने वाले आदिवासियों पर सुरक्षा बल लगातार अत्याचार कर रहे हैं लेकिन अपना व्यापार चलाने के लिये नक्सलियों को लाखों रूपये, गोला-बारूद और अन्य जरूरी समान देने वाले औद्योगिक घरानों पर कोई कानूनी कार्रवाई नहीं होती है। राज्य का दोहरा चरित्र क्यों?

देश में आदिवासियों के संवैधानिक, कानूनी एवम् पारम्परिक अधिकारों का घोर उल्लंघन हुआ है। पाँचवी अनुसूची के प्रावधान राज्यों में लागू नहीं है। वहीं आदिवासियों की जमीन बचाने हेतु बनाये गये कानूनों को लागू नहीं किया गया, जो न सिर्फ बिरसा मुण्डा और अन्य वीर शहीदों का अपमान है बल्कि भारतीय संविधान एवम् उच्च न्यायालय का अवमानना भी है, क्योंकि यह कानून संविधान के भाग-9 में शामिल किया गया है एवम् उच्च न्यायाल इसे सख्ती से लागू करने का आदेश दिया था। इसके साथ ट्राईबल सब-प्लान का पैसा भी दूसरे मदों में खर्च किया जा रहा है जो आदिवासी हक को लूटने जैसा है।

आदिवासियों की इस हालत के लिये उनके जनप्रतिनिधि ही सबसे ज्यादा जिम्मेदार हैं, जिन्होंने कभी भी ईमानदारी से उनके सवालों को विधानसभा एवम् संसद् में नहीं उठाया। फलस्वरूप, आज नक्सलवाद देश की सबसे बड़ी समस्या बन गयी है लेकिन आदिवासियों की समस्या कभी भी देश की समस्या नहीं बन सकी बल्कि आदिवासियों को ही तथाकथित मुख्यधारा की समस्या मान लिया गया है क्योंकि वे ही प्रकृतिक संसाधनों को पूँजीपतियों को सौंपना नहीं चाहते हैं और यही देश की सबसे बड़ा समस्या है।

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आदिवासियों के संघर्ष का इतिहास यह बताता है कि इनका संघर्ष ही प्रकृतिक संसाधनों - जल, जंगल, जमीन, खनिज और पहाड़ को बचाने के लिये है। चाहे यह संघर्ष आजादी से पहले अंग्रेजों के खिलाफ हो या वर्तमान शासकों के विरूद्ध। वे यह समझ चुके हैं कि प्रकृति में ही उनका अस्तित्व है इसलिये वे अपने संघर्ष से प्रकृति संसाधन एवम् स्वयम् को बचाना चाहते हैं।

ग्लैडसन डुंगडुंग Gladson Dungdung मानवाधिकार कार्यकर्ता और झारखंड ह्यूमन राईट्स मूवमेंट के महासचिव हैं। ग्लैडसन डुंगडुंग मानवाधिकार कार्यकर्ता और झारखंड ह्यूमन राईट्स मूवमेंट के महासचिव हैं।

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 भगवान बिरसा मुंडा ने उलगुलान से यही सन्देश दिया था कि ‘‘उलगुलान का अन्त नहीं’’। वे यह जानते थे कि आदिवासियों से उनका संसाधन लूटा जायेगा इसलिये उलगुलान ही उसका जवाब है।

वर्तमान परिप्रेक्ष्य में नक्सलवाद और आदिवासियों के समस्याओं का हल यही है कि उनके संसाधनों को न लूटा जाये, उनके बीच मानव संसाधन का बड़े पैमाने पर विकास हो, उनके बजट का हिस्सा ईमानदारी से उनके लिये खर्च किया जाये, संवैधानिक प्रावधान व कानून लागू किये जायें एवम् सबसे जरूरी यह है कि उन्हें बराबरी का दर्जा देकर आदिवासी दर्शन पर आधारित विकास प्रक्रियाओं को आगे बढ़़ाया जाये।

दूसरा समाधान यह है कि आदिवासियों को एक साथ खड़ाकर गोली मार दिया जाये या जेलों में बन्द कर दिया जाये और तीसरा रास्ता यह है कि प्राकृतिक संसाधनों को जल्द से जल्द खत्म कर दिया जाये क्योंकि जब तक आदिवासी जिन्दा रहेंगे वे अपने संसाधनों को आसानी से लूटने नहीं देंगे। इसलिये देश का सबसे बड़ा समस्या आदिवासी हैं, नक्सलवाद तो सिर्फ एक बहाना है।

ग्लैडसन डुंगडुंग मानवाधिकार कार्यकर्ता और झारखंड ह्यूमन राईट्स मूवमेंट के महासचिव हैं।

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