फिर वहींच आदिम जंगल की गंध है
जंगल की आदिम गंध में बसै हैं पुरखों के हकहकूक
ख्वाबों में मोहनजोदोड़ो या फिर हड़प्पा
वीरानगी फिर वही तन्हाई कयामत
लेकिन दिल में टोबा टेकसिंह फिर वही
नफरत कभी नहीं जीतती कोई जंग मुहब्बत के खिलाफ।
फिर वहींच आदिम जंगल की गंध है।
सहदों के पार कोई शहबाग जाग रहा है।
वनाधिकार पर बातें अब सिरे से बेमतलब हैं अबाध पूंजी के स्मार्टबुलेट मुक्त बाजार में।
शब्द अर्थ खो चुके हैं।
मर गया अखबार।
सारे अखबार मर गये हैं।
जनता का एफआईआर दर्ज कराने वाले सारे लोग जिंदा दफन है।
किसी के ख्वाबों में नहीं हैं हड़प्पा या मोहनजोदोड़ो।
भविष्य के अंतरिक्ष अभियान और मिसाइलों,परमाणु बमों के दरम्यान इंसानों का यह इकलौता मुल्क या हिरोशिमा है या पिर नागासाकी है और इतिहास के दरवाजे बंद हैं।
इतिहास की खिड़कियां भी बंद हैं।
भूगोल सरहदों का बेइंतहा जंगल है।
इस बियाबां में इंसानियत राह भटक गयी है।
सारे आदमखोर आजाद हैं।
सिर्फ खुले हैं हर दरवाजे, खुली है हर खिड़की अबाध महाजनी पूंजी के लिए।
अब सारी फसल सिर्फ सुखीलाला की है।
बेटों के सीने में मां की बंदूक गोलियां बरसा रही हैं अब भी।
मर गया है प्रिंट हमेशा हमेशा के लिए।
किसी सूअर बाड़े के भरोसे हमने खो दिये हैं सारे शब्द।
माध्यम सारे बेदखल हैं।
हम फिर से जंगल में हैं।
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जंगल राज है।
लेकिन जंगल के हक हकूक यकीनन नहीं है।
कोई रोमा और उनके साथी जंगल के हकहकूक के जेल गये तो रिहाई की खबर नहीं है।
जंगल के हकहकूक के लिए कनहर बांध पर लाशों का कालीन कोई बिछा है।
आदिवासी भूगोल में चांदमारी का दस्तूर चला है और नामालूम कि कौन कहां मरा है, मर रहा है या फिर मर जायेगा किसी दिन।
गोलियां हमारे भी इंतजार में हैं या नहीं, क्या मालूम।
गोलियां सिर्फ ब्लागरों को निसाना नहीं बनाता।
न सिर्फ सरहदों पर गोलियां चलती हैं।
नागरिकता संशोधित है।
नागरिकता बेदखल है।
वजूद फिर वहीं निराधार आधार।
अब डीएनए प्रोफाइल भी बन जायेगा।
कोई शख्स नहीं जो गोलियों से बच जायेगा।
नियमागिरि के आदिवासियों की जुबां कोई पढ़े लिक्खों की जुबां नहीं हैं। पूरे देश में फिर भी पत्थरों के हरुफ में उनका ही लिखा दीख रहा है दशों दिशाओं में कि खेत न छोड़ब हम।
जंग हमने हारे मोहनजोदोड़ो में।
निर्णायक हार थी हमारी हड़प्पा में।
हम उन्हीं लड़ाइयों में हारे लापता अश्वत्थामा है और जिसका वजूद उन जख्मों के सिवाय कुछ भी नहीं है।
हम लहूलुहान हैं और लहू का अता पता है ही नहीं।
सीना चीरकर गोलियां चल रही हैं धायं-धायं।
फिर भी हम बखूब जी रहे हैं।
हम चीख भी नहीं रहे हैं।
सारे शब्द लापता हैं।
जो शब्द बोलता बहुत है, वह दरअसल सिक्कों की खनक है।
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उसमें फिर कोई रूह है ही नहीं।
बीहड़ जंगल में फिर मेरा मोहनजोदड़ो आबाद हुआ है।
बीहड़ जंगल में फिर मेरा हड़प्पा आजाद हुआ है।
फिर वहींच निर्णायक लड़ाई है, जिसके इंतजार में मेरा बचपन जंगल रहा है।
फिर वहींच आदिम जंगल की गंध है।
सरहदों के पार कोई शहबाग जाग रहा है।
ख्वाबों में मोहनजोदोड़ो या फिर हड़प्पा
वीरानगी फिर वही तन्हाई कयामत
लेकिन दिल में टोबा टेकसिंह फिर वही
बचपन से हम पानियों के वाशिंदा हैं।
बचपन से हम ख्वाबों में जी रहे हैं।
बचपन से हम हवाओं के हम सफर हैं।
बचपन से हम डूब हैं मुकम्मल।
बचपन से हम मलबे के मालिक भी हैं
क्योंकि जनमजात हम फिर वही टोबा टेक सिंह हैं।
बंटवारे के हम वारिसान लावारिस हैं।
हम दर्द के वारिसान हैं।
हम मुहब्बत के वारिसान हैं।
तमाम साझा चूल्हों के वारिसान हैं हम।
देश जो तोड़े हैं, देश जो बेचे हैं, होंगे वाण अनेक उनके तुनीर में भी।
होंगे परमाणु बम उनके भी, सारे पहाड़ फिर भी हमारे हैं।
होगी मिसाइलें, युद्ध गृहयुद्ध के अनुभव हथियार संस्थागत जिहादी।
हम भी देश दुनिया जोड़ने पर आमादा हैं।
हम भी आखिर परिंदे हैं आग के
आग से जलकर भी जीने वाले लोग हैं हम
हमारे जख्मों के पूल जो चुनै हैं, बहारों का जलवा वे क्या जानै हैं
हम भी इंसानियत के नक्शे को मुकम्ल बनायेंगे यकीनन
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दहशतगर्दी के भूगोल और इतिहास के खिलाफ यकीनन
हाथ जो बढ़ायें, साथी होंगे वे तमाम हमसफर इस सफर में
कांरवा कहीं न कहीं से शुरु हो ही जाना है, बहुत देर भी नहीं है
होगा मुकम्मल बंदोबस्त फिर जनता बोलेगी कभी न कभी
जनता जब बोलेगी तब सारे स्पीकर लाउ़स्पीकर बंद होंगे
जनता बोलेगी और हजारों साल पुरानी वे जंजीरें टूटेंगी यकीनन।
ख्वाबों में मोहनजोदड़ो या फिर हड़प्पा
वीरानगी फिर वही तन्हाई कयामत
लेकिन दिल में टोबा टेकसिंह फिर वही
सबसे पहले, आप हमें माफ कर दें कि बेअदब भी हूं और बदतमीज भी हूं। देहाती हूं सर से पांव तलक।
बिना जाने बूझे, कोई भी जुबां देहातियों की जुबां होती है।
उन्हें न उच्चारण की परवाह होती है और न वर्तनी की तमीज।
सिर्फ दिल की जुबां होती हैं उनकी। हम उसी जुबं में बात करै हैं।
फर्क यह है कि वे बेहद कम बोलते हैं।
बल्कि खामोशी ही उनका असल मुल्क है।
लेकिन खामोशी जब भी टूटे उनकी, यूं समझिये कि कयामत आ जावै है। उस कयामत से डरियो। जो आने ही वाली है।
मेरे लिखे का मजमूं पर गौर करें, मुद्दों पर सोचें और मसलों को समझें, सिर्फ यही गुजारिश है।
हमें कोई कार न समझें बेकार।
कार से मुझे कोई खास मुहब्बत नहीं है और महानगरों में आवाजाही होती है जरूर, पेट के खातिर, रोटी-रोजी के वास्ते गैर मुल्क गैर देस में भी यूं घूमना फिरना होता है लेकिन हम लोगों के लिए देश बहुत भारी चीज है चूंकि हम लोग दरअसल देस के भदेस मधेशी लोग हैं।
अर्ज है कि जो कला साहित्य माध्यम गोमाता ब्राडिंग हुआ जाये, गाय से दिल का वास्ता होने के बावजूद उसमें हमारी कोई खास दिलचस्पी नहीं है और न हम लोग अंडे सेते लोग हैं।
गोमाता ब्रांडिंग अगर देहात और खेत खलिहान की गूंज हो कहीं, हमसे खुश दरअसल कोई हो सकै नहीं हैं।
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उसी गोमाता की बदौलत हम इतना जो पादै हैं।
मुश्किल यह है कि जिसे वे आका तमामोतमाम कला साहित्य संस्कृति माध्यम विधा वगैरह वगैरह कह रहे हैं, गोमाता ब्रांडिंग के बाद वे सिर्फ वनस्पति घी है, घी की नदियां हर्गिज नहीं है।
पता नहीं, ससुरे क्या क्या मिलाते हैं। मिलावट वह जहर है, समझो। वह गोबर से पाथे हैं, वह भी जहर है।
वे बेहद खतरनाक लोग हैं
जिनके आस्तीं में सांप के सिवा कुछ होता नहीं है।
उन्हें खबर भी नहीं है कि हम भी सपेरे हैं निराले
जो जहरदांत भी खूब तोड़ना जाने हैं।
बाकी वे जो हगे मूतै पेजोपेज सचित्र
वह गुड़गोबर है ही, जहर भी है।
अंडे सेते लोगों के खिलाफ जिहाद हमारा है
क्योंकि सारां जहां हमारा है।
सारी जुबां हमारी है।
इंसानियत का नक्शा हमारा है।
हमीं हैं कायनात के रखवाले।
हम अंडे सेते लोग नहीं है यकीनन।
अंडे जो सेते हैं, उन्हें खूब जानै हैं हम।
अंडे का आमलेट बनाते हैं, खाते हैं हम।
हमरा ख्वाब में मोहनजोदड़ो हड़प्पा है तो जान लो कि इंसानियत का भूगोल हमारा है।
बदला होगा इतिहास, बदल भी रहा होगा इतिहास, हम फिर इतिहास बनाने वाले लोग हैं।
पुरखों से हो गयी होगी गलती कि भूगोल से हुआ छेड़छाड़।
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पुरखों से हो गयी होगी गलती कि आपस में हो गयी रंजिशें
और बंटवारा भी हकीकत है यारों।
पुरखों से हो गयी होगी गलती कि तमाम साझा चूल्हे किरचियों में बिखरै हैं। सबसे पहले उन्हें जिंदा करने की दरकार है यारों।
पर समझ लो कि हमारे लोग अगर सो नहीं रहे होंगे अब भी।
समझ लो कि सहर हुआ नहीं है अभी तलक बस।
दिशाओं से रोशनी के तार कभी न कभी खुलेंगे।
उनींदी में जागने का अहसास जिन्हें न हो, वे भी जागंगे।
अंधियारों के तारों से रोशिनयों के तार भी अलग होंगे।
आगे बंटवारे की इजाजत नहीं है, नहीं है, नहीं है।
नफरत के सदागरों, बाजीगरों, तुम्हें मालूम नहीं, हम बेजुबान लोग हर जुबां में बोल सकै हैं। जब बोल सकबो तभै, जमाना बदल जावै है।
हम जब चीखेंगे एक मुश्त तो फर फर फुर्र होगी तुम्हारी सुनामी।
तुम्हारी सुनामियों की असलियत भी हम जानै हैं।
अब हम फर फर हर जुबां में बोलेंगे, सारे राज खोलेंगे।
तहस-नहस भले हुआ हो मोहनजोदड़ो,
तहस नहस भले ही हुआ हो हड़प्पा,
न मरा है मोहनजोदोड़ो,
और न मरा है हड़प्पा।
नफरत कभी नहीं जीतती कोई जंग मुहब्बत के खिलाफ।
ख्वाबों में मोहनजोदड़ो या फिर हड़प्पा।
वीरानगी फिर वही तन्हाई कयामत।
लेकिन दिल में टोबा टेकसिंह फिर वही।
सबसे खतरनाक मिलावट सियासती है।
सबसे खतरनाक मिलावट मजहबी दहशतगर्दी है।
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इस गोमाता ब्राडिंग से बुरबक देहात को कोई बना भी लें तो कोई बात नहीं। ब्रांडेड गोमाता फिरभी गोमाता नहीं है।
न जो गोबर हासिल है, वह कोई पवित्र विशुद्ध चीज है।
वह हलाहल है विशुद्ध और अब मोहनजोदोड़ो या हड़प्पा के गर्भ से कोई असली नीलकंठ निकलने वाला नहीं है।
गोबर के मालिक बहुतै हैं। जो फतवा ठोंके हैं कि सोशल नेटवर्किंग पर इस्टैंट राइटिंग से बहुत नुकसान हुवै है।
सम-लय से पादै रहै जो संपादक आलोचक विशेषज्ञ किस्म के जीव हैं भांति भांति वे भी किसी मौलवी पुरोहित से कम नहीं है, खासकर वे जो भरपूर मुनाफावसूली मशहूर अब बैठे ठालै हैं। फतवा भी पादै हैं।
जिनगी उनकी बाजार से वसूली में बीतै हैं और हमसे बेहतर कोई नहीं जानै हैं कि वे कहां कहां क्या क्या वसूलै हैं। कहां कहां कैसे कैसे घोड़े और सांढ़ दौड़ाये हैं। कहां कहां खजाना लूटै हैं।
समताल से जो पादै प्रजाति हैं, उनसे विनम्र निवेदन है कि फतवा जारी करै नहीं कि वर्तनी शुद्ध हो तभी लिखें।
अबे हरामखोरों, तुम्हीं कहते हो अशुद्ध खूनै है हमारा।
अशुद्ध खूनै है तो तत्सम काहे को हो भाखा हमारी, हम तो खुदैखुद अपभ्रंश हैं तो तुम्हारे वर्तनी व्याकरण की तो ऐसी की तैसी।
तुम्हारा सौंदर्यशास्त्र हमारे ठेंगे पर।
समझा भी करो जानम, जुबां हो न हो,
हम अपभ्रंश हैं, मुकम्मल सर्पदंश हैं हम।
विशुद्ध खून उनका सारस्वत हैं हम जाने हैं और हरफों पर हकहकूक उनका सारा है, हम जाने हैं।
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साहित्य कला माध्यम विधा इत्यादि उन्हीं की जागीर हैं, सो हम जाने हैं। भुगते भी हैं खूबै। हमारा भुगतान बस बाकी है।
हमारी औकात भी तनिकों समझा करैं कि जब हम अपनी पर उतरै हैं, तो किसी की न सुनै हैं हम, अपनी भी नहीं।
सरेबाजार नंगई का शौक न हो तो हमें जुबां की तमीज सिखाने से बाज आवै तो बेहत है, वरना हम खालिस लफ्फाजों को बख्शते नहीं हैं। जिनकी रीढ़ नहीं है कोई, जो न मुद्दों से टकराये, न मसलों से जिनके कोई सरोकार हैं, न जनसुनवाई की परवाह जिन्हें कोई, हमारे हस्तक्षेप से वे ही खास तिलमिलाये हैं।
हम भी देहाती हैं भइया और लाहौर भले छूट गया हो या छूट गया हो नोवाखाली चटगांव, हमारी आदत भी रघुकुल रीत से कम नहीं है।
हमारे ख्वाबों में अब भी है मोहनजोदड़ो तन्हा-तन्हा।
हमारे ख्वाबों में अब भी है मोहनजोदोड़ो तन्हा-तन्हा।
वीरानगी के वारिसान हैं हम हजारों हजार सालों से।
तन्हाई के लावारिसान हैं हम हजारों हजार सालों से।
मुकम्मल खामोशी के वारिसान हैं हम वह भी हजारों सालों से।
खूब सुनते रहे हैं हम तुम्हारी हजारों सालों से।
बहुतै बोले हो तुम हजारों सालों से।
अब हम बोलै हैं जो हमारा दिल बोले हैं।
साजिशों और नफरतों और जिहादों का धंधा नहीं हमारा कोई।
हम मुहब्बत के परवाने हैं।
दिलों में है आग तो हम आग के परिंदे हैं।
परिंदे जब आखिर बोले हैं तो जुबां की कोई लक्ष्मण रेखा होती नहीं है।
परिंदे जब आखिर बोले हैं तो मजहबी सियासती तिलस्मों का आखिर टूटना है।
किलेदारों, सूबेदारों और मनसबदारों, सिपाहसालारों की परिंदे कभी न सुने हैं और न उनका कोई सरहद कहीं होवै है।
आखिरकार हम तो वे ही लोग हैं जो गुफाओं में तस्वीरें बनाते रहे हैं या फिर कथरी चटाई कपड़ा में कलाकारी करते रहे हैं।
यही हमारी विरासत है और इस विरासत से कोई कहीं आगे नहीं है।
हम अब भी संगदिलों के सीने पर तारीख लिखने का जोखिम उठा रहे हैं। जो संग दिल न हों, वे ही बूझै हैं हमारी जुबां।
पलाश विश्वास