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नोटबंदी - स्त्री को फिर संपत्ति और आर्थिक आजादी से वंचित कर दिया ग्लोबल हिंदुत्व ने

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hastakshep
23 Mar 2019
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नोटबंदी - स्त्री को फिर संपत्ति और आर्थिक आजादी से वंचित कर दिया ग्लोबल हिंदुत्व ने

सबिता बिश्वास

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भारत में कामकाजी महिलाएं कुल कितनी हैं?

कितनी स्त्रियों के अपने नाम बैंक खाते हैं?

कितनी स्त्रियों के पास प्लास्टिक मनी है?

कामकाजी महिलाओं और सत्ता वर्ग की महिलाओं के अलावा भारत में आम स्त्रियों की कोई क्रय क्षमता कितनी है?

कोई आजाद स्त्री के पास पितृसत्ता के नियंत्रण के दायरे से बाहर कितना धन होता है और कितना धन वह अपनी मर्जी से खर्च कर सकती है?

इन सवालों के जवाब में कोई आंकड़ा हमारे पास नहीं हैं। आपके पास हों तो साझा जरूर करें।

कामकाजी महिलाओं के अलावा इस देश में आधी आबादी की बहुसंख्य मेहनतकश स्त्रियां परिवार में होते हुए विभिन्न प्रकार के काम धंधों में खून पसीना बहाकर अपनी कमाई से न सिर्फ संसार गृहस्थी चलाती हैं, बल्कि फिजूलखर्च एकदम न करते हुए वित्तीय प्रबंधन के तहत वर्तमान और भविष्य के खातिर न सिर्फ अपने लिए बल्कि अपने परिवार और खास तौर पर अपनी संतानों के लिए कमोबेश बचत करती रहती हैं।

गृहस्थी में स्त्री की दिहाड़ी का कोई मोल नहीं है और उसके इस श्रम को उसका कर्तव्य और चरित्र के साथ ऐसे नत्थी कर दिया गया है कि इसके एवज में किसी क्रयशक्ति का कोई प्रतिमान बना नहीं है।

पारिवारिक पेशे में मसलन खेती और तरह-तरह के कामधंधों के एवज में किसी स्त्री को भुगतान का कोई प्रावधान नहीं है। बदले में वह सिर्फ सम्मान, मान्यता और प्यार मांगे तो इससे भी ज्यादातर स्त्रियां वंचित है क्योंकि मनुस्मृति के मुताबिक दासी और शूद्र होने के बावजूद वह देवी है और देवी पारिश्रामिक बतौर पुष्प ही मिलता है और जो नैवैद्य उसके लिए प्रस्तुत किया जाता है, उस पर भी उसका कोई अधिकार नहीं होता।

नोटबंदी ने उन तमाम स्त्रियों की वह बचत छीन ली है। उसका छुपा छुपाया बचत अब सफेद होने के बावजूद कालाधन है और उन्हें सफेद बनाने के लिए वह धन उसे अपने परिजनों के हवाले करना पड़ा है, जिनसे छुपाकर उन्होंने यह बचत की है।

सत्तावर्ग की छोड़ दें तो मेहनतकश तमाम स्त्रियां ज्यादातर अपढ़ या अर्द्धशिक्षित हैं या अपनी जाति की वजह से उन्हें सर्वोत्तम शिक्षा, योग्यता और मेधा के बावजूद, आरक्षण के बावजूद संगठित क्षेत्र में कोई पक्की नौकरी नहीं मिली है।

वे सारी की सारी असंगठित क्षेत्र में हैं।

इनमें बड़ी तादाद शहरीकरण के वातानुकूलित दड़बों की बाई या मौसी या नौकरानी हैं, जिन्हें किसी न किसी मजबूरी की वजह से शराबी कबाबी पति की वजह से अपनी मेहनत की कमाई से गृहस्थी की गाड़ी खींचनी होती हैं। लेकिन अपनी बचत और वित्तीय प्रबंधन से आपात स्थिति, परिवार के लिए छत और शिक्षा, बुनियादी जरुरतों और बुनियादी सेवाओं के लिए ये पैसा-पैसा जोड़ती रही हैं। जिससे नोटबंदी की आड़ में निर्मम पितृसत्ता ने उसकी कमाई और बपटत दोनों छीन ली है।

संपन्न घरों की सुखी गृहिणियां भी बचत और वित्तीय प्रबंधन की अभ्यस्त हैं। परिवार की संपत्ति और क्रयशक्ति चाहे जो हो, अपने भविष्य और अपने परिवार के भविष्य के लिए वे स्त्रियां भी जिंदगी भर बचत करती रही हैं और संकट के वक्त उनका वह स्त्रीधन काम आता है।

कामकाजी, सुखी संपन्न या मेहनतकश सर्वहारा स्त्रियों सभी के लिए उनकी यह क्रयशक्ति उनकी आजादी है। वे बिना पितृसत्ता की इजाजत के अपनी चाहत और इच्छा के मुताबिक इस क्रयशक्ति का उपयोग अपनी सामाजिक आर्थिक हैसियत को बनाने में करती रही हैं और कुल मिलाकर यह बचत उनकी निजी संपत्ति है।

पढ़े लिखे मेधा संपन्न मर्दों को भी उनकी यह क्रय क्षमता और बचत छीन जाने से खूब मजा आया है।

नोटबंदी के सर्वनाशी नतीजों से अनजान, खेती और कारोबार से लेकर उद्योगों से निकलने वाले मृत्युजुलूस और सर पर मंडराती मौत, भुखमरी, बेरोजगारी और मंदी के बावजूद अपने घर में गुल्लक तोड़े जाने का किस्सा खिलखिलाकर खुलकर कहा गया है और स्त्रियों की छुपायी हुई बचत छीन जाने का जश्न मनाते हुए एटीएम और बैंकों से निकलती लाशों और जिंदा ही लाशों में तब्दील करोडो़ं लोगों के अभूतपूर्व संकट के मौके पर स्त्रियों के बचत के अधिकार पर पितृसत्ता ने वार किया है।

जीवन के हर क्षेत्र में स्त्रियां अब नेतृत्वकारी भूमिका में हैं और किसी न किसी तौर पर नकदी और संपत्ति उनके पास भी हैं, जो हरिचांद ठाकुर के मतुआ आंदोलन, ईश्वरचंद्र विद्यासागर, राजाराममोहन राय, महात्मा ज्योतिबा फूले और रवींद्रनाथ के स्त्री के पक्ष में जारी नवजागरण और बाबा साहेब के हिंदू कोड बिल की वजह से संभव हुआ है।

एक झटके से सदियों से जारी स्त्री सशक्तीकरण खत्म करके नोटबंदी के जरिये मनुसमृति लागू कर दी गयी है स्त्री के खिलाफ। और पितृसत्ता के गुलाम कारिंदों को न इसका अहसास है और न इसके लिए उन्हें कोई शर्म है।

स्त्री को फिर एकबार संपत्ति और आर्थिक आजादी से वंचित कर दिया है ग्लोबल हिंदुत्व के एजंडे ने।

हिंदुत्व में आस्था रखने वाली सभी स्त्रियों को मनुस्मृति अवश्य पढ़ना चाहिए क्योंकि देश में इस वक्त मनुस्मृति अनुशासन के तहत स्त्री के सारे हकहकूक पितृसत्ता ने निर्मायक तौर पर छीन लिये हैं, जिनके भविष्य में बहाल होने की कोई संभावना नहीं है।

मनुस्मृति में स्त्री को कोई अधिकार नहीं है। वह शूद्र है। वह अशुद्ध है। नर्क का द्वार है। वह दासी है। वह भोग्या है। उसे शिक्षा, संपत्ति और शस्त्र के अधिकार नहीं हैं उसे धर्म-कर्म के तमाम कर्मकांड से वंचित तो किया ही गया है। वह पिता, पति और पुत्र के अधीन है और पति उसकी देह का मालिक है, जो उसे खरीद बेच सकता है।

स्त्री से प्यार का मतलब उसकी देह से खिलवाड़ का लाइसेंस है। यह पितृसत्ता का निर्मम विधान है, जिसके लिए उसकी इच्छा अनिच्छा का कोई मूल्य नहीं है। इसलिए हमारी यह संस्कृति अपनी उदात्तता के बावजूद बलात्कारी है और रोज इस महान देवियों के देश के इंच इंच पर हर तबके की स्त्री के खिलाफ नानाविध अत्याचार होते रहते हैं, जिन्हें न संविधान रोक सकता है और न कानून।

स्त्री के लिए न न्याय है और न क्षमता।

नोटबंदी ने इस वैदिकी स्त्री नियति को स्थाई बंदोबस्त में तब्दील कर दिया है।

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