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गरम हवा : मैं सत्याग्रह में शामिल हुआ, जेल गया, लाठियां खायीं लेकिन आजादी मिली तो मलाई कुत्ते खा रहे हैं

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hastakshep
08 Dec 2013
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'Zindagi ne ek din kaha ki tum lado...'

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वक्त के उखड़ने और सूखने की दास्तां : गरम हवा

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गरम हवा फिल्म समीक्षा 

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अगर थोड़ी देर के लिये इस बात को नजरअंदाज कर दिया जाये कि 1973 में एमएस सथ्यू द्वारा निदेर्शित फिल्म गर्म हवा को अंतर्राष्ट्रीय एकेडमी अवार्ड के लिये या कांस फिल्म महोत्सव के प्रतिष्ठित गोल्डेन पाल्म अवार्ड के लिये नामित किया गया था, या भारत में उसे आधा दर्जन पुरस्कार मिले, तब इस राजनीतिक फिल्म के महत्व और उसके कॉन्टेंट को समझना ज्यादा आसान होगा।

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ऐसा इसलिये कि अवार्ड विनिंग फिल्में अक्सर ट्रेंड सेटर बन जाती हैं। यानी बाद के दौर में उन फिल्मों की नकल करने या उनके विषय वस्तु को उठा कर फिल्में बनाने का पूरा सिलसिला शुरू हो जाता है।

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अपने आप में इस ट्रेंड के विपरीत फिल्म है ‘गर्म हवा’ जिसकी न तो नकल करने की ही कोशिश की गयी और ना उसके विषय वस्तु को ही छूने की कोशिश की गयी।

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लेकिन ‘गर्म हवा’ अपने आप में इस ट्रेंड के विपरीत एक ऐसी फिल्म है जिसकी न तो नकल करने की ही कोशिश की गयी और ना उसके विषय वस्तु को ही छूने की कोशिश की गयी। इस तरह यह फिल्म, हिंदी फिल्म उद्योग, जो किसी भी अवार्ड विनिंग फिल्म की नकल बनाने के लिये जाना जाता है, की इस नकलची प्रवृत्ति पर भी सवाल उठाती है कि क्या नकल भी सिर्फ उन्हीं फिल्मों की होती है जिनकी राजनीतिक दिशा राज्य सत्ता की नीतियों से मेल खाती है या जो उन्हीं सामाजिक स्टीरियोटाईप्स को मजबूत बनाती हैं जिसे सत्ता निर्मित और पोषित करती है।

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फिल्म गरम हवा की कहानी

इस्मत चुगताई की एक अप्रकाशित कहानी पर कैफी आजमी और शमा जैदी द्वारा लिखित और बलराज साहनी, फारूक शेख और शौकत आजमी अभिनीत ‘गर्म हवा’ बंटवारे के बाद के भारत में रह गये एक मुसलमान परिवार की बदली हुयी राजनीतिक परिस्थितियों में पारिवारिक और सामाजिक विचलन की कहानी है। जो व्यक्तिगत होते हुये भी पूरे मुस्लिम समाज की स्थिति को बयान करती है। जिसको फिल्म के शुरूआती दृश्य में ही जब बलराज साहनी पाकिस्तान जाने वाले अपने एक और परिजन को ट्रेन पर चढा कर लौट रहे हैं से तांगे वाला (राजेंद्र रघुवंशी) कह कर स्थापित करता है कि ‘बडी गर्म हवा है मियां, जो उखड़ा नहीं सूख जावेगा मियां’।

फिल्म सलीम मिर्जा (बलराज साहनी) जो आगरा के एक प्रतिष्ठित जूता कारखाने के मालिक हैं के परिवार के इसी गर्म हवा से आंतरिक और बाहरी संघर्ष की कहानी है। जहां आंतरिक तौर पर उनके परिवार के सदस्य एक-एक कर उखड़ कर पाकिस्तान चले जा रहे हैं। जबकि सलीम मिर्जा को लगता है कि ‘गांधी जी की शहादत रायगा नहीं जायेगी’ और कुछ दिनों बाद सब कुछ ठीक हो जायेगा।

सलीम मिर्जा अपने इसी विश्वास के चलते अपने भरे पूरे परिवार से बिछड़ कर सिर्फ अपनी मां, पत्नी, बेटी और बेटे के साथ रह जाते हैं। जबकि बाहरी समाज की वास्तविक दिशा उनके विश्वास के ठीक विपरीत है।

और बंटवारे के दौरान दिखी मुस्लिम विरोधी शारीरिक हिंसा अब बहुत तेजी से संस्थागत रूप ले रही है।

जहां एक मुस्लिम नौजवान (फारूक शेख) को नौकरी के लिये इंटरव्यू के दौरान कहा जाता है ‘आप यहां अपना समय बर्बाद कर रहे हैं, आप पाकिस्तान क्यूं नहीं चले जाते’ या किराये का मकान ढूँढने वाले एक मुसलमान (बलराज साहनी) को मकान मालिक से पहले कहना पड़ता है कि ‘मेरा नाम सलीम मिर्जा है और मैं एक मुसलमान हूं, क्या आप मुझे मकान देंगे।’ सलीम मिर्जा परिवार के लिये स्थितियां उस समय और भयावह हो जाती हैं जब उन पर एक नक्शा पाकिस्तान भेजने और पाकिस्तान के लिये जासूसी करने का झूठा मुकदमा लाद दिया जाता है।

गौरतलब है कि बंटवारे के बाद भारत में रह गये मुसलमानों को साम्प्रदायिक होते राज्य व्यवस्था द्वारा प्रताणित करने का यह सबसे आसान हथियार रहा है। जिसके चलते न जाने आज भी कितने निर्दोष मुसलमान पाकिस्तान के लिये जासूसी करने के झूठे मामलों में जेलों में सड़ने के लिये मजबूर हैं।

सम्भवतः भारतीय राज्य व्यवस्था द्वारा मुसलमानों के रूप में एक स्थाई आंतरिक शत्रु के निर्माण की इसी षडयंत्रकारी राजनीतिक परिघटना को चित्रित करने के चलते ही देश-विदेश में पुरस्कार हासिल करने वाली यह फिल्म कभी नकलची बालीवुड को अपनी विषय वस्तु ‘चुराने’ के लिये प्रेरित नहीं कर पायी।

बहरहाल, मिर्जा परिवार के आंतरिक और बाहरी जद्दोजेहद के साथ ही फिल्म एक महिला के नजरिये से भी इन परिस्थितियों का जायजा लेती है। आमना (गीता सिद्धार्थ), जो सलीम मिर्जा की बेटी है की शादी पाकिस्तान जा चुके उसके चचेरे भाई काजिम मिर्जा (जमाल हाशमी) से तय है। पाकिस्तान से पढाई के लिये लंबे समय तक विदेश जाने से पहले काजिम आमना से शादी करने के लिये गैर कानूनी तरीके से भारत आ जाता है। लेकिन शादी से चंद रोज पहले ही पुलिस उसे पकड़ कर वापस पाकिस्तान भेज देती है। जिससे आमना पूरी तरह टूट जाती है। कुछ समय बाद स्थितियों से समझौता करके आमना अपनी जिंदगी में एक दूसरे लड़के को आने देती है। लेकिन एक अमीर लड़की से शादी तय हो जाने के बाद वह उसे छोड़ देता है। पूरी तरह टूट चुकी आमना इस ‘गर्म हवा’ को बर्दाश्त नहीं कर पाती और आत्म हत्या कर लेती है।

फिल्म सलीम मिर्जा परिवार के साथ की उस दौर के आम सामाजिक हालात को भी चित्रित करने में सफल रही है। जिसे बेरोजगार युवकों के बहसों में बखूबी देखा जा सकता है। जहां किसी को सिर्फ इसलिये नौकरी नहीं मिल पाती कि उससे रिश्वत मांगा जाता है तो किसी को अंग्रेजी अच्छी नहीं होने के चलते बेकार बैठना पड़ता है। वहीं इन बेरोजगारों को मुफ्त में चाय पिलाने वाला दुकानदार उन आदर्शों का प्रतिनिधि है जिसकी बुनियाद पर आजादी की लडाई लड़ी गयी थी। दुकानदार, जो स्वतंत्रता सेनानी है का आजादी के बाद के हालात पर टिप्पणी है ‘मैं सत्याग्रह में शामिल हुआ, जेल गया, लाठियां खायीं लेकिन आजादी मिली तो मलाई कुत्ते खा रहे हैं।’

बहरहाल, भारतीय मुसलमानों की समस्या पर बनी अब तक की सबसे महत्वपूर्ण फिल्म समस्या का हल भी सुझाती है। और हल भी मुस्लिम केंद्रित नहीं बल्कि सेक्यूलर और प्रगतिशील। जिसके केंद्र में सलीम मिर्जा जैसे उम्र दराज लोग नहीं बल्कि चायखाने पर बैठने वाले बेरोजगार युवा हैं। जो बेरोजगारी, भूख और साम्प्रदायिक भेदभाव पर आधारित होती जा रही राजनीतिक व्यवस्था को जनवादी रास्ते पर ले आना चाहते हैं। जिनका नारा ‘इन्कलाब जिंदाबाद और रोजी-रोटी लाल निशान, मांग रहा है हिंदुस्तान’ है।

अपनी मां और बेटी की मौत से टूट चुके सलीम मिर्जा, जो कभी पाकिस्तान जाने के सुझाव पर कहते थे कि ‘यह उम्र दुनिया छोड़ कर जाने की है वतन नहीं’, भी जब पाकिस्तान जाने के लिये तांगे से निकलते हैं तब यही नारा उनमें उम्मीद जगाता है। और फिल्म के आखिरी दृश्य में वे और उनका बेटा नारे लगाती उस भीड़ में शामिल हो कर अपनी ही जैसी तकलीफों की शिकार लोगों के जन सैलाब में खो जाते हैं।  

2005 में इण्डिया टाईम्स मूवीज द्वारा बॉलीवुड की सर्वकालिक बेहतरीन 25 फिल्मों (25 Best Bollywood Movies of All Time by India Times Movies in 2005) में शुमार ‘गर्म हवा’ के निर्माण से जुड़ी कहानी भी काफी दिलचस्प है। साम्प्रदायिकता जैसे राजनीतिक मुद्दे पर प्रगतिशील नजरिये से बनने के चलते फिल्म की शूटिंग के दौरान लोकेशन (आगरा) पर कई बार हिंदुत्वादी अराजक तत्वों ने अवरोध उत्पन्न करने की कोशिश की। जिससे निपटने के लिये एमएस सथ्यू ने कई डमी यूनिट बनाईं जो अनलोडेड कैमरे के साथ वास्तविक लोकेशन से काफी दूर जा कर शूटिंग का नाटक करते थे। जिससे विरोध करने वालों का ध्यान बंट जाये और फिल्म की वास्तविक शूटिंग चलती रहे।

शाहनवाज आलम 

लेखक स्वतंत्र टिप्णीकार हैं

गरम हवा

निर्देशक एम एस सथ्यू

निर्माता Abu Siwani

Ishan Arya

M. S. Sathyu

लेखक कैफी आजमी

शमा ज़ैदी

कहानी इस्मत चुग़ताई

अभिनेता : बलराज साहनी, Farooq Shaikh, Dinanath Zutshi, Badar Begum, Geeta Siddharth, Shaukat Kaifi, A. K. Hangal,

संगीतकार Bahadur Khan

Kaifi Azmi (lyrics)

छायाकार Ishan Arya

संपादक S. Chakravarty

प्रदर्शन तिथि(याँ)

1973

समय सीमा 146 minutes

देश India

भाषा Hindi/Urdu

लागत ₹1 मिलियन (US$14,600)

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