बहुजन का नायक रोहित वेमुला ही होगा, राजीव नहीं।
सदियों की दासता के दर्द का अहसास है रोहित वेमुला
प्रतिक्रान्तिकारी और प्रति प्रतिक्रियावादी कवि कुमार विश्वास के बहाने …..
Rohit Vemula feels the pain of centuries of slavery
On the pretext of counter-revolutionary and reactionary poet Kumar Vishwas …..
‘कुमार’ महिला साथी के साथ ‘विश्वास’ और अविश्वास को लेकर कुख्यात रहे हैं। संघ के प्रायोजित एजेंडा के एजेंट (RSS sponsored agenda agent) “आप” के इस लीडर ने महाजन का फॉलो करते हुए आरक्षण की समीक्षा (Reservation review) की बात की है।
आर्थिक आधार पर आरक्षण का सियार और होशियार- स्वर सियासी गलियारे में इको हो रहा है। हजारों वर्षों की लूट की मंशा साफ़ नहीं हो पा रही है। आरक्षण नहीं देना यह सवर्ण- न्याय होगा या सामाजिक न्याय?
यह देश जीने वालों का है भोगने और भागने वालों का नहीं। जिनका देश है उन्हें यह देश छोड़ दो। जाहिल है जहन्नुम का हिस्सा इनके हाल पर यह देश छोड़ देना चाहिए। 90 प्रतिशत को 90 प्रतिशत भागीदारी और हिस्सेदारी हो जाय तो आरक्षण की जरूरत कहाँ है ?
जिनको अपने पूर्वज के पाप पर गर्व है उन्हें आरक्षण झेलनी ही पड़ेगी। कोई भी माई का लाल समता की इस लड़ाई को रोक नहीं सकता। जबतक गैरबराबरी रहेगी तबतक यह आरक्षण जारी रहेगा।
खाते-पीते किसी रामविलास से खीझ क्यों ? क्या संसद कमर में झाडू बांधकर रामविलास और रामराज जाय तो बहुत अच्छा ?
पुराना कॉस्ट्यूम्स दलितों के लिए क्यों ? पाण्डेय का पौआ पकड़ कर कबतक मालिक-मालिक करते रहेंगे ?
This century is the century of the Shudras.
भाइयो! यह सदी शूद्रों की सदी है। षड्यंत्र लाख गहरा हो पर वंचित भी होशियार और समझदार हुआ है। इनके जन में भी जान आया है। इन्हें भीख नहीं अधिकार चाहिए।
सवर्ण और अवर्ण का भारत आज आमने-सामने आ खड़ा हुआ है। राजीव गोस्वामी और रोहित दोनों ने आत्महत्या की है। एक ने आरक्षण के विरोध में जान दे दी और एक ने आरक्षण के लिए जान दे दी।
दोनों की मौत के मायने आप समझ रहे हैं। यह वर्गीय हित का मामला है। राजीव शहीद ? और रोहित की मौत केवल एक घटना ? यह कैसी नाइंसाफी ?
बहुजन का नायक रोहित वेमुला ही होगा, राजीव नहीं। दलित वंचित का रोहित वेमुला के लिए चिल्लाना स्वाभाविक है। कांसीराम और कलराज की जंग जारी है …..
यह देश राजीव गोस्वामी का या रोहित वेमुला का ? क्या यह देश दोनों का हो सकता है अगर यह देश दोनों का नहीं हुआ तो किसी का नहीं होगा। फिर हमारी कथित हस्ती का क्या होगा? सच है कि हमारी हस्ती रोज मिट रही है और हम मिटा भी रहे हैं। सदियों की दासता के दर्द का अहसास है रोहित वेमुला।
बाबासाहेब और बापू की अपनी-अपनी कहानी थी। उन्हीं अंतर्विरोधों के बीच हम यहाँ तक आ पहुंचे हैं। राजीव और रोहित वेमुला मर रहे हैं, भारत पर जात नहीं मर रही है। विषमता बिंदास हो गई है। वंचित और ही विवश।
नौकरी नहीं रोजगार नहीं। सब बनियों के हवाले। यहाँ अवसर और आरक्षण का सवाल कहाँ ? परंपरागत रोजगार पर भी पाण्डेय और पाठक का कब्ज़ा ?
राजीव गोस्वामी की मौत का असर चारों ओर दिखता है। यह सत्ता और समाज दोनों में है। सत्ता सवर्णों की है और सवर्णों के सम्मान और सम्पन्नता में लगी है। अभी सभी सम्मान गणतंत्र दिवस पर सवर्णों को ही मिले हैं।
सरकार स्वयं समाज को बाँट रही है।
देश का बचपन तो जाति प्रमाणपत्र बनाने में व्यस्त है। जाति अभिप्रमाणित है तो आरक्षण असंवैधानिक कैसे?
आर्थिक आधार पर जातियां नहीं बनी हैं। फिर आर्थिक आधार पर आरक्षण की बात क्यों ?
बाबा साहेब, जगजीवन, शिवाजी क्या आर्थिक आधार पर अपमानित हुए थे? शोषण और अत्याचार आज भी जाति के आधार पर हो रहे हैं आर्थिक आधार पर नहीं।
कुमार विश्वास आर्केस्ट्रा के राजकुमार हैं, समाज के नहीं। ये केवल उद्घोषणा पर ध्यान दें शंखनाद ना करें।
बापू की पुण्यतिथि और रोहित वेमुला की जन्मतिथि एक ही दिन। दोनों को सवर्णों ने मारा। आप कह सकते हैं कि अपराधियों की कोई जाति नहीं होती। पर जाति उसकी संरक्षण अवश्य करती है।
हम बापू और वेमुला को एक सन्दर्भ के लिए याद करते हैं। इनका कातिल हम भी हैं और आप भी हैं। जिन मूल्यों और मानकों के कारण इनकी मौत होती हैं और अगर हम उन्हीं मूल्यों को ढोने को प्रयास करते हैं तो सच में हम अपने हिस्से के गोडसे को जी रहे होते हैं।
बाबा विजयेंद्र
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