रोजगार योजनाओं को अन्दर से खतम कर रही मोदी सरकार

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hastakshep
23 Mar 2019

बीते दो साल में जनतंत्र का हुलिया कैसे बदला ?

पवित्र किताब की छाया में आकार लेता जनतंत्र – 2

भारतीय लोकतंत्र: दशा और दिशा को लेकर चन्द बातें

सुभाष गाताडे

जो हाल राष्ट्रीय अन्न सुरक्षा अधिनियम का था, कमोबेश वही हाल ‘मनरेगा’ का भी था। याद करें कि कांग्रेस की अगुआईवाली संप्रग सरकार के दिनों में कायम महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार योजना /मनरेगा/ ने ग्रामीण आबादी की क्रयशक्ति बढ़ाने में अहम योगदान दिया था। इसके चलते गांवों से शहर की पलायन पर भी थोड़ा असर पड़ा था, यहां तक कि ग्रामीण इलाकों में मजदूरी की दरें भी बढ़ी थीं। सूबा पंजाब की तस्वीरों से सभी रूबरू होंगे जब पंजाब के किसान स्टेशन पर खड़े दिखते थे ताकि बिहार से आनेवाले मजदूरों की ‘अगवानी’ कर सकें।

2014 में मोदी के सत्तारोहण के बाद ही प्रस्तुत रोजगार योजना को अन्दर से खतम किया जा रहा है।

पिछले साल जनाब मोदी ने यह ऐलान भी किया था कि यह योजना ‘कांग्रेस की विफलताओं का जीता जागता स्मारक है।’ इस साल जब योजना को दस साल पूरे हुए तब सरकार द्वारा इस मसले पर यू टर्न लेने की बात की गयी, मगर जमीनी स्तर पर कुछ भी नहीं बदला है।

बिराज पटनायक बताते हैं कि मनरेगा के बजट में कटौती जारी है। जहां एक तरफ सरकार की तरफ से कहा गया कि हमने इस साल इस योजना के लिए 43,000 करोड़ रूपए आवंटित किए, मगर वह इस सच्चाई को छिपाता है कि उसमें से 12,000 करोड़ रूपया पिछले साल की मनरेगा मजदूरी का बकाया ही था। और सूखे के इस वर्ष में त्रासदी यह है कि बीते सालों की तुलना में 220 मिलियन मनरेगा दिनों का आवंटन घटा दिया गया है।

जहां गरीबों के लिए, भूखमरी की कगार पर खड़े लोगों के लिए खजाने के दरवाजे खोलने में सरकार सकुचाती दिखती है, वहीं दूसरी तरफ इस सरकार को कोई ग़म नहीं कि वह बैड डेब्ट्स अर्थात खराब कर्जें के नाम पर इस देश के पूंजीपतियों द्वारा सरकारी बैंकों से लिया गया लाखों करोड़ रूपयों का कर्जा मुआफ कर दे, भले ही उससे सरकारी बैंकों का दीवाला पीटने की नौबत आए, भले ही वहां जमा पैसे का अधिकतर हिस्सा आम लोगों की गाढ़ी कमाई से आता हो।

रहने को घर नहीं, सारा जहां हमारा !

याद करे बीते साल इसी दौर में प्रधानमंत्री मोदी ने हर बेघर शहरी गरीब के लिए 2022 तक मकान सुनिश्चित करने का वायदा किया था , जिसके लिए प्रधानमंत्राी आवास योजना की शुरूआत की गयी थी। ऐलान यह किया गया था कि इस साल 30 लाख मकान बनाए जाएंगे ताकि 2022 तक यह लक्ष्य पूरा हो जाए। अगर हम अख़बारी कतरनों को पलटें तो बीते एक साल में महज 1623 मकान बनाए गए, जिनमें से 718 छत्तीसगढ़ में, 823 गुजरात में बनाए गए ह। अगर हम कागज़ों को पलटें तो पता चलता है कि उन पर भी 25 जून 2016 तक महज 7 लाख मकान बनाने की मंजूरी दी गयी।

जनसत्ता में प्रकाशित रिपोर्ट के मुताबिक (http:@@www-jansatta-com@national@one & year & of & housing & for & all & at&this&pace&indeed&a&dream&by&2022@110998@#sthash-UÛ1doru3-dpuf)

'ये सभी मकान अफोर्डेबल हाउसिंग की सब स्कीम की के तहत बनाए गए हैं। आवास योजना में चार अलग स्कीम्स हैं। इसमें 1.50 लाख रुपये प्रति यूनिट के हिसाब से बिल्डर, सरकार को सब्सिडी दी जाती है। तमिलनाडु में 82 मकान बनाए गए हैं। .. झुग्गियों का पुनर्विकास स्कीम का सबसे बुरा हाल रहा। इसमें एक भी मकान नहीं बना है। इसके तहत बिल्डर्स झुग्गियों के विकास का बेड़ा उठाएंगे और लोगों को बसाएंगे। इसके बाद जो जमीन बच जाएगी उस पर वे निर्माण कर बाजार रेट पर बेच सकेंगे। ..हाउसिंग सेक्टर से जुड़े कार्यकर्ताओं का कहना है कि प्रधानमंत्राी आवास योजना प्राइवेट सेक्घ्टर पर काफी आश्रित है। इससे पहले यूपीए सरकार की राजीव गांधी आवास योजना में प्रोजेक्ट कोस्ट की 50-75 फीसदी राशि सरकार वहन करती, बाकी का राज्य सरकार और नाममात्र की राशि लाभार्थी को देनी होती थी। लेकिन एनडीए सरकार ने इस योजना को रद्द कर दिया। '

……. जारी……..

(डॉ. ओमप्रकाश ग्रेवाल स्मृति व्याख्यान में प्रस्तुत मसविदा, 26 जून 2016, कुरूक्षेत्र)

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