काजल की कोठरी में सबके चेहरे रंगीन, इसीलिये सूचना के अधिकार को डम्प करने लगी राजनीति!
पलाश विश्वास
राजनीति इस देश में सबसे पवित्र गाय है क्योंकि लोकतन्त्र और कानून व्यवस्ता का ठेका उसी का एकाधिकार है जिसका नतीजा आम भारतवासी दिन प्रतिदिन भुगत रहा है। सूचना के अधिकार के तहत सरकार, प्रशासन पर कार्रवाई हो सकती है लेकिन राजनीति के विरुद्ध नहीं। वामपंथी, दक्षिणपंथी संघी, अम्बेडकरवादी, समाजवादी, क्षेत्रीय अस्मिता, गाँधीवादी और काँग्रेस-गैरकाँग्रेस, राजनीति-अराजनीति सुशील समाज की सार्वभौम एकता का नजारा निरन्तर जारी जनविरोधी नीतियों की निरन्तरता में अनवरत अभिव्यक्त होती रहती है। राजनीतिक समीकरण चाहे कुछ हों, पूरी राजनीति देश को लूटने खसोटने, देश को बेचने और आम जनता के चौकतरफा सर्वनाश के जरिये अप्रतिम संसदीय तालमेल के तहत एक दूसरे के हित साधने में एकजुट है। राजनीतिक दलों की फण्डिंग को सार्वजनिक करने की माँग तो बहुत पुरानी है। खुद सर्वोच्च न्यायालय अपने एक फैसले में कह चुका है कि देश के नागरिकों को यह जानने का अधिकार है कि चुनावों के दौरान राजनीतिक दलों के खर्च का स्रोत क्या है। भाजपा देश में भ्रष्टाचार को चुनावी मुद्दा बनाना चाहती है, लेकिन बतौर राजनीतिक पार्टी आरटीआई के दायरे में आना उसे मंजूर नहीं है। दूसरी तरफ राहुल गाँधी अपनी हर सभा में आरटीआई को लाने का श्रेय लेते हैं, लेकिन अपनी पार्टी को इसके दायरे से बाहर रखना चाहते हैं। जद (यू), एनसीपी और सीपीआई (एम) ने भी इस फैसले का विरोध किया है। राष्ट्रीय राजनीतिक पार्टियों को आरटीआई के दायरे में लाने के फैसले के खिलाफ करीब-करीब सभी प्रभावित पार्टियाँ खुलकर बोल रही हैं।
राजनीतिक दलों की प्रतिबद्धता अर आम जनता के प्रति है, अगर जनहित से ही जुड़े हैं उनके तमाम कार्यक्रम और उन दलों के नेता कार्यकर्ता भी भारतीय नागरिक हैं, तो कानून का राज समान रुप से उनके लिये क्यों नहीं लागू होना चाहिये ? लोकतन्त्र को पारदर्शी बनाने की माँग करने वाले लोग राजनीति को पारदर्शी बनाने को क्यों तैयार नहीं होते?
फिर, भ्रष्टाचार और राजनीति के अपराधीकरण के इस दौर में चुनावी प्रत्याशियों और मन्त्रियों के चयन आदि की प्रक्रिया में पारदर्शिता क्यों नहीं होनी चाहिये? जब आप सार्वजनिक क्षेत्र के महत्वपूर्ण कामकाज से जुड़े हैं, और सरकारी सुविधाओं का लाभ उठाते हैं, तो अपने बारे में जानकारी सार्वजनिक करने में आपत्ति क्यों है?
कॉरपोरेट फण्डिग को वैध बनाकर अबाध पूँजी प्रवाह की कालाधन रिसाइक्लिंग अर्थव्यवस्था को कॉरपोरेट राज में बदलने में कोई कसर बाकी नहीं है। पहले चरण के सुधारों का विरोध नहीं हुआ और न दूसरे चरण के सुधारों का। केन्द्र की जनविरोधी नीतियों पर आम जनता के दरबार में हंगामा बरपा देने वाले उन्हीं नीतियों के अमल का विरोध में एक शब्द तक खर्च नहीं करते। नीति निर्धारण से लेकर संसदीय कार्यवाही और न्यायिक प्रक्रिया भी कॉरपोरेट लॉबिंग से तय होती है। रोज बाजार के विस्तार के लिये नायक और महानायक तैयार करके उनके देशव्यापी आईपीएल सर्कस लगाया जाता है। आम जनता की जमापूँजी लूटने के लिये भविष्य निधि से लेकर पेंशन, बैंक खाता, वेतन, बीमा तक शेयर बाजार के हवाले हैं, जहाँ सेबी बड़े खिलाड़ियों के मुनाफे के लिये हर वक्त मुस्तैद है तो रिजर्व बैंक की मौद्रिक नीतियाँ भी कॉरपोरट हितों के मुताबिक तय होती हैं। तमाम केन्द्रीय एजेंसियाँ माफिया, अंण्डरवर्ल्ड, हवाला कारोबार, पोंजी चिटफण्ड, फिक्सिंग, मिक्सिंग और बेटिंग को रोकने के बजाय उन्हें बढ़ाने में मददगार हैं। संप्रग के प्रबन्धक खाद्य सुरक्षा विधेयक और जमीन अधिग्रहण विधेयक में पिछले कार्यकाल के मनरेगा, सूचना का अधिकार कानून, वनाधिकार अधिनियम और किसानों की कर्ज माफी जैसी योजनाओं से मिला राजनीतिक लाभांश देख रहे होंगे।
शुरू में भाजपा सीआईसी (केन्द्रीय सूचना आयोग) के इस फैसले पर कुछ भी खुलकर बोलने से परहेज करती रही। लेकिन जैसे ही काँग्रेस ने जोरदार तरीके से इस फैसले का विरोध करना शुरू किया कि भाजपा का रुख भी साफ हो गया। भाजपा के प्रवक्ता मुख्तार अब्बास नकवी ने कहा कि राजनीतिक पार्टियाँ चुनाव आयोग के प्रति जिम्मेदार हैं न कि केन्द्रीय सूचना आयोग के प्रति। भाजपा ने कहा कि सीआईसी का यह फैसला लोकतन्त्र के लिये अच्छा नहीं है।
राजनीतिक दलों को चंदा हासिल करने के लिये विदेशी कंपनियों से भी परहेज नहीं है। वह भी तब जब यह पूरी तरह से असंवैधानिक है। राजनीतिक दलों को सूचना का अधिकार (आरटीआई) के दायरे में लाने का पुरजोर विरोध करने वाली काँग्रेस और भाजपा ने तो वर्ष 1984 में भोपाल गैस त्रासदी के लिये जिम्मेदार कम्पनी डाउ केमिकल्स से भी चंदा लेने से गुरेज नहीं किया।
रोज नये घोटालों की खबर होती है। रोज स्टिंग ऑपरेशन होते हैं। रोज जाँच की प्रक्रिया शुरु होती है। गिरफ्तारियाँ भी होती हैं। लेकिन राजनीति का खेल इतना पक्का है कि कहीं कुछ नहीं होता। एक खबर दूसरी खबर को दबा देती है। सारे घोटाले और भ्रष्टाचार के तार भारतीय राजनीति के कॉरपोरेट कायाकल्प से जुड़ते हैं जहाँ तमाम संवैधानिक रक्षाकवच का उद्देश्य ही भ्रष्टाचार और घोटालों को सर्वोच्च स्तर तक जारी रखना है और सर्वदलीय मलीबगत से मिल बाँटकर जनता को चूना लगाना है। इससे ज्यादा शर्म की बात क्या है कि कॉरपोरेट लाबिंग से तय होता है कि कौन राष्ट्रपति बनें और कौन प्रधानमन्त्री। यही कारण है कि अभी तक जो लोग सूचना के अधिकार की प्रशंसा में अघाते नहीं थे, राजनीति के इसके दायरे में लाते ही बौखला गये हैं। उनकी अपारदर्शी चहारदीवारी पर सूरज की किरणें जगमगाकर उनकी अकूत बेहिसाब कालाधंधों को उजागर न कर दें, बस, इसी चिंता ने चुनावी राजनीति से परे पूरी राजनीतिक जमात को एकजुट कर दिया है।
आर्थिक सुधारों को लागू करने में और पूँजी के अबाध प्रवाह को जारी रखने में यह अटूट ऐक्य बार-बार अभिव्यक्त होता रहा है। लेकिन भूमि सुधार का मामला हो या आदिवासियों को स्वायत्तता देने का मामला, महिलाओं को राजनीतिक संरक्षण का मामला हो या खाद्य सुरक्षा विधेयक या अन्य कोई राष्ट्रीय मसला, जिसे तत्काल सम्बोधित किये जाने की फौरी जरूरत हो, राजनीति तब बिखरी-बिखरी नजर आती है।
भारतीय कृषि के सर्वनाश के विरुद्ध या किसानों की आत्महत्याओं के विरुद्ध यहाँ तक कि घनघोर प्राकृतिक आपदा के वक्त भी राजनीति की यह एकता अनुपस्थित है।
माओवादी हिंसा से निर्दोष आदिवासी मारे जा रहे हैं रोज, जिनकी जल जंगल जमीन आजीविका और नागरिकता से बेदखली पर आधारित है विकास गाथा, राष्ट्र के सैन्यीकरण के जरिये इसी जनता के दमन के लिये भारतीय पुलिस, अर्ध सैनिक बलों और यहाँ तक कि सेना के जवानों को शतरंज के मोहरों की तरह इस्तेमाल करना केद्र और राज्य सरकार का एकमात्र राष्ट्रीय खेल है। जलवा जुड़ूम के तहत और ऐसे ही घोषित अघोषित नामान्तरित अभियानों में मारे जाने वाले आदिवासी, गैर आदिवासी और सुरक्षाकर्मियों की थोक बलि पर राजनीति की नीद नहीं टूटती।
सुकमा के जंगल में पहली बार माओवादियों ने राजनीति पर सीधा प्रहार कर दिया और जख्मी राजनीति को राष्ट्रीय संकट का नजारा समझ में आ रहा है। केन्द्र और राज्यों की राजधानियों में राजनीतिक और सैन्य सरगर्मिया बढ़ गयी है माओवाद से निपटने के बहाने वंचितों के दमन के लिये पूरी राजनीति एक सुर एक ताल से बोल रही है।
भारत में प्रतिरक्षा के नाम पर देशभक्ति के धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद के निरन्तर आवाहन के साथ रक्षा सौदों में लगातार घोटाला होता रहा है। आंतरिक सुरक्षा का आम जनता की सुरक्षा से कोई मतलब नहीं है। विशिष्ट जनों की सुरक्षा के लिये ही बजट बनता है और खर्च होता है। आम लोग तो निहत्था असुरक्षित रहने को अभिशप्त हैं ही। उनकी ओर से थाने में आजादी के सात दशक के बावजूद बिना राजनीतिक हस्तक्षेक के गम्भीर से गम्भीर मामलों में एफआईआर तक दर्ज नहीं होते। सलवा जुड़ूम के तहत ही मानवाधिकार संगठनों के मुताबिक निनाब्वे बलात्कार के मामले हुये, किसी मामले में एफआईआर तक दर्ज नहीं हुआ। मणिपुर की माताओं के नग्न प्रदर्शन ने बहुत पहले साबित कर दिया कि इस देश में संविधान, कानून के राज और लोकतन्त्र का असली मतलब क्या है।