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विश्व पर्यावरण दिवस - क्या बाजार के लालच पर लगाम लगाये बगैर गिद्ध-गौरैया बच पायेंगे ?

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hastakshep
05 Jun 2016

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खाद्य श्रृंखला बचाने से बचेगा वन्य जीवन

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विश्व पर्यावरण दिवस पर विशेष प्रस्तुति | Special presentation on World Environment Day in Hindi

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वायुमंडल, जलमंडल और अश्ममंडल - इन तीन के बिना किसी भी ग्रह पर जीवन संभव नहीं होता। ये तीनों मंडल जहां मिलते हैं, उसे ही बायोस्फियर यानी जैवमंडल (Biosphere) कहते हैं। इस मिलन क्षेत्र में ही जीवन संभव माना गया है। इस संभव जीवन को आवृत कर रक्षा करने वाले आवरण का नाम ही तो पर्यावरण है। जीवन रक्षा आवरण पर ही प्रहार होने लगे.... तो जीवन पुष्ट कैसे रह सकेगा ?

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हर पर्यावरण दिवस की चेतावनी (Environmental day warning) और और समाधान तलाशने योग्य मूल प्रश्न यही है, कितु पर्यावरण दिवस, 2016 की चिंता खास है। संयुक्त राष्ट्र संघ ने ’वन्य जीवन के अवैध व्यापार के खिलाफ जंग’ को पर्यावरण दिवस, 2016 का लक्ष्य बिंदु बनाया है।

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चिंताजनक सच

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सच है कि हमने पिछले 40 सालों में प्रकृति के एक-तिहाई दोस्त खो दिए हैं। एशियाई बाघों की संख्या में 70 फीसदी गिरावट आई है। मीठे पानी पर रहने वाले पशु व पक्षी भी 70 फीसदी तक घटे हैं। भागलपुर की गंगा में डॉलफिन रिजर्व बना है; फिर भी डॉलफिन के अस्तित्व पर ही खतरे मंडराने की खबरें मंडरा रही हैं। उष्ण कटिबंधीय क्षेत्रों में कई प्रजातियों की संख्या 60 फीसदी तक घट गई है। थार रेगिस्तान के आठ किलोमीटर प्रति वर्ष की रफ्तार से बढ़ने  के आंकङे ने भी भारत की जैव विविधता (Biodiversity of India) कम नहीं घटाई।

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ताजा खबर है कि गिद्धों की आबादी चार करोड़ से घटकर चार लाख पर पहुंच गई है। बढ़ रहे हैं, तो सिर्फ वीरानी के निशान के रूप में जाने जाने वाले कबूतर। तीन जून को चंडीगढ़ में गिद्धों की आबादी बढ़ाने को लेकर एक बङा कार्यक्रम किया गया। पर्यावरण मंत्री ने कहा कि प्रजनन बढ़ाकर गिद्ध बढ़ायेंगे। अच्छा है कि वन्य जीवों का अवैध व्यापार रुके; कुदरत के सबसे सर्वश्रेष्ठ सफाई कर्मचारी गिद्ध का प्रजनन बढे़; किंतु क्या वन्य जीवन की संख्या संतुलन बिगड़ने का कारण अवैध व्यापार और प्रजनन का घटना मात्र हैं ?

वनवासियों की वन निष्ठा पर उठी उंगली का सच

यहां यह प्रश्न इसलिए है चूंकि वन संपदा का अवैध शिकार व व्यापार (Poaching and trade of forest wealth) रोकने के नाम पर पिछले कई वर्षों में वनवासियों को वनों से निकाल बाहर किया गया है; जबकि कोई एक प्रामाणिक शोध ऐसा नहीं है कि जो यह कहता हो कि भारत के वनवासियों के कारण वन नष्ट हुए हैं। उलटे वन संरक्षण के प्रति वनवासी नहीं, वन विभाग की निष्ठा पर उंगली अक्सर उठती रही है। सच यह है कि वनवासियों के वनों में बने रहने से पानी और मवेशियों के रहते पीने और भोजन का जो इंतजाम वन्य जीवों को हमेशा उपलब्ध था; वह छिना है। वन्य जीवों के वनों से बाहर आने की मज़बूरी बढ़ी है। जुताई घटने से झरने घटे हैं। ’इको टूरिज्म’ के नाम पर बाहरी का दखल बढ़ा है।

वनवासियों के वनों से बाहर निकालने के बाद से उत्तराखण्डों के जंगलों में आग व तबाही बढ़ी है। वन के समवर्ती सूची में आने के बाद से यह प्रक्रिया ज्यादा तेज हुई है।

वन्य जीव खाद्य श्रृंखला बचाना जरूरी

हमें समझना होगा कि वन्य जीवन पर वनवासी से ज्यादा, वन्य खाद्य श्रृंखला टूटने का खतरा है। वनों के प्राकृतिक व फलदार की जगह, इमारती हो जाने के चलन ने अवैध व्यापार का खतरा ज्यादा बढ़ाया है। अवैध व्यापार रोकना है, तो वनवासी नहीं, वन विभाग को सुधारें। वनों को प्राकृतिक रहने दें। यदि गिद्धों की घटोत्तरी रोकनी है, तो कृत्रिम रसायन का उपयोग घटायें।

हम कैसे भूल जाते हैं कि गिद्ध हों कि गौरैया, इनकी घटती संख्या का मुख्य कारण वे कृत्रिम कीटनाशक व रसायन हैं, जिनका हम खेती और खाद्य प्रसंस्करण में धड़ल्ले से इस्तेमाल कर रहे हैं ? इनके कारण खात्मे का आइडिया ’हिट’ हो गया है। नूडल्स है तो सीसा यानी लैडयुक्त, ब्रैड है तो ब्रोमेटयुक्त, नमक है तो आयोडाइज्ड, तेल है तो रिफाइंड, जूस हैं तो प्रिजर्वेटिवयुक्त। और तो और खुले में मिलने वाली फल और सब्जियां भी कृत्रिम रसायनयुक्त ही मिल रही हैं। क्या इस रसायनयुक्ति से मुक्ति के बगैर गिद्ध-गौरैया का संरक्षण संभव है ?

कीटनाशक और बढ़ते शहरीकरण से बढ़ा खतरा

गौरैया पौधे और मिट्टी में मौजूद जिन कीड़ों को खिलाकर अपने नन्हीं बेटी को पालती थी, उन्हे तो कीटनाशक खा गये। गिद्ध, जिन मृत जीवों को खाकर जीवन पाता था है, वे सब रसायन खा-खाकर इतने जहरीले हो गये हैं कि उन्हे खाने से अब गिद्ध मृत्यु को प्राप्त होता है। तीन रुपये वाले कीमत वाले साधारण नमक को 20 रुपये में बेचने के लिए धरती के जन-जीवन के साथ खिलवाड़ हो रहा है। ज्यादा दूध लेने के लिए भैसों को ऑक्सीटोसिन इंजेक्शन लगाया जा रहा है। भारत का तेल के कोल्हू, गुड़ की कड़ाहियां बंद कराने के बाद अब डॉक्टर कह रहे हैं कि रिफाइंड से साधारण सरसों-तिल तेल अच्छा; चीनी से गुड़ अच्छा। क्या बाजार के लालच पर लगाम लगाये बगैर गिद्ध-गौरैया बच पायेंगे ?

यह सब कुछ बाजार का किया धरा है और उपभोक्ता का भी। बाजार को सुधारना होगा। उपभोक्ता को अपनी पसंद और प्राथमिकतायें बदलनी होंगी। चौथे उपाय के तौर पर हमें शहरीकरण की सीमा बनानी होगी। गांवों के रहन-सहन को शहरीकृत होगा कितना अच्छा है और कितना बुरा; यह सोचना होगा।

हमने छीने उनके ठिकाने

गौर कीजिए कि जब तक खुले में शौच की मज़बूरी थी, गांव के करीब जंगल और झाड़ को समृद्ध रखने की मज़बूरी भी थी। जहां-जहां शौच की नई कमराबंद सुविधा आई, वहां-वहां झाड़ व जंगलों में निपटने की रही-सही जरूरत खत्म हुई। इसका वन्य जीव सुरक्षा कनेक्शन है। निगाह डालिए कि हमने वहां-वहां झाड़-जंगलों को ही निपटाना शुरु कर दिया है। नेवला, साही, गोह के झुरमुट झाड़ू लगाकर साफ कर दिए हैं। भेड़-बकरियों के चारागाह हम चर गये हैं। हंसों को हमने कौवा बना दिया है। नीलगायों के ठिकानों को ठिकाने लगा दिया है। भारत के 77 फीसदी जल ढांचे हमने गायब कर दिए हैं। नतीजा यह है कि झाड़-जंगलों के घोषित सफाई कर्मचारी सियार अपनी डयूटी निपटाने की बजाय खुद ही निपट रहे हैं। इधर बैसाख-जेठ में तालाबों के चटकते धब्बे और छोटी स्थानीय नदियों की सूखी लकीरें इन्हें डराने लगी हैं और उधर इंसान की हांक व खेतों में खड़े इंसानी पुतले। हमने ही उनसे उनके ठिकाने छीने। अब हम ही उन पर पत्थर फेंकते हैं, कहीं-कहीं तो गोलियां भी। वन्य जीव संरक्षण कानून आड़े न आये, तो हम उन्हें दिन-दहाड़े ही खा जायें। बाघों का भोजन हम ही चबा जायें। आखिर वे हमारे खेतों में न आयें, तो जायें, तो जायें कहां ? वन्य खाद्य श्रृंखला तो टूटेगी ही टूटेगी।

यह हम इंसान ही तो हैं, जिन्होंने ऐसे तमाम हालात पैदा करने शुरु कर दिए हैं कि यह दुनिया.. दुनिया के दोस्तों के लिए ही ’नो एंट्री जोन’ में तब्दील हो जाये। लिहाजा, अब इंसानों की गिनती, कुदरत की दूसरी कृतियों के दुश्मनों में होने लगी है। ऐसे में जैव विविधता बचे, तो बचे कैसे ?? आप ही बताइये।

समझ और संवेदना हैं उपाय

सरिस्का के पिछले आंकड़े और नई कोशिशें गवाह हैं कि न अभ्यारण्य इसका उपाय है और न सिर्फ कोई कानून। संवेदना और समझ से ही वन्य जीवन व संपदा का संरक्षण संभव है। हमें अपनी सोच बदलनी होगी। सोचना होगा कि प्रकृति की कोई रचना निष्प्रयोजन नहीं है। हर रचना के नष्ट होने का मतलब है कि कुदरत की गाड़ी से एक पेच या पार्ट हटा देना। सोचना होगा कि कुदरत के सारे संसाधन सिर्फ और सिर्फ इंसानों के लिए नहीं हैं; दूसरे जीव और वनस्पतियों का भी उन पर बराबर हक़ है। हमें प्रकृति व उसकी दूसरी कृतियां को उनका हक़ ही लौटाना होगा। इस हक को लौटाने के लिए उपभोग घटाना होगा; सादगी को शान बनाना होगा; विकास का मॉडल बदलना होगा। क्या हम बदलेंगे ?

अरुण तिवारी

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