जाति व्यवस्था जारी रखने के लिए अब वेदों और उपनिषदों की कोई भूमिका बची नहीं है। वैदिकी आराधना पद्धति की परंपरा मानें तो यज्ञ के अलावा मूर्ति पूजा हो ही नहीं सकती जो मौजूदा हिंदुत्व की बुनियाद है।
मूर्ति पूजा और नस्ली शुद्धता केंद्रित जो मनुस्मृति निर्भर हिंदुत्व है, उसके लिए वेदों और उपनिषदों समेत समूचे वैदिकी साहित्य की प्रासंगिकता इस मुक्त बाजार में बची नहीं है। क्योंकि इसमें चार्वाक परंपरा भी है जो मौलिक भौतिक वादी दर्शन है।
और वैदिकी सभ्यता में जो प्रकृति से सान्निध्य की अटूट परंपरा है जो प्रकृतिक शक्तियों की विजयगाथा है और उनकी उपासना पद्धति है, मूर्तिपूजक मनुस्मृति अनुशासन के हिंदुत्व और हिंदू साम्राज्यवाद के लिए मौजूदा ग्लोबल हिदुत्व के मुक्तबाजार में उसकी कोई प्रासंगिकता है नहीं।
सारे कृषि अभ्युत्थानों के मद्देनजर
दरअसल गौतम बुद्ध और बौद्धमय भारत वर्ष से लेकर हरिचांद गुरुचांद बीरसा मुंडा टंट्या भील सिधो कान्हो रानी दुर्गावती से शुरु कृषि समुदायों के तेभागा और नक्सलबाड़ी तक के सारे कृषि अभ्युत्थानों के मद्देनजर, महात्मा ज्योतिबा फूले से लेकर बाबासाहेब अंबेडकर, पेरियार जोगेंद्र नाथ मंडल, नारायण गुरु के सामाजिक आंदोलन और जयदेव चैतन्य महाप्रभू से लेकर कबीर रसखान रहीम गालिब लालन फकीर आदि से शुरू अटूट संत बाउल फकीर सूफी परंपरा की, भारत में जो प्रगतिवादी धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक आंदोलन है जो पर्यावरण चेतना है, जो जल जंगल जमीन नागिरकता नागरिक मानवाधिकार के हक हकूक की लड़ाई का अनंत सिसलिला है, जो दरअसल भारत राष्ट्र का साझा चूल्हा है, उसे एक मुश्त ठिकाने लगाने के लिए यह गीता महोत्सव है।
पहला नरसंहार क्षत्रियों का, इक्कीस बार
बाकी लोगों का क्या होगा कहना मुश्किल है लेकिन समझना यह भी चाहिए कि महाकाव्य रामायण के मुताबिक ब्राह्मण परशुराम ने अपनी मां की आकांक्षाओं का अनुशासन भंग हो जाने के अपराध में राजकुमारी से ऋषि जमदाग्नि की पत्नी बनने कॆ मजबूर उन्हीं मां का वध किया पिता के आदेश से।
हालांकि पिता के चमत्कार से वे फिर जी उठी और सतीत्व के अनुशासन में बंध गयी हमेशा के लिए। चूंकि मां की आकांक्षाओं में एक क्षत्रिय राजा का अतिक्रमण हुआ, इस अपराध में एक बार दोबार नहीं, तीन बार भी नहीं इक्कीस बार इस भू से भूदेवता परशुराम ने क्षत्रियों का सफाया कर दिया।
नरसंहार संस्कृति का निर्लज्ज आख्यान
नरसंहार संस्कृति का इससे निर्लज्ज आख्यान और उसका धार्मिक आख्यान कहीं नहीं है। गौरतलब है कि आजाद भारत में गांधी के सौजन्य से अब कारोबारी उद्योगपति तबके ने क्षत्रियों को रिप्लेस कर दिया है।
सबसे ज्यादा भूसंपत्ति होने के बावजूद आपस में मारकाट करने वाले राजपूतों की हालत राजनीतिक सत्ता के हिसाब से अछूतों और मुसलमानों की तुलना में भी दो कौड़ी की नहीं है।
राजनाथ सिंह भले ही ऐंठते हों, लेकिन हम वीपी और अर्जुन सिंह जैसे राजपूतों का अंतिम हश्र देख चुके हैं।
आजादी से पहले निरंकुश सता इन्हीं क्षत्रियों का हाथों में थी और रामायण महाभारत महाकाव्यों को जो इतिहास बनाने पर तुला है संघ परिवार, उनके मुताबिक मनुस्मृति अनुशासन लागू करना ही उनके राजकाज का एकमात्र लक्ष्य रहा है।
मनुस्मृति अनुशासन लागू करने के माध्यम बतौर क्षत्रिय वर्ण का सृजन है।
इस कार्यभार के अनुशासन तोड़ने से वे भी बख्शे नहीं गये और इक्कीस बार उनका सफाया हुआ।
सिखों की हुक्म उदुली
यह ऐसा ही हुआ होगा जैसे कि संघ परिवार के मुताबिक विधर्मियों से हिंदुत्व की रक्षा के लिए सिख धर्म है और सिख और बौद्ध और जैन अंततः हिंदू हैं।
बौद्ध अपने को बौद्ध कम कहते हैं। नवबौद्ध दलित कहते हैं और इसी परिणिति के तहत आरक्षण और कोटा भी जाति व्यवस्था को स्वीकार करते हुए उठाने में सबसे आगे रहते हैं। तो जैन धर्म में मनुस्मृति अनुशासन बना हुआ है।
बौद्ध और जैन धर्म को साध लेने के बाद सिखों की हुक्मउदूली और सिखी को हिंदुत्व से अलग धर्म घोषित करने के अपराध में इंदिरानिमित्ते भगवान श्रीकृष्ण और मर्यादा पुरुषोत्तम राम के तमाम रंग बिरंगे परशुरामों ने कम से कम एकबार तो दुनिया से सिखों का नामोनिशान मिटाने का करिश्मा करने का मनुस्मृति अनुशासन का राजकाज निभा दिया।
होइहिं सोई जो राम रचि राखा
अब समझ लीजौ कि सारे शूद्र और सारे अछूत, सारे आदिवासी और सारे मुसलमान, ईसाई, बौद्ध, जैन, सिख और दीगर जाति धर्म नस्ल के लोग सत्ता के भागीदार क्षत्रप सिपाहसालार नहीं हैं और उनके लिए होइहिं सोई जो राम रचि राखा।
ग्रीक महाकाव्य इलियड का फालोअप उन्ही होमर महाशय का ओडिशी है और ओडिशी में ट्रीय के युद्ध के उपरांत जनपदों के विध्वंस की महागाथा है।
बाकी जनता और जनपदों का कोई किस्सा नहीं है
धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे महाविनाश और स्वर्ग मर्त्य पाताल व्यापी आयुधों के ग्लोबल कारोबार के भयंकर जो परिणाम हुए उसका एक मात्र विवरण गांधारी का अभिशाप है और उसके फलस्वरुप मूसल पर्वे यदुवंश ध्वंस है और वब्याध के वाण से भगवान का महाप्रयाण है।
बाकी जनता और जनपदों का कोई किस्सा वैसे ही नहीं है जैसे आधुनिक माडिया में सत्ता संघर्ष और समीकरण के सिवाय न कोई मुद्दा होता है,न कोी जनता होती है और न उनकी सुनवाई होती है और वहां जनपदों की कोई व्यथा कथा है।
कल्कि अवतार का अवतरण
इसी परिदृश्य में कलिकि यानी कल्कि अवतार का अवतरण है और जैसे हम कहते रहे हैं कि सारा धर्म कर्म जो पुरुषतांत्रिक आधिपात्य और सत्ता विमर्श का राजसूय अश्वमेध है और मुक्तबाजारी ग्लोबल हिंदुत्व में वह आर्थिक सुधार का मनुस्मृति अनुशासन पर्व है।
आप चाहे तो इसमें पुरातन प्रगतिवादियों और सर्वोदयी संप्रदाय और गांधीवादियों के संत विनोबा भावे के नेतृ्त्व में इंदिरायुगीन आपातकालीन अनुशासन पर्व का संदर्भ प्रसंग जोड़ सकते हैं जो शायद विषय विस्तार में मदद भी करें।
जो हैं चतुर सुजान
जो हैं चतुर सुजान उसे पहेली बूझने की जरुरत भी नहीं है और जिनके भाग महान वे सीता का वनवास देने वाले मर्यादा पुरुषोत्तम के कल्कि अवतारत्व से भी अनजान नहीं है और महाकाव्यों और मनुस्मृति के साझा राजकाज से देश ही नहीं, समूचे एशिया और सारी दुनिया का क्या रुपांतरण किस तृतीयलिंगे होने वाला है, उससे भी अनजान नहीं हैं वे।
#गीता #Geeta
O- पलाश विश्वास
वेदों और उपनिषदों की कोई भूमिका बची नहीं, इसीलिए गीता
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