व्यंग्य- पानी रे पानी

opinion debate

गर्मी भर पानी पानी पानी का राग अलाप-अलाप कर पागल हुए चले जा रहे थे, लो अब कितना पानी चाहिये। पानी हमारे लिए संघर्ष का स्थाई मुद्दा है, ना हो तब भी और हो तब भी। ना हो तब भी हम किसी विशेषज्ञ की तरह आसमान को निहारते हुए, एक-दूसरे से पूछते हैं कि कब बरसेगा, कब बरसेगा, और हो तब भी आसमान की ओर मुंडी उठा-उठा कर अनन्त की ओर घूरते और भगवान को कोसते रहते हैं कि आखिर कब तक बरसेगा कमबख्त। साल भर से नहीं था तब भी हम बदहवास से बाल्टियाँ लेकर दौड़ते फिरते थे, अब है तब भी हम हैरान-परेशान, पानी के डर से यहाँ-वहाँ भागते फिर रहे हैं, कम्बख्त घर में घुसा चला आ रहा है। घर में जमा पानी को बाल्टियों से उलीच-उलीच कर बेदम हो रहे हैं। किसी भी दिशा के खिड़की दरवाज़े खोलो, पानी मेहरबान नज़र आ रहा है। गर्मी भर तरस गए कि कहीं चुल्लू भर पानी फालतू मिल जाए तो नहाँ लें, अब तो नहाने लायक पानी घर के अन्दर ही जगह-जगह छत से टपक रहा है, वह भी इस गति से मानो छत में नल लगे हों। चाहो तो शॉवर का आनंद ले लो या स्वीमिंग पूल का।

इसी से जुड़ा हुआ एक स्थाई मुद्दा और है, सड़कें उखड़ गई साहब…….., गढ्ढे पड़ गए, चलना मुश्किल है। पानी के लिए भगवान से प्रार्थनाएँ करते वक्त नहीं सोचा था कि सड़क का कोई देवता हो तो उसे भी लगे हाथों प्रसन्न करते चलें। तब सोचना था कि अगर पानी सचमुच आ गया तो सड़कों का क्या होगा। चलो माँगा तो माँगा, ढंग से तो माँगते। पानी के साथ-साथ नाले-नालियों की सफाई की भी माँग करते, पानी की निकासी की उचित व्यवस्था की माँग रखते, लाइफ जैकेटों, बोटों, नावों, डोंगियों इत्यादि की माँग करते, बाकायदा पूरा विस्तृत मेमोरेंडम तैयार करते, आपदा प्रबंधन का पूरा तामझाम माँगते……… खाली पानी माँगकर रह गए, अब भुगतो।

चारों ओर हरियाली की चादर बिछ गई है। यह बात अलग है कि इस हरियाली की चादर में जगह-जगह झाड़-झंकाड़, कूड़ा करकट, पॉलीथिन की थैलियाँ, चिंदे-चिंदियाँ और अस्पताल से बहकर आईं पट्टियों की बाँकी छटा मौजूद है। गटरें अपने सम्पूर्ण माल-असबाब के साथ खूले आम सड़कों पर घूमने निकल पड़ी हैं। सारे जानवर दुबके बैठे है मगर शूकर महाराज अपने पूरे उत्साह के साथ थूथन उठा-उठा कर बारिश का आनंद लेते हुए दावत उड़ा रहे हैं।

अभी महीने भर पहले ही सूनी आँखें और प्यासे कंठ लिए पानी के लिए आसमान ताकते हम अकिंचन अब घर में घुसे चले आ रहे बारिश के पानी और शहर भर की गंदगी से निजात पाने के लिए अब फिर आसमान ताक रहे हैं। आप सब से भी गुज़ारिश है कि समय निकालकर आप भी अपना-अपना आसमान ताकें, ताकि प्यासे मरने से बचे हुए हम गंदे पानी की बाढ़ और बीमारियों से ना मर जाएँ।

प्रमोद ताम्बट

नई दुनिया में प्रकाशित

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