गीतकार शैलेन्द्र के बेटे दिनेश और बेटी अमला से अशोक बंसल की बातचीत
१४ दिसंबर जिस दिन शैलेन्द्र की मृत्यु हुई उस दिन राजकपूर का जन्म दिन भी था
गीतकार शैलेन्द्र के बेटे दिनेश शंकर मुंबई और पुत्री अमला दुबई से पिछले दिनों मथुरा आये ताकि वे अपने पिता के मथुरा को अपनी आँखों में बसा सकें। शैलेन्द्र ने अंग्रेजी जमाने में मथुरा से हाईस्कूल और इंटर किया था और नौकरी की शुरूआत भी मथुरा रेलवे से की थी। दिनेश अपने पिता के बचपन के साथी द्वारिका सेठ के परिवार से मिले। दोनों से हमारी लम्बी बातचीत हुई। प्रस्तुत हैं कुछ ख़ास अंश।
सवाल- आप सब का जन्म मुंबई में हुआ। शैलेन्द्र जी मथुरा को लेकर आपसे क्या बात करते थे ?
दिनेश - हम अपने पिता को बाबा कहते थे। बाबा के मन में मथुरा बसता था। सन १९४६ की एक डायरी हमारे पास है। इस डायरी में मथुरा में आयोजित एक कवि सम्मेलन का जिक्र है। बाबा ने इस कवि सम्मेलन (इस कवि सम्मेलन की अध्यक्षता बलबीर सिंह 'रंग' ने की थी ) में पहली बार कविता पढ़ी थी। एक गोरा भी मौजूद था अपनी दो लड़कियों के साथ। बाबा ने लिखा है कि' मैंने कविता ख़त्म की तो दोनों लड़कियां ''ऑटोग्राफ'' लेने नजदीक आईं। मुझे बेहद खुशी हुई'। बाबा को इस ख़ुशी का अहसास जीवन भर रहा।
सवाल - आपको याद है शैलेंद्रजी के दोस्तों के बारे में ? गीत लिखने के अलावा क्या शौक था ?
दिनेश - हाँ, शंकर जय किशन, एस डी बर्मन, हसरत जयपुरी, राज अंकल (राजकपूर ) सभी आते। खूब महफ़िल जमती। इसके अलावा कवि गोष्ठियां होती। धर्मवीर भारती, अर्जुन देशराज आदि की मुझे याद है। शंकर शम्भू की कव्वाली की मुझे याद है।
उन्हें अंग्रेजी अखबार में क्रॉसवर्ड में दिमाग लगाने का बड़ा शौक था। हम ५ भाई बहिन थे। सभी के साथ संगीत का खेल खेलते थे। किसी गाने की धुन गुनगुनाते थे और फिर हम लोगों से पूछते थे कि यह धुन किस गाने की है। इसीलिए मुझे ६० के दशक के तमाम गाने आज भी याद हैं। मुझे एक वायलिन भी लाके दी थी ।
सवाल - शैलेन्द्र जी इतने सुन्दर गानों की रचना कैसे कर पाते थे ?
दिनेश - बहुत से गीत ऐसे हैं जिनके मुखड़े बातचीत करते, सड़क पर चलते अधरों से यूं ही फिसल जाते थे। बाद में मुखड़े को आगे बढाकर पूरा गीत लिखते थे। जैसे- फिल्म 'सपनों के सौदागर' के प्रोड्यूसर बी. अनंथा स्वामी ने इस फिल्म के लिए एक गाना लिखने को दिया। बाबा का मूड ही नहीं बनता था। काफी वक्त निकल गया। अनंथा स्वामी तकादे पर तकादे करते थे और बाबा उनसे कन्नी काटते। एक दिन अनंस्था स्वामी और बाबा का आमना-सामना हो गया। अनंस्था स्वामी को नाराज देखकर बाबा के मुंह से निकल पड़ा - -'' तुम प्यार से देखो, हम प्यार से देखें, जीवन की राहों में बिखर जायेगा उजाला।'' यह लाइन सुन स्वामी की नाराजगी उड़नछू हो गई और बोले - आप इसी लाइन को आगे बढ़ाइये। इस तरह ' सपनों के सौदागर' फिल्म के इस गाने का जन्म हुआ। इसी तरह १९५५ में आई फिल्म ''श्री ४२०'' के गाने ''मुड़ मुड़ के न देख मुड़ मुड़ के'' के जन्म की कहानी है। बाबा ने नई कार ली थी। अपने दोस्तों को लेकर बाबा सैर पर निकले। लाल बत्ती पर कार रूकी। तभी एक लड़की कार के पास आकर खड़ी हो गई। सभी उसे कनखियों से निहारने लगे। बत्ती हरी हुई तो कार चल पड़ी। शंकर उस लड़की को गर्दन घुमा कर देखने लगे। बाबा ने चुटकी ली-''मुड़ मुड़ के न देख मुड़ मुड़ के'' बस फिर क्या था। सभी चिल्लाये - 'पूरा करो, पूरा करो' कार चलती रही और एक लाइन, दूसरी लाइन और फिर पूरे गाने का जन्म कार में हो गया।
सवाल - राजकपूर और शैलेन्द्र के रिश्तों में एक बार खटास की भी खबर उड़ी थी । सच्चाई क्या है ?
अमला - खटास कभी नहीं आई। हाँ वैचारिक मतभेद '' तीसरी कसम'' के अंत को लेकर जरूर सामने आये। राज अंकल चाहते थे कि फिल्म का अंत सुखद हो। बाबा ने कहा कि अंत ट्रेजिक है तभी तो कहानी टाइटिल "'तीसरी कसम'' को चरितार्थ करती है। बाबा अड़े रहे। इससे राज अंकल बहुत दुखी हुए थे। इसी तरह '' जिस देश में गंगा बहती है'' फिल्म में एक गाना है - -''-कविराज कहे, न राज रहे न ताज रहे न राज घराना। .....'' लोगों ने राज अंकल को भड़काया कि शैलेन्द्र ने इस गाने में आप पर चोट की है। राज अंकल ने शैलेन्द्र के आलोचकों की खिल्ली उड़ाई।
राज अंकल ने बाबा के जाने के बाद हमारे परिवार की बहुत मदद की। बाबा के ऊपर कर्ज देने वालों ने मुकदमे चलाये, तब मदद की। वे मेरी शादी में आये थे। मुझे याद है बाबा के अंतिम संस्कार की तैयारी चल रही थी। राज अंकल हमारे घर में गैराज के पास बेहद दुखी खड़े थे। हम सबने उन्हें बेहद दुखी मन से कहते सुना -''कमबख्त, तुझे आज का दिन ही चुनना था। '' (दरअसल , १४ दिसंबर जिस दिन शैलेन्द्र की मृत्यु हुई उस दिन राजकपूर का जन्म दिन भी था ) राज अंकल से बाबा की दोस्ती का एक नमूना यह है कि बाबा ने जब आर के स्टूडियो की नौकरी शुरू की तब उनकी ५०० रु. पगार थी। आखिरी दम तक यह पगार ५०० रु. ही रही। जबकि बाबा अपने जमाने के सबसे महंगे फिल्मी गीतकार थे।
'जिस देश में गंगा बहती है 'फिल्म में कुल ९ गानों में ८ गाने गाने बाबा के हैं। इन सबका बाबा को सिर्फ ५०० रु. पारिश्रमिक मिला था।
सवाल - शैलेन्द्र इतनी कम उम्र में कैसे चले गए ? सिर्फ ४३ साल की उम्र पाई।
दिनेश - बाबा की मौत की वजह ''तीसरी कसम'' से होने वाला घाटे के बाद मित्रों और रिश्तेदारों का मुंह मोड़ लेना रहा। बाबा वासु भट्टाचार्य से प्रेरित होकर प्रोड्यूसर बने थे। उन्होंने इस फिल्म को बनाने से पहले जो कम्पनी बनाई उसमे ५० फीसदी शेयर अपने और २५- २५ फीसदी शेयर वासु दा और अपने एक साले यानि हमारे आगरा में रहने वाले एक मामा के नाम रखे। यह सब यारी-दोस्ती में हुआ, पैसे का कोई लेनदेन नहीं हुआ। फिल्म रिलीज (१९६६ )हुई तो घाटे की ख़बरें आने लगीं। बाबा ने सोचा कि कर्ज देने वाले वासु और मामा को भी पकड़ेंगे। सो, बाबा ने दोनों को बुलाकर अपने कागजी शेयर 'सरेंडर ' कर मुक्त होने की सलाह दी। दोनों ने समझा बाबा कोई चाल चल रहे है। दोनों नाराज हो गए। यह सदमा बाबा सह नहीं पाये।
बाबा की कलम से अनेक यादगार गाने इस दुखद घटना के बाद निकले। ''ये जिंदगी है अपनी बेबसी, अपना कोई नहीं'' , '' हम तो जाते अपने गांव, सब को अपनी राम राम '' '' मुबारक देने आये थे, मुबारक दे के जाते हैं '' आदि गाने उसी दौर के हैं।
सवाल - शैलेन्द्र अपने जीवन में ही प्रसिद्ध हो गए थे। एक के बाद एक उनके सभी गीतों ने धूम मचा दी थी, फिर भी राष्ट्रीय स्तर पर उन्हें कोई बड़ा पुरूस्कार नहीं मिला ?
दिनेश - बाबा की कोई लॉबी नहीं थी। वह इन सब में यकीन भी नहीं करते थे। हाँ, उनके जाने के बाद भारत सरकार ने बाबा पर डाक टिकिट निकाला। यह सम्मान क्या काम है ?
सवाल - शैलेन्द्र ने अपना शुरूआती वक्त मथुरा में गुज़ारा। आप मथुरा के बुधिद्जीवियों से क्या चाहते हैं ?
दिनेश - जैसे हमने पहले कहा कि बाबा ने मथुरा में कविता लिखना सीखा, यही पले-बढ़े। यहीं पर उनकी कविता का 'बेस' बना। मथुरा में उनके प्राण बसते थे। मथुरा में गरीबी में रहे। मुंबई जाकर सम्पन्नता हासिल की - नौकर -चाकर , गाड़ी-बंगला। पर गरूर कभी नहीं आया। घर में विशाल डायनिंग टेबिल पर नहीं, बल्कि जमीन पर बैठकर -पालथी मारकर खाना कहते थे। अत: इस शहर में उनके नाम का एक स्मारक तो होना ही चाहिए।