‘‘समाजवाद का ध्येय वर्गहीन समाज की स्थापना है। समाजवाद प्रचलित समाज का इस प्रकार का संगठन करना चाहता है कि वर्तमान परस्पर विरोधी स्वार्थ वाले शोषक और शोषित, पीड़क और पीडि़त वर्गों का अंत हो जाए; वह सहयोग के आधार पर संगठित व्यक्तियों का ऐसा समूह बन जाए जिसमें एक सदस्य की उन्नति का अर्थ स्वभावतः दूसरे सदस्य की उन्नति हो और सब मिल कर सामूहिक रूप से परस्पर उन्नति करते हुए जीवन व्यतीत करें।’’
(समाजवाद: लक्ष्य साधन से उद्धृत)
भारतीय समाजवाद का पितामह किसे कहा जाता है?
आज (31 अक्तूबर) भारतीय समाजवाद के पितामह कहे जाने वाले आचार्य नरेंद्र देव की जयंती है। आचार्य जी का जन्म आज के दिन 1889 में यूपी के सीतापुर शहर में हुआ था जहां उनके पिता बलदेव दास वकालत करते थे। उनके पूर्वज स्यालकोट से उत्तर प्रदेश आकर बसे थे। फैजाबाद में उनके दादा कुंजबिहारी लाल का बर्तनों का व्यापार था। आचार्य जी के जन्म के दो साल बाद दादा का निधन होने पर उनके पिता सीतापुर से फैजाबाद आ गए और वहीं वकालत करने लगे।
आचार्य नरेंद्र देव का असली नाम क्या था? | आचार्य नरेंद्र देव का जीवन वृत्त
आचार्य जी का असली नाम अविनाशी लाल था। बाद में संस्कृत के विद्वान माधव मिश्र ने उनका नाम नरेंद्र देव रखा। उनकी स्कूली शिक्षा फैजाबाद में और इतिहास विषय लेकर उच्च शिक्षा इलाहाबाद और बनारस में हुई। इलाहाबाद विश्वविद्यालय से उन्होंने वकालत की परीक्षा भी उत्तीर्ण की और कुछ दिन वकालत की भी। लेकिन उनका अध्ययनशील मन वकालत में नहीं रमा और 1921 में काशी विद्यापीठ में इतिहास के शिक्षक हो गए। उन्होंने इतिहास, पुरातत्व, धर्म, दर्शन, संस्कृति का गहन अध्ययन किया। हिंदी, संस्कृत, प्राकृत पाली, जर्मन, फ्रैंच और अंग्रेजी भाषाओं के ज्ञाता आचार्य जी का अध्ययन अत्यंत विशाल और अध्यापन शैली अत्यंत सरल थी।
ऐसा कहा जाता है कि आचार्य जी मूलतः शिक्षक थे। एक राजनेता की महत्वाकांक्षा और रणनीतिक कौशल उनमें नहीं था, न ही उन्होंने उस दिश में अपनी प्रतिभा को लगाया। वे काशी विद्यापीठ में अध्यापन करने के बाद 1947 से 1951 तक लखनऊ विश्वविद्यालय के और 1951 से 1953 तक बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के कुलपति रहे। उनका अपना जीवन सादगीपूर्ण था और वे गरीब छात्रों की आर्थिक मदद करते थे। छात्रों के साथ उनका रिष्ता बहुत ही प्रेरणादायी था। उनके शिष्यों में भारत के दूसरे प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री, कांग्रेस के वरिष्ठ नेता कमलापति त्रिपाठी और सोशलिस्ट नेता चंद्रशेखर थे।
चंद्रशेखर आचार्य जी की प्रेरणा से राजनीति में आए और अंत तक उन्हें अपना गुरु मानते रहे। एक अध्यापक, चिंतक और समाजवादी नेता के रूप में आजादी और राष्ट्र निर्माण में आचार्य जी का अप्रतिम योगदान है।
आचार्य जी राजनीतिक रूप से कांग्रेस, कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी और आजादी के बाद सोशलिस्ट पार्टी-प्रजा सोशलिस्ट पार्टी में सक्रिय रहे। 17 मई 1934 को पटना में संपन्न हुए कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के स्थापना सम्मेलन की अध्यक्षता उन्होंने की थी और वे उसके पहले अध्यक्ष भी बनाए गए थे। भारत के समाजवादी आंदोलन में जिस तरह से डॉ. लोहिया की ‘पचमढ़ी थीसिस’ मशहूर है, उसी तरह आचार्य जी की ‘गया थीसिस’ भी मशहूर है। आचार्य जी एक चिंतन-पद्धति के रूप में मार्क्सवाद को मानने वाले थे। एक मौके पर उन्होंने कहा कि वे पार्टी छोड़ सकते हैं, मार्क्सवाद नहीं। लेकिन वे ‘कम्युनिस्ट’ नहीं थे। यानी सर्वहारा के नाम पर कम्युनिस्ट पार्टी, उसमें भी एक व्यक्ति या गुट की तानाशाही, उन्हें अस्वीकार्य थी। वे मार्क्सवाद और भारत व बाकी पराधीन दुनिया के राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन में कोई विरोध नहीं देखते थे। वैसे ही वे किसान और मजदूरों की क्रांतिकारी शक्ति के बीच विरोध नहीं, परस्पर पूरकता देखते थे। वे कृषि क्रांति को समाजवादी क्रांति से जोड़ने के पक्षधर थे। इसीलिए उन्होंने अपना ज्यादा समय किसान राजनीति को दिया। भारत के क्रांतिकारी आंदोलन को भी आचार्य जी द्विभाजित नजरिए से नहीं, स्वतंत्रता संघर्ष के इतिहास की विकासमान धारा की संगति में देखते थे।
आचार्य जी भारत की प्राचीन संस्कृति में सब कुछ त्याज्य नहीं मानते थे। उन्होंने, विषेषकर बौद्ध धर्म व दर्शन का गंभीर अध्ययन किया था।
उन्होंने हिंदी में ‘बौद्ध धर्म-दर्शन’ ग्रंथ की रचना की जिसे साहित्य अकादमी ने पुरस्कृत किया। उनके 1936 के एक भाषण का अंश है: ‘‘हमारा काम केवल साम्राज्यवाद के षोषण का ही अंत करना नहीं है किंतु साथ-साथ देश के उन सभी वर्गों के शोषण का अंत करना है जो आज जनता का शोषण कर रहे हैं। हम एक ऐसी नई सभ्यता का निर्माण करना चाहते हैं जिसका मूल प्राचीन सभ्यता में होगा, जिसका रूप-रंग देशी होगा, जिसमें पुरातन सभ्यता के उत्कृष्ट अंश सुरक्षित रहेंगे और साथ-साथ उसमें ऐसे नवीन अंशों का भी समावेश होगा जो आज जगत में प्रगतिशील हैं और संसार के सामने एक नवीन आदर्श उपस्थित करना चाहते हैं।’’ (आचार्य नरेंद्र देव वाड्ंमय, खंड 1)
आजादी के सभी महत्वपूर्ण नेताओं की तरह आचार्य जी का भी जेल आना-जाना लगातार बना रहा। दूसरे महायुद्ध और भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान वे 1940 से लेकर 1945 तक जेल में बंद रहे। सितंबर 1939 में दूसरा महायुद्ध छिड़ने पर अंग्रेजों की भारत को भी युद्ध में षामिल घोषित करने की एकतरफा घोषणा का कड़ा विरोध करते हुए कांग्रेस ने मंत्रिमंडलों से त्यागपत्र दे दिया। 1940 में गांधी जी द्वारा व्यक्तिगत सत्याग्रह शुरू किए जाने पर खराब स्वास्थ्य के बावजूद आचार्य जी उसमें सबसे आगे बढ़ कर शामिल हुए और जेल गए। उन्हें सितंबर 1941 में रिहा किया गया तो गांधी ने उन्हें सेवाग्राम आश्रम में अपने साथ रख कर उनके स्वास्थ्य की देखभाल की। भारत छोड़ो आंदोलन की घोषणा पर अन्य नेताओं के साथ आचार्य जी को भी गिरफ्तार कर लिया गया। वे 15 जून 1945 को रिहा किए गए। गनीमत यही रही कि डॉ. लोहिया की तरह उन्हें आजाद भारत की जेल में नहीं जाना पड़ा।
जेल ने एक तरफ दमे से पीड़ित उनके स्वास्थ्य को काफी नुकसान पहुंचाया, वहीं उन्हें लिखने-पढ़ने का अवकाश भी दिया। मसलन, वसुबंधु के ‘अभिधर्म कोष’ का फ्रैंच से हिंदी अनुवाद उन्होंने 1932 में बनारस जेल में शुरू किया और 1945 में अहमद नगर जेल में पूरा किया, जहां वे जवाहर लाल नेहरू समेत कई नेताओं के साथ बंद थे। अपनी पुस्तक ‘डिसकवरी ऑफ इंडिया’ की भूमिका में नेहरू जी ने कतिपय अन्य साथियों के साथ आचार्य नरेंद्र देव की विद्वता का लाभ उठाने की बात लिखी है।
आचार्य जी गांधी जी तरह नैतिकता को जीवन और राजनीति दोनों की कसौटी मानते थे। आचार्य जी के गंभीर अध्येता अनिल नौरिया ने माना है, ‘‘आचार्य नरेंद्र देव के विचारों की सबसे बड़ी सार्थकता व्यक्ति के नैतिक मूल्यों का समाजिक परिवर्तन की क्रांतिकारी प्रक्रिया से साथ संवर्द्धन कऱने में है। उनका सामजिक परिवर्तन के नैतिक पक्ष पर आग्रह जहां भारतीय दृष्टि से जुड़ा है, सामाजिक शक्तियों के वैज्ञानिक विष्लेषण का आग्रह मार्क्सवादी दृष्टि से। वे निश्चित रूप से मार्क्सवाद की बोल्शेविक धारा में विकसित नैतिकता-निरपेक्ष प्रवृत्ति के विरोधी थे।’’ (आचार्य नरेंद्र देव बर्थ सेंटेनरी वोल्यूम)
1948 में जब सोशलिस्ट कांग्रेस बाहर आ गए और स्वतंत्र सोशलिस्ट पार्टी का गठन कर लिया तो कांग्रेस के टिकट पर जीत कर यूपी विधानसभा के सदस्य बने आचार्य जी और अन्य सोशलिस्टों ने विधायकी से त्यागपत्र दे दिया। हालांकि उस समय न इसकी जरूरत थी, न किसी ने मांग की थी। लेकिन आचार्य जी का मानना था कि कांग्रेस से अलग पार्टी बना लेने के बाद विधानसभा का सदस्य बने रहना नैतिक रूप से उचित नहीं होगा। उपचुनाव में वे खुद और उनके साथी हार गए। सत्ता के मद में चूर कांग्रेस के नेताओं ने चुनाव में आचार्य जी के खिलाफ अत्यंत अशोभनीय प्रचार किया। अलबत्ता खुद नेहरू जी को उनकी चुनावी पराजय पर अचरज हुआ था। गोविंद बल्लभ पंत जैसे उत्तर प्रदेश के कांग्रेसी नेताओं को आचार्य जी का तेजस्वी व्यक्तित्व सह्य नहीं था। हालांकि नेहरू जी के आग्रह पर राजीव गांधी का नामकरण आचार्य जी ने किया था, लेकिन 1989 में पड़ने वाली उनकी जन्मशती मनाने के लिए उनकी कांग्रेस सरकार तैयार नहीं हुई। इसका जो कारण बताया गया वह अजीब था।
29 अक्तूबर 2012 को गांधी शांति प्रतिष्ठान में आचार्य जी की जयंती पर आयोजित अनिल नौरिया के व्याख्यान ‘चिराग और चिंगारी: गांधी और नरेंद्र देव’ के बाद अपने अघ्यक्षीय वक्तव्य में वीरेंद्र कुमार बरनवाल ने बताया कि एक दिन प्रसोपा के अध्यक्ष रहे गंगाशरण सिंह ने उनसे उदास भाव से कहा कि केंद्र सरकार ने आचार्य जी की जन्मशती मनाने के उनके सुझाव को स्वीकार नहीं किया। वे सुझाव लेकर प्रधानमंत्री राजीव गांधी के पास गए थे जिन्होंने उन्हें शिक्षा मंत्री शीला कौल के पास भेज दिया। शीला कौल ने गंगा शरण सिंह को सुझाव दिया कि केंद्र सरकार नेहरू जी की जन्मषती के आयोजन की तैयारियों में व्यस्त हैं; वे आचार्य जी की जन्मशती मनाने के लिए उत्तर प्रदेश सरकार से संपर्क करें। यानी कांग्रेस की नजर में एक अंतर्राष्ट्रीय स्तर का चिंतक प्रांतीय नेता भर है! कांग्रेस का यही रुख 2010-11 में पड़ी डॉ. राममनोहर लोहिया की जन्मशती के अवसर भी देखने को मिला। सुरेंद्र मोहन ने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, जिनके पास संस्कृति मंत्रालय भी था, को डॉ. लोहिया की जन्मशती मनाने का औपचारिक निवेदन भेजा। उस पत्र का जवाब देना भी कांग्रेस सरकार ने मुनासिब नहीं समझा।
आचार्य जी को उनकी जयंती पर याद करते हुए भारत के आज के राजनीतिक, बौद्धिक और नागरिक समाज परिदृष्य पर काफी अफसोस होता है। आजादी के संघर्ष के आंदोलन में जुटे हमारे नेता कितने विचारशील और गहरी अंतदृष्टि वाले थे।
प्रेम सिंह