/hastakshep-prod/media/post_banners/a75gMC4G1Bi4GC9wlPnR.jpg)
मॉब लिंचिंग की वकालत Advocating mob lynching
आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने 8 अक्टूबर 2019 को अपने वार्षिक दशहरा संबोधन (Annual Dussehra address by RSS chief Mohan Bhagwat) में कहा कि लिंचिंग की अवधारणा (Lynching concept) भारतीय नहीं है. उन्होंने एक विदेशी शब्द, ‘लिंचिंग’, के प्रयोग पर आपत्ति व्यक्त करते हुए कहा कि जिसे लिंचिंग बताया जा रहा है, दरअसल, वे ‘सामाजिक हिंसा की इक्का-दुक्का वारदातें हैं’. “हमारे देश में इस तरह की घटनाएं नहीं होतीं.... यह शब्द उन घटनाओं के लिए है जो कि विदेशों में होती हैं”, उन्होंने कहा.
यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि श्री भागवत ‘लिंचिंग’ शब्द के प्रयोग पर आपत्ति कर रहे हैं. इस शब्द का प्रयोग अत्यंत घृणित और कुत्सित घटनाओं के लिए किया जाता है. दरअसल, निंदा तो उस अमानवीय और क्रूर हिंसा की होनी चाहिए, जिसके लिए लिंचिंग शब्द का इस्तेमाल होता है. यह करने की बजाए, भागवत, लिंचिंग शब्द के प्रयोग को असली समस्या बता रहे हैं. उनका शायद यह मानना है कि लिंचिंग, रोजमर्रा की जिंदगी में होने वाली हिंसा की सामान्य घटनाओें की तरह ही है. वे कहते हैं कि माब लिंचिंग शब्द का प्रयोग हिन्दुओं को बदनाम करने के लिए किया जा रहा है और यह एक षड़यंत्र है.
भारतीय भाषायी मीडिया, ‘लिंचिंग’ शब्द का इस्तेमाल कम ही करता है. उर्दू मीडिया इस तरह की घटनाओं को ‘भीड़ तशद्दुद’ कहता है. अन्य भाषायी समाचारपत्र भी इसके लिए उन शब्दों का प्रयोग करते हैं, जिससे भीड़ द्वारा किसी व्यक्ति पर जानलेवा हमले का चित्र खिंचता हो. क्या किसी घटना के लिए एक शब्द के स्थान पर दूसरे शब्द के प्रयोग से उसके पीड़ितों और उनके परिवारों का दर्द कुछ कम हो जाएगा? भागवत और संघ परिवार, माब लिंचिंग पीड़ितों की यंत्रणा के प्रति भारत के लोगों को संवेदनहीन बनाना चाहते हैं. वे माब लिंचिंग को हिंसा की अन्य घटनाओें के समकक्ष रखना चाहते हैं. इस तरह की घटनाओं को भागवत ने ;अवांछनीय’ बताया है. परंतु यह केवल उनका स्वयं को भारत का एक जिम्मेदार नागरिक बताने का प्रयास भर है. संघ परिवार के अन्य नेता, माब लिंचिंग को न केवल औचित्यपूर्ण ठहराते हैं वरन् उन्हें बढ़ावा भी देते हैं. संघ परिवार के किसी भी नेता ने शायद ही कभी माब लिंचिंग की घटनाओं की स्पष्ट शब्दों में निंदा की होगी. भाजपा सरकार में केन्द्रीय मंत्री जयंत सिन्हा ने 7 जुलाई 2018 को झारखंड के रामगढ़ में अलीमुद्दीन अंसारी की पीट-पीटकर हत्या के मामले में दोषी करार दिए गए आठ अभियुक्तों का माला पहनाकर स्वागत किया था. अंसारी को सौ लोगों से अधिक की खून की प्यासी भीड़ ने 29 जून, 2017 को मौत के घाट उतार दिया था.
भाजपा के नेतृत्व वाली केन्द्र सरकार, तीन तलाक को अपराध घोषित करने संबंधी कानून को संसद से पारित करवाने की बहुत जल्दी में थी. उसने इस कानून को संसद की मंजूरी दिलवाने के लिए कई बार प्रयास किए. सरकार का तर्क था कि सुप्रीम कोर्ट ने इस तरह का कानून बनाने की सिफारिश की है. सुप्रीम कोर्ट ने सरकार से माब लिंचिंग के संबंध में भी एक अलग कानून बनाने के लिए कहा है परंतु सरकार की इसमें कोई रूचि नहीं दिखती. तीन तलाक कानून बनाने की जल्दी और माब लिंचिंग कानून बनाने में हिचकिचाहट - दोनों ही राजनीति से प्रेरित हैं.
लिंचिंग क्या है? What is lynching?
सबसे पहले हम यह समझने का प्रयास करें कि जिन घटनाओं को अंग्रेजी मीडिया लिंचिंग कहता है, वे हिंसा की अन्य घटनाओं से किस तरह भिन्न हैं. इस अंतर को हम ऐसी दो घटनाओं की तथ्यान्वेषण रपट से समझने का प्रयास करेंगे.
इन दोनों ही घटनाओं की जांच करने वाले दलों मे यह लेखक भी शामिल था. पहली घटना 10 अप्रैल 2019 को झारखंड के गुमला जिले के डूमरी ब्लाक में हुई थी. इसमें प्रकाश लकड़ा की मौत हो गई थी और दो अन्य व्यक्ति घायल हुए थे. इस घटना की जांच के लिए सेंटर फॉर स्टडी ऑफ़ सोसायटी एंड सेक्युलरिज्म (Center for Study of Society and Secularism) ने जांच दल का गठन किया था.
दूसरी घटना 22 सितंबर, 2019 को खूंटी जिले के कर्रा ब्लाक में हुई थी, जिसमें क्लेमेटियस बर्ला मारे गए थे और दो अन्यों को चोट आई थीं. इस घटना की जांच एसएएफएफओआरबी-इंडिया द्वारा की गई थी. इस दल की जांच रपट 5 अक्टूबर 2019 को रांची में मीडिया के समक्ष जारी की गई.
दोनों मामलों में हमलावर भीड़ का आरोप था कि पीड़ित, गाय का वध कर उसका मांस आपस में बांट रहे थे. गुमला जिले की घटना में पीड़ित एक मृत बैल की खाल उतार रहे थे. झारखंड के इस इलाके में हिन्दू अपने मृत मवेशियों को ठिकाने लगाने के लिए ओरांव आदिवासियों को सौंपते रहे हैं. अपनी गरीबी के कारण ओरांव आदिवासी इन मृत मवेशियों के मांस का भक्षण करते हैं, जबकि इसमें कई खतरे हैं.
घटना के दिन करीब 40-50 लोगों की भीड़ ने मृत बैल की खाल उतार रहे आदिवासियों की लगभग चार घंटे तक बेरहमी से पिटाई की. तब तक आधी रात हो गई थी. फिर उन्होंने पुलिस से संपर्क कर कहा कि पीड़ितों के खिलाफ गौवध करने का मुकदमा कायम किया जाना चाहिए.
पुलिस ने भीड़ के सदस्यों से तीनों घायलों को पुलिस थाने लाने के लिए कहा. यह तब जब कि अस्पताल, घटनास्थल से पुलिस थाने के रास्ते पर था.
लिंचिंग करने वालों ने एक गाड़ी का इंतजाम किया और घायलों को थाने के प्रांगण में ले जाकर पटक दिया.
वहां भी हमलावरों और पुलिस, दोनो ने पीड़ितों को पीटा. आखिरकार, पुलिस सुबह चार बजे दो घायलों को लेकर अस्पताल पहुंची. तब तक प्रकाश लकड़ा की मौत हो चुकी थी.
खूंटी जिले के सुआरी गांव मे मुंडा समुदाय के ईसाई आदिवासी, बड़पहाड़ी नामक अपना त्यौहार मना रहे थे. यह एक प्राचीन आदिवासी त्यौहार है, जिसे ईसाई धर्म अपना चुके आदिवासी भी मनाते हैं. नदी के पास कुछ आदिवासी एक मृत बैल को साफ कर उसका मांस बांट रहे थे. इस प्रथा को डांगरी कहते हैं. करीब आठ बजे, पन्द्रह से बीस लोग, जो लाठियां और अन्य हथियार लिए हुए थे, वहां पहुंच गए. वे सभी अन्य गांवों से थे और तीन से दस किलोमीटर दूर से वहां पहुंचे थे. इससे जाहिर है कि घटना पूर्व नियोजित थी.
जो लोग बैल को साफ कर रहे थे, वे तो वहां से भाग निकले परंतु उस समय आसपास के खेतों में मौजूद अन्य लोग भीड़ का शिकार बन गए.
क्लेमेटियस बर्ला, जिनकी इस घटना में मौत हो गई, अपंग थे और नदी में नहा रहे थे. भीड़ ने उन्हें पकड़ लिया और उनकी जमकर पिटाई की.
यही एक पड़ोसी गांव के हिन्दू निवासी फागू कच्छप के साथ हुआ, जो अपने खेत में सिंचाई कर रहा था. घायलों में से एक, कुशल होरे, ने जांच दल को बताया कि “हम लोगों से कुछ भी पूछे बिना उन्होंने हमारी पिटाई शुरू कर दी”.
जांच दल इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि लिंचिंग की दोनों घटनाएं पूर्व नियोजित थीं और उनके पीड़ितों को बहुत सावधानीपूर्वक चुना गया था. वे सभी गरीब थे, आदिवासी थे और ईसाई थे.
मॉब लिंचिंग के पीड़ित Victims of mob lynching
गरीब ईसाई और वो भी आदिवासी, न तो हमलावरों का मुकाबला कर पाते हैं और ना ही मीडिया के जरिए अपनी आवाज उठा पाते हैं. उनका साथ कोई नहीं देता - न तो मीडिया, न शासकीय तंत्र और ना ही समाज. यहां तक कि चर्च भी उनसे किनारा कर लेता है क्योंकि वह राजनैतिक विवाद में फंसना नहीं चाहता. चर्च को हमेशा यह डर सताता रहता है कि सत्ताधारियों का विरोध करने पर उसे धर्मांतरण करवाने के आरोप में कटघरे में खड़ा कर दिया जाएगा.
इन दोनों ही मामलों के पीड़ित, गरीब, ईसाई, आदिवासियों के विरूद्ध झारखंड गौवंश (वध निषेध) अधिनियम 2005 (The Jharkhand Gauvansh (Prohibition of Slaughter) Act 2005) के अंतर्गत प्रकरण दायर कर दिए गए. इसका नतीजा यह हुआ कि लिंचिंग करने वाली भीड़ के खिलाफ एफआईआर दर्ज करने की बजाए, पीड़ित, गौवध के आरोप में अपनी गिरफ्तारी से बचने के लिए अपने गांवों से भागने पर मजबूर हो गए.
यह विडंबना ही है कि पीड़ितों के खिलाफ प्रकरण पहले दर्ज किया जाता है और उनके साथ हिंसा करने वालों के खिलाफ बाद में.
झारखंड में लिंचिंग की एक अन्य घटना के शिकार तबरेज अंसारी और उनके साथियों के खिलाफ चोरी का मुकदमा दर्ज किया गया था. राजस्थान के अलवर में, पहलू खान और उनके पुत्र पर, राजस्थान गौवध निषेध अधिनियम के तहत मुकदमा दर्ज किया गया. खूंटी जिले की घटना के मामले में पुलिस ने जांचदल की यात्रा के समय तक पीड़ितों के विरूद्ध मुकदमा दर्ज नहीं किया था. यह एक अपवाद था. इसके अतिरिक्त, इस मामले में पुलिस घायलों को तुरंत अस्पताल ले गई, यद्यपि क्लेमेटियस की अस्पताल में इलाज के दौरान मौत हो गई.
ईसाई आदिवासियों को सुनियोजित ढंग से भीड़ की हिंसा का शिकार इसलिए बनाया जाता है ताकि यह प्रचार किया जा सके कि ईसाई, गौ माता का वध करते हैं. इससे ईसाई समुदाय, साम्प्रदायिक आधार पर ध्रुवीकृत हो जाता है और ईसाई व गैर-ईसाई आदिवासियों के बीच शत्रुता का भाव पनपता है.
लिंचिंग करने वाली भीड़ की प्रकृति और उसके उद्देश्य
लिंचिंग करने वाली भीड़ के अधिकांश सदस्य संबंधित इलाके की वर्चस्वशाली हिंदू जाति से होते हैं. वे गौरक्षा के मुद्दे को अपना वर्चस्व कायम रखने के लिए इस्तेमाल करते हैं.
गुमला जिले के डूमरी ब्लाक में जिस भीड़ ने लिंचिंग की उसके सदस्य साहू समुदाय से थे. प्रकाश लकड़ा को पीट-पीटकर जान से मारने के अपराध में गिरफ्तार संजय साहू एक कुख्यात हिस्ट्रीषीटर हैं, जिन पर पहले से ही हत्या और अवैध वसूली के अनेक प्रकरण दर्ज हैं. कई साहुओं ने आदिवासियों की जमीनों पर अपने ईट भट्टे लगा रखे थे और वे वहां की मिट्टी का प्रयोग ईटें बनाने के लिए करते थे. इसके बदले में आदिवासियों को एक फूटी कौड़ी भी नहीं दी जाती थी. प्रकाश लकड़ा को मारकर, संजय साहू, दरअसल, अपने चमचों और अपने समुदाय का वर्चस्व बनाए रखने का प्रयास कर रहे थे. यह न तो उनके द्वारा की गई पहली हत्या थी और ना ही आखिरी. गौरक्षा उनके लिए धार्मिक आस्था न होकर अपने सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक हितों की रक्षा करने का औजार था.
संजय साहू का राजनीति के क्षेत्र में कितना दबदबा है यह इससे जाहिर है कि स्थानीय भाजपा सांसद सुदर्शन भगत के विजय जुलूस का समापन उनके गांव जयरागी में हुआ था. जयरागी न तो संसदीय क्षेत्र का अंतिम छोर है और ना ही उसका कोई और महत्व है.
ऐसा आरोपित है कि खूंटी जिले की घटना के आरोपी, बजरंग दल के सदस्य थे. वे सभी राजपूत थे. उनके नाम परमानंद सिंह, रवीन्द्र कुमार सिंह, भुवनेश्वर सिंह और पुष्पराज थे. कुछ लोगों ने जांचदल को बताया कि उस क्षेत्र में पहले भी माब लिंचिंग की घटनाएं हो चुकी हैं परंतु पीड़ित कभी भी हमलावरों के खिलाफ रपट लिखवाने की हिम्मत नहीं जुटा सके. कुछ मामलों में वे पुलिस तक पहुंचे भी परंतु उन्हें थानों से भगा दिया गया.
लिंचिंग व साधारण अपराध
लिंचिंग और अन्य अपराधों के बीच अंतर, उनके लक्ष्य और उन्हें अंजाम देने के तरीकों में है. लिंचिंग, खुलेआम, सार्वजनिक रूप से सबको दिखाते हुए और कानून के बिना किसी डर के की जाती है. साधारण अपराध चुपचाप किए जाते हैं और अपराधी चाहते हैं कि वे किसी भी तरह कानून के शिकंजे से बचे रहें.
आतंकी हमलों, जातिगत हिंसा और साम्प्रदायिक दंगों में निशाने पर किसी समुदाय के सभी सदस्य होते हैं. इसके विपरीत, लिंचिंग करने वाली भीड़, व्यक्तियों को निशाना बनाती है. उन्हें इस या उस अपराध का दोषी बताया जाता है. और इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता की उनके खिलाफ लगाए जा रहे आरोप सही हैं या गलत. हिंसक भीड़ के अधिकांश सदस्य समाज के वर्चस्वशाली वर्गों के होते हैं और उन्हें राज्य का संरक्षण प्राप्त होता है.
भीड़ के निशाने पर जो लोग होते हैं, वे पूर्णतः उसके नियंत्रण में होते हैं और उनसे जो चाहे करवाया जा सकता है - फिर वह चाहे जय श्रीराम या भारत माता की जय के नारे लगाना हो या मानव मल खाना.
लिंचिंग करने वाली भीड़ के सदस्यों के समुदाय को उनकी हरकत पर कोई पछतावा या दुःख नहीं होता. यह सचमुय घोर आश्चर्यजनक है. कोई भी मनुष्य भला कैसे किसी अन्य मनुष्य के साथ हुई क्रूर हिंसा के प्रति संवेदनहीन हो सकता है? जहां साम्प्रदायिक दंगे मुख्यतः शहरी क्षेत्रों में होते आए हैं वहीं माब लिंचिंग, ग्रामीण समाज को ध्रुवीकृत करने का हथियार बन गई है. संघ परिवार इसका प्रयोग हिन्दू श्रेष्ठतावादी राजनैतिक विचारधारा को गांवों तक ले जाने के लिए कर रहा है.
आश्चर्य नहीं कि संघ परिवार को लिंचिंग करने वाली भीड़ से कोई शिकायत नहीं होती.
आश्चर्य नहीं कि संघ परिवार लिंचिंग की घटनाएं रोकने के लिए कोई कड़ा कानून बनाए जाने के सख्त खिलाफ है.
‘लिंचिंग’ शब्द को विदेशी बताकर भागवत और संघ परिवार के अन्य सदस्य सामान्य हिंसा और माब लिंचिंग के बीच के अंतर को समाप्त करना चाहते हैं. उनमें से कुछ को इस तरह की घटनाओं से कोई तकलीफ नहीं है और कुछ तो इनका महिमामंडन भी करते हैं.
सच यह है कि लिंचिंग करने वाली भीड़ न केवल मानवता और कानून के राज वरन् हिंदू धर्म की भी कब्र खोद रहीं हैं.
- इरफान इंजीनियर
(अंग्रेजी से अमरीश हरदेनिया द्वारा अनुदित)