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अरुणा शानबाग से निर्भया तक, क्या बदला ?

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hastakshep
18 May 2017

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अरुणा शानबाग की याद में

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18 मई, 2015 को 62 साल की अरुणा रामचंद्र शानबाग की 42 वर्षों तक लगातार कोमा में रहने के बाद मृत्यु हो गई थी। वे कोई असाधारण महिला नहीं थीं। पर उनके जीवन और मौत में कुछ तो असाधारणता थी, जिसने संवेदनशील लोगों, बुद्धिजीवियों और महिला अधिकार के लिए लड़ने वाले लोगों के दिलो-दिमाग में एक जुंबिश पैदा की। अरुणा की मौत ने एक बार फिर उन सवालों को जलते अंगारों के रूप में सामने रखा, जिनसे आंखें चुरा पाना संभव नहीं।

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44 साल पहले मुंबई के केइएम अस्पताल में कार्यरत नर्स अरुणा के साथ अस्पताल के ही बेसमेंट में बर्बर बलात्कार हुआ था। वह उस समय 25 वर्ष की थीं और जल्दी ही उनकी शादी होने वाली थी।

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अरुणा के साथ बलात्कार अस्पताल के ही एक वार्ड ब्वॉय सोहन लाल ने किया था जो पहले से ही उन पर बुरी नज़र रखता था। बलात्कार किए जाने के पहले उसने अरुणा के गले में कुत्ते की चेन बांध दी थी, जिससे उनके मस्तिष्क में ऑक्सीजन का प्रवाह रुक गया और वह कोमा में चली गईं। सोहन लाल को गिरफ़्तार कर लिया गया, पर सबूतों के अभाव में उस पर बलात्कार का मुकदमा नहीं चल सका। कोमा में चली जाने के कारण अरुणा कोई बयान दे पाने में असमर्थ थीं। मेडिकल जांच में बलात्कार की पुष्टि नहीं हो सकी। पता नहीं, डॉक्टरों पर किस तरह का दबाव था। पर बाद में की गई मेडिकल जांच में अरुणा के साथ बलात्कार की पुष्टि हुई, लेकिन अभियुक्त सोहन लाल पर सिर्फ़ हत्या के प्रयास और लूट का मामला दर्ज हुआ। उसने अरुणा की सोने की चेन और सगाई की अंगूठी छीन ली थी।

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सोहन लाल को महज़ सात साल की सजा हुई। और अरुणा शानबाग अगले 42 वर्षों तक जिंदा लाश बनी केइएम अस्पताल के वार्ड नंबर-4 में जीवन और मौत से अनभिज्ञ पड़ी रही।

इन 42 वर्षों के दौरान केइएम अस्पताल की नर्सों ने अरुणा शानबाग की जो सेवा की, वह मेडिकल इतिहास में बेमिसाल है। उनकी मृत्यु के बाद वहां की नर्सों को एक अजीब-से खालीपन ने घेर लिया था। यद्यपि अरुणा शानबाग के कोमा में होने के कारण उनका अस्तित्व महज भौतिक रूप में ही था, पर इतना भी वहां की नर्सों को संबल प्रदान करता था और उनके अपने अस्तित्व को भी रेखांकित करता था।

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अरुणा शानबाग के नहीं रहने पर अब सिर्फ़ उनकी यादें हमारे साथ मौजूद हैं। बहरहाल, इतने साल गुज़र जाने के बावजूद आज भी समाज में स्त्रियों की दोयम दर्जे वाली स्थिति बरक़रार ही है। यह स्थिति निम्न वर्ग से लेकर तमाम वंचित वर्ग की स्त्रियों के साथ है।

मध्य और उच्च वर्ग की महिलाओं के साथ बर्बर बलात्कार की वारदात कम ही होती है कुछ अपवादों के सिवा। यह अलग बात है कि यौन शोषण के मामले हर वर्ग और समुदाय की स्त्रियों के साथ कमोबेश होते ही हैं, पर निम्न और वंचित वर्ग की स्त्रियां बलात्कारियों की आसान शिकार होती हैं। स्त्रियों को अपना शिकार बनाने वाले भेड़िये तरह-तरह के रूप में घूमते नज़र आते हैं। ये आवारागर्द तत्वों से लेकर दबंग अपराधी और अय्याश अमीरजादे तक होते हैं जिन्हें न पुलिस का भय होता है, न ही न्यायालय का, क्योंकि अपने अनुभवों और पूर्व उदाहरणों से ये भली-भांति समझ जाते हैं कि कानून उनका कुछ भी नहीं बिगाड़ सकता, अगर वे किसी भी तरह उसे अपने पक्ष में प्रभावित करने की क्षमता रखते हैं।

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अरुणा शानबाग के मामले में कानून अपना काम कर पाने में असफल रहा। वह एक बर्बर अपराधी के पक्ष में झुक गया। ऐसा क्यों? इसलिए कि ऐसी लोमहर्षक घटना को किसी ने गंभीरता से नहीं लिया। न अस्पताल प्रशासन, न पुलिस और न ही न्यायालय ने इस मामले में संवेदनशीलता दिखाई। सबूत इकट्ठे नहीं किए गए। मेडिकल जांच में डॉक्टरों ने कोताही बरती, क्योंकि अरुणा एक सामान्य नर्स थी। दूर-दराज के किसी गांव से नौकरी करने मुंबई जैसे महानगर में आई थी। हज़ारों-लाखों ऐसी औरतें गांवों से पलायन कर रोज़ी-रोज़गार के लिए महानगरों में आती हैं। कौन उनकी इज़्ज़त की परवाह करता है!

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इतना ही नहीं, स्त्रियों की इज़्ज़त की जो गलत अवधारणा भारतीय मानस में गहराई से जड़ जमाये हुए है, वह भी बलात्कार की संस्कृति को बढ़ावा देने के लिए ज़िम्मेदार है।

बलात्कार या यौन शोषण का मामला सामने आने पर परिवार के लोग उसे दबाना चाहते हैं। उनका मानना होता है कि मामला प्रकाश में आ जाने पर परिवार की बेइज़्ज़ती होगी। यही कारण है कि बलात्कार के अधिकांश मामलों में पुलिस में  रिपोर्ट होती ही नहीं।

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अरुणा शानबाग मामले में भी उसके होने वाले पति ने पुलिस में शिकायत दर्ज कराए जाने का विरोध किया था। दूसरी तरफ, पुलिस में मामला दर्ज कराए जाने के बावजूद न्यायिक प्रक्रिया की विसंगतियों के कारण शायद ही पीड़िताओं को न्याय मिल पाता है।

बलात्कार के बाद अरुणा शानबाग के जिंदा लाश में बदल जाने के बाद ‘ऐच्छिक मृत्यु’ का मुद्दा जोर-शोर से उठा और उसे न्यायालय से वैधता भी मिली। ये अलग बात है कि अरुणा शानबाग की सेवा में लगी नर्सों ने इसे उन पर लागू किए जाने से इनकार कर दिया।

भारतीय समाज और संस्कृति में बलात्कार की जड़ें बहुत ही गहरी हैं। अभिजात वर्ग बलात्कार को अपना परमाधिकार समझता रहा है। सामंती समाज से लेकर आज भी बलात्कार स्त्रियों पर अत्याचार का औज़ार बना हुआ है।

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बलात्कार की हर घटना के बाद जब इसका बड़े पैमाने पर विरोध होता है तो लगता है कि इस प्रवृत्ति पर कुछ लगाम लगेगी। लेकिन बलात्कार के मामलों पर कानून सख्त किए जाने की जितनी बात होती है, बलात्कार की घटनाएं और भी बढ़-चढ़ कर सामने आने लगती हैं, मानो बलात्कारी कानून और शासन व्यवस्था को खुलेआम चुनौती देना चाहते हों। 2012 में दिल्ली निर्भया गैंगरेप की घटना के बाद बलात्कार संबंधी कानूनों की पुनर्समीक्षा की गई और इस संबंध में नए सिरे से कानूनों को परिभाषित किया गया। लेकिन कानून के भय से बलात्कार की घटनाओं में कोई कमी नहीं आई, बल्कि ये घटनाएं बढ़ी ही हैं।

अब निर्भया गैंगरेप के दोषियों की फांसी की सजा सुप्रीम कोर्ट ने बहाल रखी है, पर इसके बावजूद बलात्कार की घटनाएं रुक नहीं रहीं। अपराधियों में कानून का ख़ौफ नहीं है। 

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इससे स्पष्ट होता है कि बलात्कार की समस्या कानून-व्यवस्था से जुड़ी समस्या नहीं है, बल्कि यह समाज व्यवस्था से जुड़ी समस्या है। अमीरी-गरीबी और शोषण-दमन पर आधारित इस व्यवस्था में बलात्कार को मिटा पाना संभव नहीं है।

पुरुष वर्चस्व और हर स्तर पर स्त्री उत्पीड़न शोषणमूलक व्यवस्था का अपरिहार्य गुणधर्म है। यह व्यवस्था हज़ारों वर्षों से बदस्तूर कायम है। कानूनी उपायों और सुधारवादी प्रयासों से बलात्कार और स्त्री उत्पीड़न के विविध रूपों को समाप्त नहीं किया जा सकता है। स्त्री की वास्तविक आजादी एक समतावादी समाज में ही संभव है। शोषण पर आधारित सामाजिक व्यवस्था में स्त्री का स्थान दोयम दर्जे का है और रहेगा, इससे इनकार नहीं किया जा सकता। यह ऐतिहासिक तथ्य है। स्त्री उत्पीड़न के रूप पूरी दुनिया में कमोबेश एक ही हैं। इसलिए स्त्री मुक्ति का संघर्ष सामाजिक व्यवस्था के बदलाव के संघर्ष से अलहदा नहीं हो सकता।

वीणा भाटिया

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