विद्या भूषण रावत
अनुसूचित जाति जनजाति अधिनियम के विषय में सुप्रीम कोर्ट के फैसले से कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए। कोर्ट ने निर्देश दिया कि इस कानून के तहत किसी भी सरकारी अधिकारी पर एफ़आईआर दर्ज नहीं की जा सकेगी, क्योंकि पहले एक डीएसपी रैंक के अधिकारी जांच करें और फिर उसके बाद कार्यवाही हो। कोर्ट ने इस सन्दर्भ में जस्टिस ए के गोयल और जस्टिस यू इ ललित की एक खंडपीठ ने कुछ गाइडलाइन्स दी हैं जो निम्न हैं और जिनका उद्देश्य इस कानून के दुरुपयोग को रोकना है :
1. अनुसूचित जाति जनजाति अधिनियम के तहत किसी को भी एंटीसिपेटरी बेल पर कोई प्रतिबंध नहीं है यदि प्राथमिक निष्कर्ष में आरोप सही नहीं है।
2. यदि ये साबित हो गया कि अधिकारी ने कानून का उल्लंघन किया है तो भी उसकी गिरफ़्तारी उसके सीनियर नियुक्ति प्राधिकारी की अनुमति के बिना नहीं हो पायेगी। जो व्यक्ति सरकारी नौकरी में नहीं है, उनके लिए एसएसपी की अनुमति की जरुरत पड़ेगी।
3. किसी भी अवांछित आरोप से बचने के लिए डीएसपी रैंक के अधिकारी की जांच आवश्यक होगी ताकि 'निर्दोष' पर आरोप न लग सके।
4. अगर आरोप गलत पाए गए तो झूठा मुकदमा बनाने के विरुद्ध कार्यवाही होगी।
हम सभी चाहते हैं कि ऐसा कभी नहीं हो कि निर्दोषों को सजा मिले, लेकिन इन मापदंडों की आड़ में इस कानून के साथ खिलवाड़ की संभावनाए बढ़ गयी हैं। वैसे ही पुलिस इन मामलो में मुकदमे दर्ज नहीं करती। आज तक जनता के दवाब आने पर ही बहुत मुश्किल के बाद पुलिस प्रशासन ने एससी/ एसटी एक्ट के तहत मुक़दमा दर्ज किया है अब इस बात का खतरा बढ़ जाएगा कि गाँव का गरीब व्यक्ति, जो भी अपना दुखड़ा लेकर पुलिस के पास जायेगा, उस पर उलटे ही मुक़दमे की तलवार लटकेगी। ये खतरनाक है। वैसे भी इस क़ानून के दुश्मन तो बहुत लोग पहले से ही हैं और उन्होंने ये निश्चित कर लिया था कि इस कानून को कभी लागू होने नहीं देंगे। अब खतरा बढ़ गया है।
एक सवाल पूछा जाना चाहिए कि इस कानून के तहत अभी तक कितना कन्विक्शन हुआ है। इस कानून को असफल बनाने के हर तरीके के प्रयास हुए हैं। ऐसा नहीं हैं कि कोर्ट इसमें अकेले हैं। बहुत बड़ी-बड़ी पार्टियों के नेताओं ने तो इसे ख़त्म करने की बात भी की थी। हमें नहीं भूलना चाहिए उत्तर प्रदेश के चुनावो में, तमिलनाडु में तथाकथित द्रविड़ियन और बहुजन पार्टियों ने भी इसके खिलाफ आवाज बुलंद की। सवाल ये है कि इस क़ानून से आखिर सभी को इतनी दिक्कत क्यों है ? क्या सुप्रीम कोर्ट ने ये नहीं पूछा कि कितने मामलों में ये एक्ट लग रहा है। दलितों पर अपराध बढ़ रहे हैं और सरकारें कुछ नहीं करतीं, उलटे चालाकी से कोर्ट का सहारा लेकर उसको ध्स्वत करनी की कोशिश करती हैं।
सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पढ़ना पड़ेगा और राजनैतिक दलों को इसमें पहल करनी होगी। क्या राजनैतिक दल जिन्होंने भूतकाल में इसके विरुद्ध बोला वे अपनी बात में सुधार कर, इस कानून को और मज़बूत करने के बात कहेंगे।
मेरा तो कहना है कि इस कानून को इतना मज़बूत बनाया जाए कि इसका उल्लंघन ही न हो पाए। लेकिन क्या लोगों को इस कानून का डर है ? आज दलितों आदिवासियों के ऊपर जो हिंसा बढ़ रही है उससे क्या हमारे नेताओं को या कोर्ट को समझ नहीं आ रहा है कि इस कानून के लागू होने को पूर्णतः नाकाम करने की कोशिश की जा रही है।
समय आ गया है कि हमें इस कानून को मज़बूत करने के लिए प्रयास करने होंगे। न्यायपालिका का सहारा लेकर राजनैतिक दल अपनी कन्नी नहीं काट सकते। कोर्ट को ये भी जानना चाहिए था कि अभी तक कितने अफसरों पर इस एक्ट के तहत एफ़आईआर हुई है। इस एक्ट के लागू होने और उससे सजा मिलने के आंकड़े मांगने चाहिए। इसके आलावा ये भी कितने लोगो को इस कानून के तहत गलत सजा हुई है ? हम तो अभी पूछ रहे हैं कि कानून के तहत कोई सजा हुए भी है या नहीं। जातिगत हिंसा देश भर में जारी है चाहे वो उना हो या राजस्थान, उत्तरप्रदेश, केरल, तेलंगाना, आंध्र, कर्नाटक, तमिलनाडु, पंजाब, मध्य प्रदेश या बिहार का कोई स्थान। कहीं शादी को लेकर मर्डर होते हैं तो कही जमीन को लेकर, कोई घोड़े पर नहीं चढ़ने देता तो कोई चप्पल सर पर उठाने की बात करते हैं, कही छात्रो को मौत को गले लगाना पड रहा है तो कही प्रशासन में मौजूद अधिकारी को ही न्याय नहीं है। इतना अन्याय होने के बाद अगर हमें ये बताया जाए कि कानून सबके लिए बराबर है और जाति बढ़ने का एक साधन नहीं हो सकता तो बात बहुत गंभीर है।
न्याय पालिका पर अब भी भरोसा है लेकिन ये डोल रहा है। शिकायत किससे करें क्योंकि राजनैतिक नेता जुमलेबाजी के अलावा कोई बात करना नहीं चाहते और सभी के अपने भक्त हो चुके हैं इसलिए गंभीर बहसों के लिए कोई जगह नहीं है। क्या ये समय नहीं है कि ये प्रश्न मानवाधिकारों का भी है और जब हम साफ़ तौर पर जानते हैं कि दलित आदिवासियों पर देश में हिंसा लगातार जारी है तो फिर न्यायालय में ऐसा रवैया अपनाने का क्या मतलब। जरुर स्वीकार करेंगे कि किसी भी निर्दोष के साथ अन्याय नहीं होना चाहिए लेकिन ऐसी चिंता तो दलितों और आदिवासियों के विषय में भी होनी चाहिए जो न्याय की उम्मीद में ही मर जाते हैं। हम संविधान की सर्वोच्चता की बात करते हैं और लोगों को कहते हैं कि वे कानून का पालन करें लेकिन ये हमारा रास्ता भटकाए नहीं इसलिए जरूरी है कि वंचित तबकों को न्याय मिले और न्याय की इस लड़ाई में सभी न्याय परस्त ताकतों को साथ आना पड़ेगा।
हमें लगता है कि दलित आदिवासियों के प्रश्न पर विश्वभर में जनमत बनाया जाना चाहिए के ये मूलभूत अधिकारों के सम्मान का प्रश्न है। जैसे अश्वेत लोगों के नस्लभेद वाले प्रश्नों को लेकर दुनिया में एक मत हुआ वैसे ही जाति और छुआछूत के प्रश्नों को लेकर भी होना जरुरी है और इस सन्दर्भ में अंतराष्ट्रीय कानून इतने कारगर बनने चाहिए कि उनको पालन ही करना पड़े और बिलकुल वो रणनीति होनी चाहिए जो रंगभेद ख़त्म करने के सिलसिले में बनी थी।
जब देश के नेता, प्रसाशन और न्याय प्रक्रिया इस प्रश्न पर बहुत साधारण जवाब देते हैं। जब नेताओं के लिए कुछ बोलने से पहले जातियों के नाप तौल करनी है तो फिर हमें उन सब रास्तो को ढूंढना पड़ेगा जो संभव है। क्योंकि जातिवादी ताकतें हर जगह हैं और गलत तरीके से इतिहास की व्याख्या कर रही हैं, इसलिए जरूरी है इस सवाल को संयुक्त राष्ट्र की मानवाधिकार समिति और अन्य अंतराष्ट्रीय मंचों पर लगातार उठाया जाना चाहिए।
अगर हमारे राजनेताओं में थोडा भी ईमानदारी है तो इस प्रश्न पर संसद में बहस होनी चाहिए और सरकार बताये कि आखिर इस कानून को मजबूती से लागू होने के बजाए इसको ख़त्म करने की तैय्यारी क्यों हो रही है ? ये बहुत गंभीर बात है और इसलिए सार्थक बहस की आवश्यकता है लेकिन क्या उन नेताओं से कुछ उम्मीद की जा सकती है जिनको खुद को बचाने के लिए कोर्ट की जरुरत पड़ती है ? चाहे कोई बोले या नहीं, कम से कम सामाजिक संगठनों, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं, दलित संघर्षरत कार्यकर्ताओं को तो अपनी बात को मजबूती से रखने का समय आ गया है और साथ ही साथ राज नेताओं से प्रश्न पूछने का समय भी क्योंकि बहानेबाजी से बात नहीं चलेगी। सीधी बात, जवाब मांगिये कि इस क़ानून को ईमानदारी से लागू करने में क्या अडचने हैं ?