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बाबरी मस्जिद केस : मुसलमानों की खामोशी क्या कहती है? कटघरे में आडवाणी ही नहीं न्यायपालिका भी है
गुजरात 2002 जनसंहार के बाद जिस तरह नरेंद्र मोदी मुसलमानों के लिए आंख की किरकिरी बन कर उभरे, उससे पहले मुसलमानों की नजर में यह रूतबा बाबरी मस्जिद को तोड़ने के लिए आंदोलन चलाने वाले लालकृष्ण आडवाणी को हासिल था।
सियासी तौर पर बहुत कम जागरूक मुस्लिम समाज के साथ यह एक त्रासदी रही है कि वह हर दौर में अपने किसी विरोधी छवि वाले नेता के कारण ही राजनीति की समझ बनाता है। इसलिए जिस तरह आज एक मुसलमान मोदी केंद्रित नजरिए से राजनीति में दोस्तों और दुश्मनों की खानाबंदी करता है ठीक उसी तरह 2002 से पहले वह बाबरी मस्जिद के गुनहगार आडवाणी के दोस्तों और विरोधियों के पैमाने पर कम्यूनल और सेक्यूलर का खेमा तय करता था।
यही वह वजह है कि बाबरी मस्जिद के विध्वंस की हर बरसी पर होने वाले धरनों और इस मसले पर होने वाले सम्मेलनों में आडवाणी को सजा देने की मांग के ज्ञापन हमेशा से जिसे भी आयोजक जरूरी समझते थे भेजा करते थे।
सत्ता की राजनीति में उसकी यह समझदारी नजरअंदाज नहीं की जा सकती थी। इसीलिए जब पहली बार 1996 में गठबंधन सरकार में भाजपा के किसी नेता के प्रधानमंत्री बनने का अवसर आया तो उसके उभार के लगभग अकेले नायक होने के बावजूद, आडवाणी उस ओहदे के लिए अयोग्य माने गए।
इसीलिए बीते दिनों जब बाबरी मस्जिद विध्वंस के ढाई दशक बाद सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक फैसले में आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, उमा भारती समेत 13 नेताओं पर इस अपराध के आरोप में सुनवाई चलाने का निर्देश देते हुए दो साल के अंदर इस पर निर्णय सुनाने का आदेश दिया, तब मुस्लिम समाज में इसको लेकर किसी तरह के उत्साह का न दिखना उसके अंदर चल रहे उथल-पुथल पर तवज्जो मांगता है।
मसलन, आखिर क्या वजह है कि जिस आडवाणी को मुसलमानों की एक पूरी पीढ़ी जेल जाते हुए देखना चाहती थी, उसने इसे बहुत तवज्जो नहीं दिया?
क्या मुसलमानों ने आडवाणी को माफ कर दिया है या उसने मान लिया है कि वो बीती बात थी और गड़े मुर्दे उखड़ने से फिर उसे ही नुकसान होगा?
या कहीं ऐसा तो नहीं कि मुसलमान इसे अपने साथ किया जाने वाला न्यायिक मजाक मानकर इसे नजरअंदाज कर रहा है कि अगर इंसाफ ही होना होता तो कभी का हो गया होता?
या फिर यह ठंडी प्रतिक्रिया उसकी इस रणनीतिक समझदारी से निकली है कि उसे अपनी भावनाओं को बहुत डिप्लोमेटिक तरीके से रखना चाहिए ताकि उसके विरोधी गोलबंद न हों?
दरअसल, मुसलमानों के एक बड़े तबके को लगता है कि जिस घटना के लिए पूरा देश जिस आदमी को दोषी मानता हो, जिसके लाखों प्रत्यक्ष गवाह रहे हों और जो अपने समय की सबसे बड़ी सच्चाई रही हो, उस पर कोई अदालत अगर इतने लम्बे समय बाद यह तय कर पाए कि उन पर आरोपी के तहत मुकदमा चलना चाहिए, तो इससे निराशा पैदा होना स्वाभाविक है।
तो क्या न्यायिक शिथिलता के कारण खुद मुसलमान इस मामले में दिलचस्पी कम ले रहे हैं?
इस सवाल के जवाब में मुसलमान इस निष्कर्ष तक पहुंच चुका है कि अदालतों की दिलचस्पी उसके साथ न्याय करने में नहीं है और इसीलिए उसके हितों से जुड़े मामलों में ज्यादा देरी होती है।
एक आम मुसलमान को यह सच्चाई परेशान करती ही है कि बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद प्रतिक्रियास्वरूप हुए मुम्बई विस्फोटों के आरोपी तो फांसी पर लटका दिए गए लेकिन मूल घटना के आरोपियों पर अदालत 25 साल बाद यह तय कर पा रही है कि मुख्य आरोपियों पर मुकदमा चलना चाहिए कि नहीं।
मुसलमानों के मन में उठने वाले इन सवालों के आधार पर हम कह सकते हैं कि मुसलमानों का एक बड़ा हिस्सा अदालतों को सरकार और मुस्लिम विरोधी साम्प्रदायिक मानसिकता से प्रभावित मानने लगा है। ऐसी स्थिति में ऐसे किसी भी अदालती निर्देश को वह अंतिम तौर पर अपने खिलाफ चले जाना वाला मानकर उस पर किसी तरह की फौरी खुशी का इजहार नहीं करना चाहता।
दरअसल, बाबरी मस्जिद विवाद पर 30 सितम्बर 2010 को आए फैसले ने अदालतों के प्रति मुसलमानों के नजरिए को काफी हद तक बदल दिया है। उन्हें लगने लगा है कि जिन मामलों में उनका पक्ष निर्विवाद तौर पर प्रतिवादी से मजबूत है उसमें भी अदालत उसके साथ अन्यायिक और गैरपेशेवराना व्यवहार कर सकती है।
मुसलमान अपनी आंतरिक बहसों में अयोध्या फैसले को एक मजाक की तरह देखते हैं कि कैसे किसी अदालत ने मिल्कियत के विवाद के मुकदमे में बंटवारे का फैसला सुना दिया।
दरअसल किसी भी अन्य तरह के मुकदमों से अलग बाबरी मस्जिद मामले में ऐतिहासिक तौर पर मुसलमानों का अनुभव न्यायपालिका से बहुत सकारात्मक नहीं रहा है। जिसपर 30 सितम्बर 2010 के फैसले को वह निर्णायक मुहर मानता है जिसकी शुरूआत 1986 में ताला खोलने के फैसले से हुई थी। तब फैजाबाद के जिला जज केएम पांडेय ने ताला खोलने का आदेश दिया था जिसपर आश्चर्यजनक तरीके से आधे घंटे के अंदर ही अमल ही नहीं किया गया था बल्कि इसका तब सिर्फ सुबह में एक घंटे का कार्यक्रम रिले करने वाले दूरदर्शन ने सीधा प्रसारण भी किया था।
भारतीय समाज और राजनीति को निर्णायक तौर पर बदल देने वाले इस फैसले को अगर मुसलमानों ने अदालत की निष्पक्षता के बुनियाद से भटकने के बतौर देखा था, तो उसकी ठोस वजहें भी थीं।
खुद केएम पांडेय ने 1991 में छपी अपनी आत्मकथा में इस धारणा को पुख्ता आधार उपलब्ध कराया था। जिसमें उन्होंने बताया है कि ‘फैसला सुनाने के दिन उन्होंने देखा कि अदालत की छत के पास ध्वजारोहण का रॉड पकड़े एक काले रंग का बंदर खड़ा था। फैसला सुनने आए फैजाबाद और अयोध्या के हजारों लोगों की भीड़ वहां मौजूद थी। आश्चर्यजनक रूप से बंदर ने वहां मौजूद लोगों द्वारा दिए जा रहे मूंगफली और फलों को नहीं छुआ और शाम 4:40 मिनट पर फैसला सुनाए जाने के बाद वहां से चला गया। जिला अधिकारी और एसएसपी ने मुझे मेरे बंगले तक छोड़ा जहां उस बंदर को पहले से मौजूद देख मुझे आश्चर्य हुआ। मैंने उसे नमन किया, ये मानते हुए कि वह कोई दैवीय शक्ति हैं।’ (मनोज मित्ता, ज्यूडिशियरी ऑन ट्रायल, टाइम्स ऑफ इंडिया, प्रोफेसर सुशील श्रीवास्त की पुस्तक ‘विवाद ग्रस्त मस्जिद’ में भी इसका उद्धरण है)
वहीं जिस तरह सुप्रीम कोर्ट ने 1992 में सांकेतिक कारसेवा की अनुमति दी थी उससे भी मुसलमान कोर्ट की निष्पक्षता पर सवाल उठाता रहा है। क्योंकि पांच महीने पहले ही जुलाई 1992 में कारसेवकों ने मस्जिद के करीब चबूतरा बना दिया था, जिसपर सुप्रीम कोर्ट ने मुख्यमंत्री कल्याण सिंह को यथास्थिति न बनाए रख पाने के लिए नोटिस भी दिया था। लेकिन सुप्रीम कोर्ट के पास अनुमति न देने की पर्याप्त वजह होने के बावजूद ऐसा किया जाना क्या साबित करता है?
बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश एमएन वेंकटचलैया ने कल्याण सिंह और विजय राजे सिंधिया को बाबरी मस्जिद की सुरक्षा करने की लिखित शपथ के बावजूद इससे मुकरने के खिलाफ अदालत की अवमानना का नोटिस तो दिया, लेकिन जब वेंकटचलैया के नेतृत्व वाली पांच सदस्यीय पीठ ने अपना फैसला सुनाया तो उसमें भी कल्याण सिंह को सिर्फ एक दिन की सांकेतिक सजा सुनाई और वो भी जुलाई में कारसेवकों द्वारा चबूतरा बनाने से न रोक पाने के लिए।
यानी मुसलमानों के मन में बाबरी मस्जिद पर न्यायपालिका से बहुत सकरात्मक अनुभव नहीं मिले हैं, इसीलिए वह इस बार भी संशय से ही चीजों को आगे बढ़ते हुए देख रहा है।
इसीलिए अगर सुप्रीम कोर्ट बाबरी मस्जिद ध्वंस के अपराधियों को सजा देने में सचमुच गम्भीर है तब भी इस मामले में मुसलमान इसपर एकबारगी यकीन नहीं कर पाएगा। उसके लिए अब सिर्फ आडवाणी ही कटघरे में नहीं हैं बल्कि खुद न्यायपालिका भी कटघरे में है।
शाहनवाज आलम