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कहीं आप भी बलात्कारी समाज के साथ तो नहीं खड़े हैं

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hastakshep
09 May 2017
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बौद्ध धर्म की आड़ में देश के खिलाफ कोई साजिश तो नहीं?

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Are you also not standing with the rapist society?

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निर्भया दिल्ली बलात्कार पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद, देश के अख़बारों के पहले पन्ने भरे पड़े हैं।

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देश के सभी राष्ट्रीय व लोकल अखबारों ने पहले पृष्ठ पर और अंदर के पृष्ठ पर इस फैसले की अच्छी चर्चा की हुई है। चर्चा हो भी क्यों न मामला ही इतना जघन्य था।

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6 हैवान पुरुषों द्वारा एक मासूम लड़की के साथ बड़ी ही निर्ममता से बलात्कार, बलात्कार के बाद उसके प्राइवेट पार्ट और उसके शरीर के साथ जो हैवानियत की, उस हैवानियत को बयां करने के लिए कोई शब्द नहीं है।

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माननीय सुप्रीम कोर्ट ने इन हैवानों को हाई कोर्ट द्वारा दी गयी फांसी की सजा को बरकरार रखा है।

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माननीय सुप्रीम कोर्ट ने कहा - यह क्रूरतम, नृशंस और पैशाचिक कृत्य है, ये दरिंदगी है। इसलिए इनको ये सजा जरूरी है।

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अखबारों ने अलग-अलग विशेषज्ञों की बलात्कार पर राय छापी हुई है।

अखबारों ने इस फैसले पर और इस जघन्य घटना पर सम्पादकीय लिखें हैं। बलात्कारियों के बड़े-बड़े फोटो अखबारों ने फांसी के फंदे के साथ छापे हुए हैं।

अखबारों ने ऐसा माहौल बनाया हुआ है जैसे कल ही इनको फांसी हो जायेगी और फांसी के बाद कभी भी बलात्कार तो छोड़ो छेड़खानी की घटना भी नहीं होगी। सोशल मीडिया पर यूजर्स ने फैसले  पर खुशी मनाई है। सजा फांसी हो या आजीवन कारावास हो इस पर भी बहस छिड़ी हुई है।

दिल को सकूँ मिला कि बलात्कार जैसे गम्भीर मसले पर जो सीधा-सीधा एक पुरूष का एक महिला पर हमला है। उस पर चर्चा को अच्छी जगह मिली है। लेकिन बलात्कार की जड़ क्या है, 80% बलात्कार के मामले किनके साथ होते हैं। बलात्कार पीड़ितों के साथ समाज, सरकार, पुलिस, डॉ और कानून किस तरह का व्यवहार करता है। ऐसी चर्चा किसी भी अख़बार में नहीं दिखाई दी।

लेकिन जैसे ही आज सुबह अख़बार पढ़ने के लिए खोलता हूँ तो सर घूम जाता है। कल जो अख़बार निर्भया के बलात्कारियों को फांसी दे रहे थे, वो ही अख़बार आज अपने पहले पृष्ठ पर एक बलात्कार के आरोपित बाबा के गुणगान में लगे हुए हैं। बाबा के साथ हरियाणा के मुख्यमंत्री भी खिलखिला कर हंस रहे है। बाबा के अनुयायियों ने मुख्यमंत्री से बाबा को स्वछता का ब्रांड अम्बस्टर बनाने की मांग की और मुख्यमंत्री ने भी इस पर विचार करने की हामी भर दी।

क्या यहां पर हमारा, हमारी सरकार, हमारे सिस्टम का दोहरा चरित्र नही दिखाई देता है।

हमारे समाज मे बलात्कारी की तरफ खड़ा होना है या पीड़ित की तरफ खड़ा होना है, इसके लिए हम बलात्कारी का स्टेटस, जाति, धर्म देखते हैं। अगर बलात्कार किसी मजदूर, दलित, मुस्लिम ने किया है तो हम भी और मीडिया भी उसको फांसी से कम बात करता ही नहीं करते है और साथ में उसके पूरी कम्युनिटी को भी बलात्कारी साबित करने की कोशिश की जाती है। लेकिन अगर रेप में कोई अमीर, स्वर्ण, बाबा या सैनिक शामिल है तो हम, मीडिया, समाज और सिस्टम पीड़ित के ही खिलाफ खड़े मिलते हैं।

कितने ही बाबा है जो बलात्कार के केस में अंदर हैं या बाहर केस का सामना कर रहे हैं लेकिन उनके अनुयायियों की सँख्या करोड़ों में है जो इन बाबाओं को बलात्कारी कहने वालों की जान तक लेने के लिए तैयार है। ऐसे ही जब फ़ोर्स के जवान बलात्कार करते हैं तो देश की जनता मानने के लिए तैयार ही नहीं होती उल्टा बलात्कार पीड़ित के खिलाफ सरकार पैरवी करती है।

अब सवाल ये है कि हम बलात्कारियों को किस नजर से देखते हैं

मैं कुछ केस आपके सामने रख रहा हूँ फिर आप देखना कि उन बलात्कार की घटनाओं पर आप और आपके आस-पास के लोग क्या सोचते हैं। वो किसके साथ खड़े हैं बलात्कारी के साथ या पीड़ित के साथ

  1. निर्भया बलात्कार केस - कुछ लड़के जो अलग-अलग जाति और धर्म के हैं। रोड से एक लड़की को उठाते हैं, उनको नहीं पता कि लड़की की जाति क्या है, धर्म क्या है। वो बलात्कार के बाद उसकी निर्मम हत्या कर देते हैं। ये मामला जघन्य से जघन्य है। ये मामला सीधा-सीधा पुरुषवाद का महिला पर हमला है। इस घटना पर देश और विदेश का आवाम लड़की के पक्ष में खड़ा होता है। बड़े-बड़े प्रदर्शन होते हैं। बलात्कारियों और हत्यारों को कड़ी से कड़ी सजा मिले और जल्दी सजा मिले ये मांग मुख्य होती है। सुप्रीम कोर्ट का आया फैसला पीड़ित परिवार और प्रदर्शनकारियों को संतुष्टि देता है।
  2. बिलकिस बानो - 2002 में गुजरात में धार्मिक दंगे होते हैं। एक परिवार जो मुस्लिम है वो किसी सुरक्षित ठिकाने की तलाश में मारे-मारे फिर रहा है। वो मुस्लिम परिवार एक खास धर्म के धार्मिक उन्मादियों के हत्थे चढ़ जाता है। ये धार्मिक दंगाई परिवार के 14 लोगों की हत्या बड़ी ही निर्ममता से कर देते है। हत्या से पहले वो इस परिवार की सभी महिलाओं से बलात्कार करते हैं, बिलकिस बानो भी उन्ही महिलाओं में शामिल है। बिलकिस के गर्भ में उस समय 5 महीने का बच्चा भी है। बलात्कारी बिलकिस के पेट पर त्रिशूल से जय श्री राम लिखते हैं। वो जितनी निर्ममता कर सकते हैं वो बिलकिस से करते हैं। पूरे परिवार को मरा हुआ समझकर बलात्कारी धर्म की जय-जयकार करते हुए, धर्म की जीत की ख़ुशी का जश्न मनाते हुए निकलते हैं। बिलकिस बच जाती है। वो पुलिस के पास जाती है। पुलिस भी जो उस धार्मिक सत्ता की ही है जो सत्ता पिछले दरवाजे से दंगों में शामिल है।  वो उसको डरा-धमका कर भगा देती है। वो डॉ के पास जाती है। डॉ भी उसको भगा देता है। वो जिला जज के पास जाती है जज भी आरोपियों को बाइज्जत बरी कर देती है। लेकिन बिलकिस हार नही मानती और हार नही मानते उसके वो साथी जो अन्याय के खिलाफ लड़ने के लिए जाने जाते है तीस्ता सीतलवाड़ और देश के प्रगतिशील बुद्धिजीवी कम्युनिस्ट वो लड़ते हैं। सीबीआई से जाँच होती है। गुजरात से बाहर बॉबे हाई कोर्ट में केस चलता है 15 साल बाद बिलकिस को इंसाफ मिलता है। बलात्कारियो को उम्र कैद होती है। उसके साथ में उस पुलिस अधिकारी और डॉ को भी सजा होती है जिन्होंने बिलकिस को इंसाफ दिलाने की बजाए बलात्कारियो का बचाव किया। लेकिन हम चुप हैं, चुप हैं मीडिया, चुप है सरकार, और इस चुप्पी का कारण है बिलकिस का मुस्लिम होना, चुप्पी का कारण है केंद्र में उस पार्टी की सरकार का होना जो उस समय गुजरात में थी।
  3. एक है सोनी सोरी जो आदिवासी है। वो छतीसगढ़ में अध्यापिका है। वो गाँधीवादी है। पूंजीपतियों द्वारा जल-जंगल-जमीन की लूट के खिलाफ आवाज बुलंद करती है। पुलिस अधीक्षक अंकित गर्ग उसको और उसके परिवार को झूठे केस में पकड़ लेता है। पुलिस लॉकअप में अंकित गर्ग अध्यापिका सोनी सोरी की योनि में पत्थर डलवा देता है। सोनी के भतीजे के गुद्दे में लाल मिर्च लगा डंडा डलवा देता है।  सोनी के पति के हाथ पांव जेल में तुड़वा दिए जाते हैं। जिसकी मौत जेल से बाहर आते ही हो जाती है। सोनी सोरी का मामला सुप्रीम कोर्ट में विचाराधीन है। लेकिन उस समय की केंद्र सरकार जिसको काँग्रेस चला रही थी, जिस सरकार को भारत के धर्मनिरपेक्ष, दलित हितैसी, समाजवादी, संसदीय कम्युनिस्ट समर्थन दिए हुए हैं, वो केंद्र सरकार उस पुलिस अधीक्षक अंकित गर्ग को राष्ट्रपति वीरता पुरस्कार देती है। हम बहादुर पुलिस ऑफिसर को वीरता पुरस्कार मिलने पर तालियां बजाते हैं।
  4. एक है आदिवासी महिला जिसको पोलिस के जवान उसके घर से दिन दहाड़े गांव के बीच से उठाते हैं उसके साथ सामूहिक बलात्कार करते है। बलात्कार के बाद उसको 11 गोलियां मारते हैं। फिर एक नई माओवादियों की वर्दी पहनाते हैं। हाथ में बन्दूक थमाते हैं और करते हैं फोटो सेशन, मीडिया में प्रेस रिलीज करते हैं कि इनामी माओवादी नेता इनकाउंटर में पोलिस के बहादुर जवानों ने ढेर की। जबकि वर्दी में एक भी सुराग गोलियों का नहीं है। मामला हाई कोर्ट में विचाराधीन है। पुलिस की तरफ से सरकार पैरवी कर रही है। लेकिन हम, सरकार, मीडिया खड़े है पुलिस की तरफ।
  5. आज से 26 साल पहले दिनांक 23 फ़रवरी 1991 को कश्मीर के कुनान पोशपोरा में मानव इतिहास की सबसे बड़ी शर्मनाक घटना को अंजाम दिया जाता है, वहाँ रहने वाली पूरे गाँव की औरतों को बाहर निकाल कर लाया जाता है, जिसमें 13 साल की बच्ची से लेकर 81 साल की बूढ़ी औरत तक शामिल है। फिर शुरू होता है वो घिनोना खेल, जिसमे आंतक, वहशीपन की सारी सीमाएं तोड़ दी जाती है। उन सभी महिलाओं के साथ पूरी रात बलात्कार किया जाता है। ये बहादुरी का काम भारतीय सेना के राजस्थान राइफल्स के जवानों पर था। बेटी की इज़्ज़त उसके बाप के सामने रौंदी जाती है, पति की आँखों के सामने पत्नी का सामूहिक बलात्कार होता है। भारतीय आधिकारिक के अनुसार पीड़ित महिलाओं की संख्या 23 थीं जबकि ह्यूमन राइट वॉच एवं विभिन्न सूत्रों के अनुसार इन औरतों की संख्या 100 से ऊपर थी। आज तक किसी को सजा नहीं हुई जाँच के नाम पर वर्षो बीत गए। आख़िरकार इतने बड़े मानवता विरोधी कांड की फ़ाइल हमेशा के लिए बंद कर दी गई।
  6. भंवरी देवी सामाजिक बुराइयों के खिलाफ अभियान चलाती थी। वो महिलाओं को साफ-सफाई, परिवार नियोजन और लड़कियों को स्कूल भेजने के फायदों के बारे में बताती थीं. इन सामाजिक बुराइयों में भ्रूण हत्या, दहेज और बाल विवाह जैसी कुरीतियां भी शामिल हैं. उन्होंने गांव की अगड़ी जाति में होने वाली एक 9 महीने की लड़की की शादी को रुकवा दिया। अगड़ी जाति के 5 लोगो ने भंवरी के पति को बांध कर उसके सामने ही भंवरी के साथ सामूहिक रेप किया। भंवरी देवी का केस आज तक पेंडिंग है। 1995 में हाई कोर्ट ने आरोपियों को बरी करते हुए लिखा कि ये लोग रेप कर ही नही सकते क्योंकि जो अगड़ी जाति आपको छूना भी पसंद नही करती। जो आपको अशुद्ध मानती है वो कैसे आपसे बलात्कार कर सकती है। 1995 में भंवरी देवी दोबारा अपील में गयी और आज तक मतलब 22 सालो में सिर्फ एक तारीख लगी है। 5 में से 2 बलात्कारी मर चुके हैं।
  7. दिल्ली के एक प्राईवेट स्कूल ने ग्याहरवी क्लास में एक लड़की को एडमिशन देने से मना कर दिया। एडमिशन देने की शर्त रखी- लड़की स्कूल बस से न आएगी न जाएगी। और तो और, लड़की के दोस्तों को उसके आस पास बैठने से मना कर दिया गया है। ये फरमान सुनाने वाले स्कूल प्रिसिंपल हैं। वैसे स्कूल वालों के पास कारण भी है। कारण यह कि उस लड़की का एडमिशन कर लिया तो स्कूल की बदनामी होगी। लड़की के मां बाप ने दिल्ली महिला आयोग के पास शिकायत पहुंचाई है। लड़की का कसूर ये है कि जब वो दसवी क्लास में थी, तब उसका किडनेप किया गया और उसके बाद बलात्कार करके चलती गाड़ी से फेंक दिया गया।  स्कूल प्रिंसीपल की नजर में उस बेशर्म को तभी मर जाना चाहिए था। अब तक जिंदा क्यूं है? जिन्दा है तो पढ़ना क्यों चाहती है।

ये लिस्ट बहुत लंबी है आपके आस-पास नजर घुमाओगे तो आपको हालात भयंकर दिखाई देंगे। ऐसी अनगिनित पीड़ित महिलाएं आपको मिल जायेगी जिन्होंने रेप के खिलाफ आवाज ही सिर्फ इसलिए नही उठाई की समाज  दोषी ही पीड़िता को मनाता है। परिवार वाले भी अपनी इज्जत के चक्कर में या तो आवाज उठाते ही नही अगर उठाने की कोशिश करे तो समाज, पोलिस, ये सिस्टम उनकी आवाज को दबा देता है। बहुत से मामलों में पीड़ित महिला को परिवार वाले मार देते है, घर से निकाल देते है, पति अपनी पत्नी को छोड़ देता है। प्रेमी जो जीने-मरने की कसमें खाता है वो प्रेमिका को छोड़ कर भाग जाता है।

हमारे समाज में रेप पीड़ित मरते समय तक सामाजिक भेदभाव का शिकार रहती है। वो जब बाहर निकलती है तो बच्चे, बुड्ढे, महिला सब उसको अपनी नजरो से अहसास कराते रहते है कि बलात्कार के लिए वो ही दोषी है। उसका बार-बार अपनी गन्दी नजरोंं से एक्सरे करते रहते हैं।

अब फैसला आपको करना है कि आप किस तरफ खड़े हो। बलात्कारी की तरफ या पीड़ित की तरफ?

अगर आप रेप विक्टिम या रेपिस्ट के पक्ष या विपक्ष में खड़े होने में उसकी जात, धर्म, इलाका, स्टेट्स देखते हो तो आप जाने अनजाने निर्भया के बलात्कारियों के साथ हो। फिर आपको कोई अधिकार नहीं है ढोंग करने का, आप बलात्कारी समाज के साथ खड़े हो।

उदय चे

UDay Che

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