....कार्तिक पूर्णिमा की शाम से..
वो गंगा के तट पर है...
मौजों में परछावे डालता..
सिरते दीप को निहारता..
सुर्ख़ आँखों वाला चाँद..
कच्ची नींद का जागा झींका..
माथे पर ढेर सी रोलियों का टीका...
मन्नतों के धागे सँवारे..
आरतियाँ सर से वारे...
धुआं-धुआं अगरबत्तियों की ख़ुशबू में गुम..
दौनों में तरते फूलों को चूम...
अर्घ्य के छिड़के जल से जगा....
नूर में पगा..
जब चले फलक का दिल डरे..
रात जादू टोने बलाओ से है..
चाँद सोलह कलाओं से है....
मगर चाँद बेफ़िक्रा मंदिर वाली ढलान से...
पतंगों वाले मैदान से..
थोड़ी आगे वाली चर्च गली...
जहाँ दो गलियाँ मिलीं....
गुरुद्वारे से सीधे हाथ को...
हर पूनम की रात को..
हरी मस्जिद के ऊँचे गुम्बद के आसें पासें भटकता है.. देर तलक...
चाँद...
वहीं अटकता है..
चलें जब हवा के झोंके...
दुआवाँ पढ़ के फूंके.....
वो सारीयाँ....(सब)..
मरजाने चाँद के सदके...
मेरे कोठे (छत) दिया बारियाँ...(खिड़कियाँ )
डॉ. कविता अरोरा
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डॉ. कविता अरोरा