शेष नारायण सिंह का आलेख - कांग्रेस को सशक्त विपक्ष की भूमिका अदा करनी ही पड़ेगी

शेष नारायण सिंह का आलेख - कांग्रेस को सशक्त विपक्ष की भूमिका अदा करनी ही पड़ेगी

कांग्रेस के अध्यक्ष राहुल गांधी (Congress President Rahul Gandhi) इस्तीफा दे चुके हैं, उनको मनाने की कोशिशें अब तक नाकाम रही हैं लेकिन अब कौन कांग्रेस पार्टी का अध्यक्ष हो, इस बात पर अभी एक राय नहीं बन पाई है।

ज्यादातर लोग मानते हैं कि कांग्रेस का अध्यक्ष किसी ऐसे व्यक्ति को बनाया जाना चाहिए जो पार्टी को फिर से वही शक्ति दे सके जिसके बल पर कांग्रेस ने इस देश में कई दशकों तक राज किया था, लेकिन इसके लिए कोई भी नेता समझ में नहीं आ रहा है।

कभी मुकुल वासनिक (Mukul Wasnik) का नाम चल जाता है तो कभी मल्लिकार्जुन खड़गे (Mallikarjuna Kharge) या सुशील कुमार शिंदे (Sushil Kumar Shinde) का।

कुछ लोग किसी नौजवान नेता को काम संभलवाने की बात करने लगते हैं। जिन नौजवानों का नाम चला है उनमें सचिन पायलट, ज्योतिरादित्य सिंधिया और मुरली देवड़ा का नाम प्रमुख है। इन लोगों की खासियत यह है कि यह सभी लोग राहुल गांधी के बचपन के साथी हैं, बहुत संपन्न लोगों की संतानें हैं और दिल्ली की एलीट बिरादरी के सदस्य हैं।

Another strange atmosphere in Congress

कांग्रेस में एक और अजीब माहौल चल रहा है। कई राज्यों में कांग्रेस के निर्वाचित नेताओं ने भाजपा की सदस्यता ले ली है और यह साबित कर दिया है कि सत्ता के पास बने रहने के लिए कुछ भी किया जा सकता है।

लुटियन दिल्ली में ऐसे नेताओं की भाजपा में शामिल होने की कोशिश करने की चर्चा चल पड़ी है जिसके बारे में कोई कल्पना नहीं कर सकता। समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष, अखिलेश यादव के दोस्त और सांसद नीरज शेखर ने भाजपा ज्वाइन कर ली है। भाजपा मुख्यालय में उनको बाकायदा एक प्रेस कांफ्रेंस करके शामिल किया गया। उसके बाद पत्रकारों से अनौपचारिक बातचीत में भाजपा के एक बड़े नेता ने बताया कि अभी तो ऐसे बहुत सारे लोग पार्टी में शामिल होने के लिए आस लगाये बैठे हैं जिनके बारे में कोई सोच नहीं सकता। इस सूची में कांग्रेस के भी कई बड़े नेता शामिल हैं।

लोकतंत्र में विपक्ष की भूमिका Role of the Opposition in Democracy

कुल मिलाकर दिल्ली में आजकल ऐसा माहौल है कि लगता है कि विपक्ष के बहुत सारे नेताओं को अपनी पार्टी में विश्वास नहीं है और वे सत्ताधारी पार्टी में शामिल होना चाहते हैं। यह देश की राजनीति के लिए सही नहीं होगा।

लोकतंत्र के लिए सत्ताधारी पार्टी का महत्व बहुत ज़्यादा है लेकिन विपक्ष की भूमिका भी कम नहीं है। कांग्रेस पार्टी के आलाकमान को शायद यह समझ में नहीं आ रहा है कि उनकी पार्टी किसी परिवार की पार्टी नहीं है। आजादी की लड़ाई में कांग्रेस की भूमिका का जिक्र करके बात को ऐतिहासिक सन्दर्भ देने की भी मंशा नहीं है। बस यह याद दिला देना है कि संसदीय लोकतंत्र में विपक्ष की भूमिका सरकारी पक्ष से कम नहीं होती, कई बार तो ज़्यादा ही होती है।

1971 में इंदिरा गांधी भारी बहुमत से जीतकर आई थीं और विपक्ष में संख्या के लिहाज से बहुत कम सांसद थे लेकिन उन सांसदों में देशहित का भाव सर्वोच्च था।

उन सब को मालूम था कि निकट भविष्य में कांग्रेस की सत्ता खत्म होने वाली नहीं थी और उनकी पार्टियों की सरकार नहीं बन सकती थी क्योंकि उस समय तक देश में कभी गैरकांग्रेसी सरकार ही नहीं बनी थी। उनको मालूम था कि उनकी राजनीति का उद्देश्य कांग्रेस सरकार पर नजर रखना ही था। राजनीतिक कार्य के प्रति उनकी जिम्मेदारी का आलम यह था कि उस दौर में इंदिरा गांधी की सरकार की कोई भी नीति संसद में चुनौती से बच नहीं सकी।

यह समझ लेना जरूरी है कि उन दिनों 24 घंटे का टेलिविजन नहीं था, मात्र कुछ अखबार थे, जिनकी वजह से सारी जानकारी जनता तक पंहुचती थी।

जब हालात बदले तो 1977 में भी विपक्ष की भूमिका किसी से कम नहीं थी। इंदिरा गांधी खुद चुनाव हार गई थीं। कांग्रेस पार्टी के हौसले पस्त थे, लेकिन कुछ ही दिनों में वसंत साठे जैसे नेताओं की अगुवाई में लोकसभा में कांग्रेसी विपक्ष ने सरकार के हर काम को पब्लिक स्क्रूटिनी के दायरे में डाल दिया। सब ठीक हो गया और मोरारजी देसाई की सरकार में काम करने वाले भ्रष्ट मंत्रियों की जादगी दुश्वार हो गई क्योंकि सरकार के हर काम पर कांग्रेसी विपक्ष की नजर थी।

राजीव गांधी भी जब लोकसभा में विपक्ष के नेता थे तो विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार को माकूल विपक्ष मिला और जब राजा साहब ने खुद ही यह साबित कर दिया कि राजकाज के मामले में वे बहुत ही लचर थे तो उनको हटाकर कांग्रेस ने एक नया और राजनीतिज्ञ प्रधानमंत्री देश को दे दिया।

चंद्रशेखर का देश के लिए सबसे बड़ा योगदान Chandrasekhar's biggest contribution to the country

जानकार बताते हैं कि अगर उन दिनों चंद्रशेखर जी को प्रधानमंत्री न बनाया गया होता तो वीपी सिंह की सरकार की कमजोर राजनीतिक कुशलता के चलते, कश्मीर और पंजाब में पाकिस्तानी संस्था, आईएसआई की कृपा से चल रहा आतंकवाद देश की अस्मिता पर भारी पड़ जाता। चंद्रशेखर का सबसे बड़ा योगदान यही है कि उन्होंने जम्मू-कश्मीर और पंजाब में पाकिस्तान की तरफ से प्रायोजित आतंकवाद का मुकाबला करने का एक आर्किटेक्चर देश के सामने रखा, जब तक पद पर रहे उस पर अमल किया और आज तक उसी शैली में कश्मीर में पाकिस्तानी आतंकवाद को जवाब दिया जा रहा है।

देश की लोकशाही की रक्षा के लिए कांग्रेस को आज उसी भूमिका में आना पड़ेगा। आज एक सत्ताधारी पार्टी है जो लगभग उसी स्थिति में है जिसमें 1980 की दहाई में कांग्रेस हुआ करती थी।

इंदिरा गांधी और राजीव गांधी के बहुमत के टक्कर का ही बहुमत नरेंद्र मोदी के पास भी है। मौजूदा सरकार की नीतियों को जनहित में चुनौती देना विपक्ष का कर्तव्य है।

आज कांग्रेस ही इकलौती विपक्षी पार्टी है जिसकी मौजूदगी पूरे भारत में हैं। 2019 के लोकसभा चुनावों में कांग्रेस को 12 करोड़ वोट मिले हैं। इसका मतलब यह हुआ कि कांग्रेस पार्टी को अभी समाप्त पार्टी कहना बिल्कुल गलत होगा। लेकिन पार्टी को एक मजबूत विपक्ष के रूप में स्थापित करने के लिए कुछ ऐसा करना होगा जिससे लोगों में भरोसा जग सके। इस काम के लिए कांग्रेस को एक बार फिर मजबूत होना पड़ेगा।

राहुल गांधी ने खुद कहा है कि उनके परिवार के किसी व्यक्ति को पार्टी अध्यक्ष नहीं बनाया जाना चाहिए। उनकी बात को मानकर कांग्रेस के नेताओं को अपने में से ही किसी को चुन लेना चाहिए और देश को एक मजबूत और भरोसेमंद विपक्ष देने की कोशिश करनी चाहिए। सत्ता का विरोध करने के सन्दर्भ में उनकी पार्टी का एक गौरवशाली इतिहास रहा है।

राहुल गांधी की पार्टी के महान नेताओं ने ब्रिटिश साम्राज्यवाद को चुनौती दी, मोरारजी देसाई और चरण सिंह की सरकारों को गिराया, वीपी सिंह और चंद्रशेखर को बेदखल किया और बहुत ही कमजोर संख्या के बावजूद पीवी नरसिम्हाराव और डॉ. मनमोहन सिंह की सरकारों को पूरे कार्यकाल तक चलाया। जाहिर है उनकी पार्टी का इतिहास राजनीतिक रूप से गौरवशाली रहा है। समकालीन इतिहास के इस सच को जनता तक पहुंचाने का काम किसी राजनीतिक विश्लेषक का नहीं है। यह काम कांग्रेस पार्टी का है लेकिन उसने सच्चाई को पब्लिक डोमेन में लाने का काम कभी नहीं किया। नतीजा यह है कि आज की पीढ़ी के एक बहुत बड़े वर्ग को अब भी यही बताया जा रहा है कि जवाहरलाल नेहरू ने देश को कमजोर किया।

शायद इसका कारण यह है कि कांग्रेसी नेहरू के वंशजों की जय जयकार में इतने व्यस्त हैं कि उन्हें नेहरू की विरासत को याद करने का मौका ही नहीं मिल रहा है।

यह समझ लेना जरूरी है कि जवाहरलाल नेहरू भी इंसान थे, विश्वविजेता नहीं थे। दुनिया भर में सम्मानित नेता बनने के पहले, वे एक ईमानदार कांग्रेस नेता थे। अपने संसदीय क्षेत्र, फूलपुर से चुनाव इसलिए जीत जाते थे कि उनको कहीं से भी मजबूत विरोध नहीं मिल रहा था क्योंकि विपक्ष को भी मालूम रहता था कि जवाहरलाल नेहरू की जरूरत देश को है। एक बार तो उनके खिलाफ स्वामी करपात्री जी लड़े थे और एकाध बार स्वामी प्रभुदत्त ब्रह्मचारी ने उन्हें चुनौती दी थी।

जवाहरलाल नेहरू देश को प्रगति के रास्ते पर ले जा रहे थे तो सभी चाहते थे कि उन्हें कोई चुनावी चुनौती न मिले। लेकिन जब उन्हें चुनौती मिली तो जीत बहुत आसान नहीं रह गई थी। 1962 के चुनाव में फूलपुर में जवाहरलाल नेहरू के खिलाफ सोशलिस्ट पार्टी से डॉ. राम मनोहर लोहिया उम्मीदवार थे।

डॉ. लोहिया भी आजादी की लड़ाई में शामिल रहे थे। कांग्रेस से अलग होने के पहले वे नेहरू के समाजवादी विचारों के बड़े समर्थक रह चुके थे। बाद में भी एक डेमोक्रेट के रूप में वे नेहरू जी की बहुत इज्जत करते थे। लेकिन जब आजादी के एक दशक बाद यह लगा कि जवाहरलाल नेहरू के समाजवादी कवर के अंदर देश में पूंजीवादी निजाम कायम हो रहा है तो डॉ. लोहिया ने जवाहरलाल को आगाह किया था।

नतीजा यह हुआ कि डॉ. राम मनोहर लोहिया ने फूलपुर चुनाव में पर्चा दाखिल कर दिया। ऐसा लगता है कि डॉ. लोहिया भी जवाहरलाल नेहरू को हराना नहीं चाहते थे क्योंकि उन्होंने फूलपुर चुनाव क्षेत्र में केवल दो सभाएं कीं। और 1962 में भी जवाहरलाल चुनाव जीत गए।

राजनेता के प्रति सम्मान की संस्कृति का दौर उनके जीवनकाल में तो रहा ही, उसके बहुत बाद तक भी रहा। लेकिन आज राजनेता को विरोधी न मानकर दुश्मन मानने की रीति चल पड़ी है। इसको भी खत्म करना पड़ेगा और कांग्रेस से यह भी उम्मीद की जा रही है। आज कांग्रेस से समाज और देश को यह अपेक्षा है कि वह संसद में असहमति की आवाज बने।

कांग्रेस को कोशिश करनी चाहिए कि जिस तरह से जवाहरलाल नेहरू, इंदिरा गांधी और राजीव गांधी को भारी बहुमत की सरकार का मुखिया होने के बावजूद विपक्ष की जांच पड़ताल और निगरानी से गुजरना पड़ा, उसी तरह से भारी बहुमत से जीतकर आई नरेंद्र मोदी की सरकार को भी विपक्ष की निगरानी की कसौटी का सामना करना पड़े। यह उसकी ऐतिहासिक और राजनीतिक जिम्मेदारी है। इसके लिए कांग्रेस को एक लोकतांत्रिक पार्टी के रूप में अपने आपको स्थापित करना पड़ेगा। राहुल गांधी ने यह मौका दे दिया है।

उनकी मां और बहन भी इस बात से सहमत नजर आ रही हैं कि गांधी परिवार के बाहर के किसी व्यक्ति को कांग्रेस का नेतृत्व करने का जिम्मा सौंपा जाए। कांग्रेस के बड़े नेताओं को चाहिए कि इस अवसर को पहचानें और देश की राजनीति में लोकशाही को मजबूत करने के माध्यम के रूप में कांग्रेस को स्थापित करें।

शेष नारायण सिंह

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