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कनहर परियोजना एवं भू-अधिग्रहण- मिर्ज़ापुर जेल से रोमा की पाती

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hastakshep
31 Aug 2015
यूपीसी सेवा बंद, डाक विभाग के निजीकरण की साजिश

Dams being built on Kanhar river in Duddhi, Tehsil of district Sonbhadra (U.P.)

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.प्र. के जिला सोनभद्र की तहसील दुद्धी में कनहर नदी पर बनाये जा रहे बांध को लेकर आस-पास के ग्रामीण क्षेत्रों में तीव्र आन्दोलन चल रहे हैं। लेकिन इस बांध को बनाने से उपजे सवाल व गांव में अवैध भू-अधिग्रहण को लेकर सरकार द्वारा ग्रामीणों से बातचीत करने के बजाय जो दमन का रास्ता जिला प्रशासन/सरकार द्वारा अपनाया गया है, वह हमारे लोकतांत्रिक ताने-बाने, विरोध करने के जनवादी व जीने के संवैधानिक अधिकार पर सीधा हमला है।

जिला प्रशासन द्वारा स्थानीय गुंडों, दलालों, निहित स्वार्थी तत्वों जैसे सीमेंट कम्पनियां, ठेकेदारों के साथ मिलकर स्थानीय आन्दोलकारी ग्रामीणों के आन्दोलन पर हमला व गोली चलाना बेहद ही शर्मनाक घटना है।

पचास लोगों पर नामजद झूठे फर्जी मुकदमें व 500 अज्ञात पर झूठे केस कर शासन ने प्रशासन द्वारा की जा रही इस गुंडागर्दी पर मोहर लगा दी है, कि अब लोगों की भूमि अधिग्रहण करने के लिये उनकी सहमति की ज़रूरत नहीं है, बल्कि यह काम जबरदस्ती गुंडागर्दी की ताकत से किया जा सकता हा। यह बात सपा शासन के दौरान साफतौर पर सामने आ गई है।

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हैरत की बात तो यह है कि कनहर में पुलिस द्वारा गोली चलाने को तीन महीने से ऊपर हो चुके हैं, लेकिन तमाम ज्ञापनों एवं देश के तमाम जनसंगठनों द्वारा राज्य सरकार को अवगत कराने के बावजूद अभी तक राज्य सरकार द्वारा एक भी कदम नहीं उठाया गया जो लोगों के पक्ष में हो।

Agitators are in jail

9 अप्रैल 2015 से एक महिला सहित पाँच आन्दोलनकारी जेल में हैं व 30 जून 2015 से दो महिला आन्दोलकारी जेल में हैं, लेकिन तमाम प्रदर्शनों के बावजूद भी राज्य सरकार ने आन्दोलकारी संगठनों से बातचीत करना तक मुनासिब नहीं समझा।

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ऐसा नहीं कि केवल एक ही संगठन की बात हो जब से केन्द्र सरकार द्वारा नये भू-अधिग्रहण अध्यादेश (New Land Acquisition Ordinance by Central Government) को लाकर कानून बनाने की बात कही गई है, तब से देश के कई जनसंगठन एवं वामदलों से जुडे़ किसान संगठनों ने मिलकर ‘‘भूमि अधिकार आन्दोलन’’ का गठन कर कनहर नदी घाटी में हो रहे अवैध भूमि अधिग्रहण का विरोध कर रहे हैं। लेकिन राज्य सरकार इन तमाम संगठनों, इस जनआवाज को किसी प्रकार की अहमियत नहीं दे रही है।

जिस तरह से केन्द्र की एनडीए सरकार घमंड में चूर होकर देश के गरीब, किसानों, मजदूरों के साथ खिलवाड़ कर रही है, उसी प्रकार राज्य सरकार उसी चाल में चलते हुए अधिकारों की आवाज़ उठाने वालों को शान्त रखना चाहती है।

यह कहने में कोई संकोच नहीं कि इस समय प्रदेश में गुंडाराज, पुलिसिया उत्पीड़न, माफिया राज, महिला उत्पीड़न चरम सीमा पर हैं। अपराधी बाहर घूम रहे हैं, बेखौफ और निर्दोष जेल में पड़े सड़ रहे हैं। न्यायिक प्रणाली पैसों में बिक रही है और मीडिया भी दलालों, माफियाओं और शासन प्रशासन का पिछलग्गू बना हुआ है। हर क्षेत्र में स्थानीय गुंडा तत्व हावी हैं, जो कि सरकारी प्रणाली में भी अपनी मज़बूत घुसपैठ बनाए हुए हैं। उनके आगे सरकार भी बौनी है।

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सत्ता को संभालने के लिए आपसी पारिवारिक झगड़ों से जूझ रही इस सरकार के शासन में निचले स्तर तक अब अराजकता फैल चुकी है। इसलिए जल, जंगल, ज़मीन से जुडी हुई लड़ाइयों को अब व्यापक पैमाने में कैसे लड़ा जाए व राज्य एवं राष्ट्रीय स्तर पर कैसे खड़ा किया जाए यह एक चुनौती पूर्ण काम है।

कनहर परियोजना एक परितक्ता परियोजना है जिसे कि 1979 में शुरू करने की योजना थी, लेकिन इस योजना के लिए उपलब्ध फंड को उस समय 1982 में एशियाई खेलों में हस्तांतरित कर दिया गया था व राज्य सरकार द्वारा इसे बनाए जाने में कोई दिलचस्पी भी नहीं दिखाई गयी थी।

उस समय रिहन्द नदी पर एक बडा बांध तैयार हो चुका था, जिसके मद्दे-नज़र शायद इस बांध की उस वक्त कोई उपयोगिता नहीं थी। हालांकि सिंचाई विभाग द्वारा कुछ परिवारों को कुछ हल्का-फुल्का मुवाअजा दिया गया, जो कि कुछ मुट्टी भर परिवार थे, लेकिन किसी भी परिवार का भूमि अधिग्रहण नहीं किया गया। आज भी जिन गांवों की भूमि अधिग्रहण करने की सरकार योजना बना रही है, वह भूमि अभी भी खातेदारों के खातों में दर्ज है।

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Bringing a second level plan of the same level in an area that is facing a terrible displacement after an ambitious project like the Rihand Dam is a disaster.

रिहन्द बांध जैसी महत्वाकांक्षी परियोजना के बाद विस्थापन का भयानक दंश झेलने वाले इस क्षेत्र में दूसरी उसी स्तर की योजना लाना एक भयंकर त्रासदी को आंमत्रित करना है।

सिंगरौली क्षेत्र में बने रिहन्द बांध को सिंचाई के लिए ही निर्मित किया गया था, लेकिन इस बांध का पानी बांध के ईद-गिर्द बनाये गये 6 उर्जा संयत्रों को पानी देने का काम कर रहा है। इन्हीं उर्जा संयत्रों की यहां पानी को लेकर व उसके बंटवारे को लेकर दादागिरी चलती है।

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141 villages were submerged in the construction of Rihand Dam

उ.प्र. और म.प्र. में 1975 में रिहन्द बांध बनने में 141 गांव डूबे थे। इस क्षेत्र की 50,000 जनता कहां गायब हो गई यह सरकारी आंकड़ों में दर्ज ही नहीं है। बांध के बनने के बाद तमाम लोगों को बिना मुवाअजा दिये व बिना कोई वैकल्पिक व्यवस्था दिये उनकी जीवन शैली से उजाड़ दिया गया और जहां-तहां यह उजडे़ हुये लोग वनों में बस गये। जिस पर बाद में वनविभाग ने अपना कब्ज़ा बता इन्हें वहां से भी खदेड़ना शुरूकर दिया।

ऐसे कई गांव हैं, जैसे चिल्का डांड जिन्हें तीन-तीन बार उज़ाड़ा गया। आज भी वन गांव के मूल निवासी आदिवासी अभी तक बस नहीं पाए है।

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एक तरफ बांध से भूमि का जाना, दूसरी तरफ वनों को वनविभाग के अधीन करने से इस पूरे जिले सोनभद्र को पूरे देश भूमि विवादों का सबसे पेचीदा इलाका बना दिया गया। इन विवादों को सुलझाने के लिए 1972 में मंगलदेव विशारद कमेटी (Mangaldev Visharad Committee) और 1983 में माहेश्वर प्रसाद कमेटी (Maheshwar Prasad Committee) का भी गठन किया। सोनभद्र के 533 गांवों को आजा़दी के बाद भारतीय वन अधिनियम 1972 (Indian Forest Act 1972) के तहत बिना अधिकारों को सत्यापित किये कानून की धारा 20 के अन्तर्गत आरक्षित भूमि घोषित कर दिया गया।

यह विवाद इतने गंभीर थे कि जिससे यहां के आदिवासियों की भूमि की खुल्लम खुला लूट की गई।

विडम्बना यह भी थी कि इस क्षेत्र के आदिवासियों कों अनुसूचित जनजाति का दर्जा न देकर भी सरकार द्वारा सौतेला व्यवहार किया गया। जिससे वह इस क्षेत्र को अनुसूचित क्षेत्र के रूप में घोषित करने के लाभ से भी वंचित रह गए।

जल, जंगल, और जमीन की यह लूट सुनियोजित तरीके से राज्यसत्ता द्वारा की गई ताकि कम्पनीयों को इनका फायदा पहुंचाया जा सके जिसमें बिरला व टाटा कम्पनियां प्रमुख रूप से शामिल हैं।

खनिज सम्पदा से भी भरपूर इस क्षेत्र में पूजीपतियों व सरकार की ललचाई नज़र थी। उसका दोहन करने के लिये यहां के वनाश्रित समुदाय को उनकी वनसम्पदा से वंचित करना बेहद जरूरी था। धीरे-धीरे बाहरी लोग, उच्चजातिय वर्ग, पूंजीपति व सांमती वर्ग इस क्षेत्र में ताकतवर हो गया इन परियोजनाओं की वजह से जो कि कोयला खादानें, पत्थर खादानें, रेत खनन, यूरेनियम व अन्य खनिज सम्पदा पर हावी हो गये। बाहरी यहां आकर बसने लगे और आदिवासी यहां से पलायन करने लगे। जो क्षेत्र उत्तर प्रदेश का सबसे घनत्व वाला वन क्षेत्र था वहां आज 20 प्रतिशत से भी कम वन रह गये हैं तथा जहां 80 प्रतिशत आदिवासी बाहुल्य क्षेत्र था वह भी घटकर अब आधे से भी कम रह गया है। यहां के 16 जनजातीय समुदायों को सन् 2002 में ही आकर अनुसूचित जनजाति का दर्जा प्राप्त हुआ।

इसके अलावा सन् 2006 में वनाधिकार कानून पारित कर पहली बार देश की संसद ने अनुसूचित जनजाति एवं अन्य पंरम्परागत वन समुदायों को उनके वनाधिकारों की मान्यता प्रदान की। इन संसाधनों पर नियंत्रण का सवाल व पर्यावरण सुरक्षा का सवाल आज के दौर में प्रमुख सवाल के रूप में खडे़ हैं, लेकिन वहीं पूंजीपति वर्ग द्वारा इस अमूल्य सम्पदा का दोहन पूरे मानव समाज के अस्तित्व को संकट में डालने के लिए आमादा है।

पर्यावरणीय न्याय और जलवायु परिवर्तन का मुद्दा Environmental justice and climate change issue

इसी पृष्ठभूमि में कनहर पर बांध का सवाल है जो कि एक राजनैतिक एवं पर्यावरणीय दोनों सवाल हैं। इस परियोजना को अभी आधिकारिक रूप से स्वीकृति नहीं मिली है। आज के मौजूदा संदर्भ में पर्यावरणीय न्याय और जलवायु परिवर्तन का मुद्दा काफी अहम है, जिसके तहत वन अनुमति, पर्यावरण आकलन आदि को नए सिरे से करने की जरूरत है। लेकिन सरकार के पास न वनमंत्रालय का अनुमति पत्र है और न ही इस परियोजना का पर्यावरणीय आंकलन किया गया है, जबकि जो परियोजना 1980 में 27 करोड़ की थी उस परियोजना का बजट अब बढ़कर 2300 करोड़ हो गया है।

जब सरकार एवं सिचाई विभाग द्वारा कानूनी रूप से परियोजना को जरूरी दस्तावेज़ तैयार नहीं किए गये हैं, तो आखिर यह परियोजना कौन से आधार से शुरू की गई? यह एक महत्वपूर्ण प्रश्न है।

इस परियोजना के लिये कैसे केन्द्रीय जल आयोग द्वारा धनराशि उपलब्ध कराई जा रही है? यह भी एक अन्य सवाल है।

ग्रामीणों द्वारा इन दोनों सवालों को लेकर राष्ट्रीय हरित पंचाट में एक याचिका भी दायर की गई, जिसमें पंचाट ने वनअनुमति पत्र पेश न करने की सूरत में कनहर बांध में निर्माण कार्य (Construction work at Kanhar Dam) को 24 दिसम्बर 2014 को स्थगन आदेश भी दिया।

कनहर बांध का कार्य ग्रामीणों के काफी विरोध के बाद सितम्बर 2014 में शुरू किया गया। जिसके विरूद्व कनहर नदी घाटी के कई गांव जैसे सुन्दरी, तांभी, कोरची, भीसुर एवं छत्तीसगढ़ के कई गांव 23 दिसम्बर 2014 से धरने पर बैठ गये थे।

इस के साथ ही ग्रामीणों द्वारा 2013 के भूमि अधिग्रहण कानून की धारा 24(2) के तहत भी पांच ग्राम पंचायतों से इस अवैध भूमि अधिग्रहण के खिलाफ उच्च न्यायालय इलाहाबाद में भी एक याचिका दायर की हुई है जो कि अभी लम्बित है। इस परियोजना में तीन राज्यों झारखण्ड, छत्तीसगढ़ व उत्तर प्रदेश के सैंकड़ों गांव डूबेंगे लेकिन इसके बारे में स्वयं इन तीनों राज्यों को जानकारी नहीं। इस परियोजना में तीनों राज्यों की सरकारें आपस में मिली हुई हैं व यह मिलजुल कर जनता के साथ धोखाधडी कर रही हैं व जनता के संवैधानिक अधिकारों को बेशर्मी से कुचल रही है।

न्यायालयों में इस बांध एवं भूअधिग्रहण को लेकर दो-दो याचिकाएं  लम्बित हैं, लेकिन राज्य सरकारों द्वारा इन न्यायालयों की भी अवहेलना की जा रही है।

राष्ट्रीय हरित पंचाट की तरफ से 7 मई 2018 को फैसला आया है, लेकिन 50 पन्नों के इस फैसले में पंचाट ने पर्यावरण को लेकर, व खासकर के सोन नदी, कनहर, पांगन नदी के अस्तित्व को लेकर गहरी चिंता व्यक्त की है, लेकिन अंत में सरकार द्वारा किये जा रहे अपराधिक कार्य पर यह कहकर मोहर लगा दी ‘‘सरकार व सार्वजनिक पूंजी का काफी पैसा खर्च हो चुका है, इसलिये जो पुराना निर्माण कार्य चल रहा है उसे पूरा कर लिया जाए, लेकिन नये निर्माण पर पूर्ण रूप से रोक लगाई जाती है’’।

न्यायालय को तो यह भी तय करना होगा कि सार्वजनिक पूंजी क्या है क्या वो सार्वजनिक हित के खिलाफ जा रही है तब न्यायालय की क्या जवाबदेही होगी।

राष्ट्रीय हरित पंचाट के जजों का कहना है हम जो भी फैसला देते हैं उसे सरकार पालन नहीं करती। लेकिन देखने में आ रहा है कि यह पंचाट पर्यावरण के प्रश्न पर घड़ियाली आंसू जरूर बहाती है, लेकिन असल में सरकार के पक्ष में व आम जनता के खिलाफ फैसले ज्यादा है। इसके लिए ग्रामीण इन न्यायालयों तक पंहुच बनाते थक जाएंगे और यह गैरकानूनी परियोजनाएं लोगों के भविष्य पर खतरे पैदा करने का पूरा काम करती रहेंगी।

देखा जाए तो कनहर परियोजना कुल मिला कर पैसे की लूट की परियोजना है जिसमें स्थानीय निहित स्वार्थ जिला प्रशासन, सांमत, पूंजीपति, ठेकेदार सीमेंट कम्पनीयां, भूमाफिया, दलाल का गठजोड़ इतना मजबूत हो गया है कि इनकी घुसपैठ सरकार में भी काफी मजबूत है। करोड़ों रूपये का हेर-फेर, लेन-देन आदि ने स्थानीय स्तर के प्रतिनिधियों को भी अपनी लपेटे में ले लिया है।

कनहर परियोजना के लिए एक नारा दिया गया है ‘‘कनहर बांध बनाओ हरियाली लाओ’’। तथा सूखे क्षेत्र में सिंचाई की व्यवस्था कराओ। जबकि यह दोनों ही नारे गलत हैं।

कनहर नदी घाटी के आसपास का क्षेत्र व छत्तीसगढ़ एवं झारखंड से जुड़ा क्षेत्र वनसम्पदा से भरपूर है। इस परियोजना से इस पूरे इलाके का 4000 हेक्टेयर से भी ज्यादा वन, वनस्पति व जंगली जानवर लुप्त हो जायेंगे। जिसकी भरपाई करना नामुमकिन है।

(संदर्भ ग्रहण करें Order – National Green Tribunal 7th May 2015)

साथ ही बांध बनने के बाद यहां फैक्ट्रियां लगाई जायेंगी, वनों को लगाने का तो सवाल ही नहीं पैदा होता। वैसे भी वनविभाग द्वारा इन 35 वर्षों में जो भूमि अधिग्रहित की गई उस पर वनीकरण का कार्य नहीं किया गया, इस पर राष्ट्रीय हरित पंचाट (NGT) ने अपने आदेश में वनविभाग को काफी फटकार भी लगाई है। दूसरे सूखाग्रस्त इलाकों के लिए पहले ही रिहन्द बांध जैसी परियोजना सवालों के घेरों में है। ऐसे में कनहर जैसे महत्वकांक्षी योजना इस मुद्दे को कितना हल कर पाएगी इसकी क्या गांरटी है?

अगर सूखे का सवाल है भी तो उन छोटी-छोटी परियोजनाओं को क्यों नहीं चलाया गया जिससे सूखे से निपटा जा सके जिसमें वृहद् रूप से वाटरशेड तकनीक, छोटी बडी बंधिया आदि का निर्माण या पनचक्कियों का निर्माण शामिल है।

वैसे भी दुद्धी एवं आसपास के पहाड़ी क्षेत्र में आदिवासियों की भूमि का समतलीकरण अभी तक हुआ ही नहीं, उन्हें वनाधिकार कानून के तहत मान्यता मिली ही नहीं तो किसकी भूमि सिंचित करने की बात कही जा रही है।

यह उन लोगों की भूमि सिंचित करने की बात हो रही है जिन दंबग जातियों ने आदिवासियों की भूमि, ग्राम समाज की भूमि लूट कर खतौनियों में गैरकानूनी रूप से अंकित करवाया है। लेकिन पर्यावरणविदों, जनसंगठनों एवं ग्रामीणों द्वारा यह भी आंकलन किया जा रहा है कि सूखे से निपटना और हरियाली जैसा नारा देना तो एक दिखावा है, बल्कि कनहर बांध का मूल मकसद रिहन्द बांध में पानी की सप्लाई को करना है, क्योंकि वहां पर बांध में पानी को एकत्रित करना संभव नहीं है, चूंकि बारिश काफी कम हो गई है और बांध की सफाई न होने के कारण बांध में काफी रेत भर चुकी है।

यह सब कम्पनियों के इशारे पर हो रहा है, जो इन स्थानीय क्षेत्रों में प्रशासन को अपने कमांड में रख काम कर रही है। इन्हें इसमें कोई मतलब नहीं किसकी सरकार है। यह कम्पनियां चाहती हैं कि जल्द से जल्द किस तरह से प्राकृतिक संपदा की बिना टैक्स दिये बिना कानूनी प्रकिया के तहत forest clearence और Environmental Import Assessment किये बगैर लूटा जा सके।

देश में अन्य जगह परियोजनाओं के खिलाफ जनाक्रोश जैसे पास्को, नियमागिरी, महान में कोयला ब्लाक आंवटित करने आदि को लेकर यह कम्पनियां काफी सजग हैं और नहीं चाहती कि किसी प्रकार का जनाआंदोलन इन क्षेत्रों में खड़ा हो सके।

देश में कनहर की ही तरह आंध्र प्रदेश में बन रहे पोलावरम बांध परियोजना की स्थिति भी यही है, उड़ीसा में लोअर सुक्ताटेल, असम में सुबनसिरी बांध, राजस्थान में नवलगढ़ में सीमेंट फैक्ट्रिीयों के लिए भू-अधिग्रहण आदि स्थानों पर वहां की सरकार एवं प्रशासन ने जनआंदोलनों को बेहरमी से कुचलने का काम किया है।

केन्द्र सरकार द्वारा लाये गये भू-आध्यदेश को भले ही अन्य राजनैतिक दल विरोध कर रहे हों, लेकिन अपने राज्यों में इसी अध्यादेश की आड़ में भूअधिग्रहण कर जनाक्रोश को दबाकर गैर कानूनी प्रक्रिया में निर्माण कार्य शुरू किया जा रहा है। यह अपने आप में बेहद ही चिंता का विषय है। कनहर नदी घाटी में भी चल रहे आंदोलन के दमन को दोहराने का काम यहां के प्रशासन ने किया है।

कनहर बचाओ आन्दोलन एवं अखिल भारतीय वन-जन श्रमजीवी संगठन

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