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बंगाल : लोकतंत्र बेशक खतरे में है लेकिन सांप्रदायिक तानाशाही, लंपट तानाशाही का विकल्प नहीं हो सकती

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ममता बोलीं हम भाजपा जैसा उग्रवादी संगठन नहीं

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बंगाल में लोकतंत्र बेशक खतरे में है (Democracy in Bengal is undoubtedly in danger)। लोकसभा चुनाव 2019 के बाद फूटी हिंसा (Violence after Lok Sabha election 2019) ने बेशक इस खतरे को और रेखांकित किया है। लेकिन यह न बंगाल में लोकतंत्र के लिए खतरे की शुरूआत है और न अंत। और बंगाल में लोकतंत्र के लिए खतरे का स्रोत भी सिर्फ वही नहीं है जो दिखाने की कोशिश की जा रही है--सत्ताधारी ममता बनर्जी की विरोधियों को हिंसा और जोर-जबर्दस्ती से कुचलने की कोशिश।

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खतरे का रूप भी वही नहीं है जो दिखाने की कोशिश की जा रही है--लोकसभा चुनाव में 40 फीसद वोट के साथ 18 सीटें जीतने की भाजपा की अभूतपूर्व कामयाबी के बाद, तृणमूल कांग्रेस का बौखलाहट में उस पर हमला बोल देना। और बंगाल में जनतंत्र की रक्षा का रास्ता भी वह हर्गिज नहीं है जो दिखाने की कोशिश की जा रही है-- लोकसभा चुनाव की कामयाबी को तार्किक परिणाम तक पहुंचाते हुए भाजपा का, तृणमूल को हटाकर बंगाल फतेह करना!

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बेशक, केंद्र में सरकार पर अपने नियंत्रण और कारपोरेट संचालित मीडिया (Corporate driven media) के बड़े हिस्से की सक्रिय मदद से, संघ-भाजपा यह नैरेटिव चलाने में दूर तक कामयाब रहे हैं कि बंगाल में वे, तानाशाह ममता बनर्जी को हटाकर, जनतंत्र बहाल करने की लड़ाई लड़ रहे हैं। लोकसभा चुनाव की कामयाबी से बढ़ी उनकी आक्रामकता और सत्ता हाथ से खिसकती देखकर तृणमूल के बदहवास जवाब के दुष्चक्र में सामने आयी चुनवोत्तर हिंसा ने, उक्त नैरेटिव को और चलन में ला दिया है। लेकिन, यह नैरेटिव इस माने में एक झूठा नैरेटिव है कि यह जितना सच दिखाता है, उससे ज्यादा छुपाता है। इस सचाई को समझने के लिए सिर्फ एक उदाहरण काफी है। बशीरहाट में भाजपा-तृणमूल कांग्रेस के हिंसक टकराव से पहले, जिसमें लगभग सांप्रदायिक झड़प के जैसे हालात में तृणमूल के एक और भाजपा के दो कार्यकर्ताओं की मौत हुई थी और जिसके बाद से बंगाल में कानून व व्यवस्था की स्थिति बिगडऩे का शोर राष्ट्रीय मीडिया तक पहुंच गया था, दक्षिण 24 परगना जिले में मथुरापुर के एक गांव में सत्ताधारी तृणमूल कांग्रेस के एक गिरोह ने सीपीआई(एम) कार्यकर्ता, राजू हलदार को घर में घुसकर काट डाला। राष्ट्रीय ही नहीं, क्षेत्रीय मीडिया में भी प्राय: अनदेखी ही रह गई यह हत्या, हाल के आम चुनाव में सीपीआई(एम) के लिए काम करने की सजा थी।

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सबसे ज्यादा जानें वामपंथी कार्यकर्ताओं की ही गईं

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क्षेत्रीय मीडिया ने चुनाव में वामपंथ की मौजूदगी को भले ही ब्लैक आउट कर दिया हो, पर यह नहीं छुपा सका कि सात चरणों के चुनाव में सत्ताधारी तृणमूल कांग्रेस की हिंसा (Violence of Trinamool Congress) में सबसे ज्यादा जानें वामपंथी कार्यकर्ताओं की ही गई थीं--पांच! वास्तव में चुनाव के दौरान और अब चुनाव के बाद, सत्ताधारी तृणमूल कांग्रेस की वामपंथ के खिलाफ यह हिंसा, 2011 में तृणमूल कांग्रेस के इस राज्य में सत्ता में आने के बाद से लगातार जारी बर्बर हिंसा तथा दमनचक्र का ही हिस्सा है।

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आठ सालों में सीपीआई(एम) के 217 कार्यकर्ताओं की हत्या की गई 217 workers of CPI (M) were killed in eight years

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इन आठ सालों में सीपीआई(एम) के 217 कार्यकर्ताओं की हत्या की गई है, पार्टी तथा वामपंथी जनगंठनों के हजारों कार्यालयों पर जबरन कब्जे किए गए हैं या उन्हें नष्ट कर दिया गया है, दसियों हजार कार्यकर्ताओं पर मुकद्दमे थोप दिए गए हैं और दसियों हजार दूसरों को जान-बचाने के लिए अपने गांव-घर छोडऩे के लिए मजबूर कर दिया गया है। यह दूसरी बात है कि राज्य में सत्ता में काबिज होने के बाद से ही तृणमूल कांग्रेस ने राज्य में वामपंथ को सांगठनिक रूप से पंगु करने की जो मुहिम छेड़ रखी थी, उसका ज्यादा फायदा उसकी जगह अब भाजपा को मिल रहा है जो ‘इस बार राम, फिर वाम’ जैसे नारों से वामपंथ के समर्थकों के भी खासे बड़े हिस्से को भरमाने में कामयाब रही है कि वामपंथ के कमजोर हो जाने के चलते, तृणमूल की तानाशाही से उनका गला अब भाजपा ही छुड़ा सकती है, जिसकी पीठ पर केंद्र सरकार का हाथ है।

केंद्र सरकार की मदद से बंगाल में लोकतंत्र की रक्षा का क्या मतलब है, इसका कुछ अंदाजा चुनावोत्तर हिंसा के संकट के सामने, जितना भाजपा की आक्रामक सांप्रदायिक मुहिम से लगाया जा सकता है, उतना ही केंद्र के प्रतिनिधि के नाते राज्यपाल के पद पर बैठे, पूर्व-भाजपा नेता केसरीनाथ त्रिपाठी के कदमों से लगाया जा सकता है।

बेशक, राज्यपाल ने चुनावोत्तर हिंसा की रोक-थाम के लिए 13 जून को राज्य की चार प्रमुख राजनीतिक पार्टियों की बैठक बुलाकर, अपनी वैध जिम्मेदारी ही पूरी नहीं की है, राष्ट्रपति शासन की अफवाहों पर एक तरह से विराम लगा दिया है। लेकिन, इससे पहले खुद राज्यपाल त्रिपाठी ने ही मोदी-2 के गृहमंत्री अमित शाह तथा खुद प्रधानमंत्री से मुलाकात कर, उन्हें हालात की जानकारी देने के लिए अपने दिल्ली के दौरे के जरिए, इन अफवाहों को हवा दी थी।

ऐसा लगता है कि संघ-भाजपा का आकलन है कि राष्ट्रपति शासन का दांव, मोदी-2 की शुरूआत को ही विवादित बनाने के अलावा, बंगाल में जनता के बीच उल्टा भी पड़ सकता है। इसलिए, फिलहाल तख्तापलट नहीं। हां! तृणमूल कांग्रेस में तोड़-फोड़ तथा खरीद-फरोख्त और उसके राज के खिलाफ आक्रामक अभियान बदस्तूर जारी रहेगा।

फिर भी यह पूछा जा सकता है कि वामपंथ के लिए और बंगाल की जनता के ही लिए, ममता बनर्जी की तानाशाही (Dictatorship of Mamta Banerjee) से बुरा क्या हो सकता है? उससे केंद्र में शासन के सहारे अगर भाजपा जान छुड़ा सकती है तो वही सही। हाल के चुनाव में बंगाल में अनेक वामपंथ समर्थकों ने यही सोचकर वोट भी डाला लगता है। लेकिन, ममता बनर्जी की तानाशाही का विकल्प भाजपा की तानाशाही नहीं हो सकती है।

त्रिपुरा में पिछले विधानसभा चुनाव में वामपंथविरोधी गिरोहबंदी के जरिए भाजपा के सत्ता पर काबिज होने के बाद गुजरे पंद्रह महीनों में जो कुछ हुआ है, यह साबित करने के लिए काफी है कि भाजपा की तानाशाही कोई विकल्प नहीं है। वास्तव में त्रिपुरा में भाजपा, विपक्ष के रूप में वामपंथ को पंगु करने के लिए वही सब करने में लगी रही है, जो ममता बनर्जी ने बंगाल में किया है।

इसमें सिर्फ चालीस लाख की आबादी वाले इस छोटे से राज्य में पंद्रह महीने में सात सीपीआई(एम) कार्यकर्ताओं की बर्बर हत्या भी शामिल है।

यह याद रखने वाली बात है कि अगर पिछले साल के पंचायत चुनावों में एक-तिहाई से ज्यादा सीटों पर जबरन कब्जा करने की अति ने तृणमूल की तानाशाही को पूरी तरह से उजागर कर दिया था, तो त्रिपुरा में तो भाजपा राज ने पंचायत चुनाव में अस्सी फीसद से भी ज्यादा सीटों पर ‘निर्विरोध’ चुनाव की आड़ में ऐसे ही कब्जा किया था। और यह तब था जबकि इन सीटों को निर्वाचित वामपंथी प्रतिनिधियों से डरा-धमकाकर खाली कराया गया था।

हाल के लोकसभा चुनाव में भी त्रिपुरा की कुल दो लोकसभाई सीटों में से एक पर भाजपा राज ने ऐसी खुली और थोक के हिसाब से धांधली की थी कि ‘वफादार’ चुनाव आयोग को भी करीब डेढ़ सौ मतदान केंद्रों पर दोबारा मतदान कराना पड़ा था, जो 2019 के लोकसभा चुनाव में किसी भी सीट पर कराया गया सबसे ज्यादा पुनर्मतदान था।

दरअसल, मेहनतकश जनता का प्रतिनिधित्व करने वाले वामपंथ के खिलाफ, तृणमूल, भाजपा, सब को तानाशाही भाती है। वास्तव में 2011 में ममता बनर्जी के जरिए वामपंथ को चुनाव में हराने के लिए वे सब एकजुट ही नहीं हो गए थे, 2014 के लोकसभा चुनाव की पूर्व-संध्या तक नरेंद्र मोदी और आरएसएस ‘‘बंगाल के दोनों हाथों में लड्डू’’ ही देख और दिखा रहे थे और केंद्र में मोदी, बंगाल में दीदी का समीकरण बैठा रहे थे।

साफ है कि मेहनतकश जनता के लिए उनके बीच चुनने के लिए कुछ नहीं है। हां! भाजपा की तानाशाही के खंजर में एक जहर और लगा हुआ है, बहुसंख्यकवादी सांप्रदायिकता का जहर। यह जहर, मेहनतकशों की मेहनतकश पहचान को ही मिटाकर, उन्हें सांप्रदायिक आधार पर बांटकर, बेआवाज कर देता है। उदाहरण के तौर पर तृणमूल कांग्रेस पर चोट करने के लिए भाजपा इस समय भी बंगाल में, एक सरकारी अस्पताल में हुई इलाज के दौरान दम तोडऩे वाले एक मरीज के परिजनों और डाक्टरों के बीच मारपीट की घटना को, सिर्फ इस आधार पर मुस्लिमविरोधी रूप देने में लगी हुई है कि मरने वाला मरीज, मुसलमान था!

ऐसा विपक्ष सत्ता पर कब्जा तो कर सकता है, पर तानाशाही का विकल्प नहीं दे सकता है। सांप्रदायिक तानाशाही, लंपट तानाशाही का विकल्प नहीं हो सकती।                                           

0 राजेंद्र शर्मा

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