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दिग्विजय ही करेंगे बेड़ा पार !

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hastakshep
24 May 2019
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क्या शिवसेना हिन्दू धर्म की काशी के ब्राह्मणों से बड़ी रक्षक है?

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सत्रहवीं लोकसभा चुनाव (Seventh Lok Sabha election) में भाजपा (BJP) प्रचंड बहुमत के दम पर हिंदुत्व और राष्ट्रवाद (Hindutva and nationalism) को खुद को पर्याय बनाने में भले ही सफल रही हो, और भाजपा को इस बात का इल्म हो गया है कि भारतीय हिंदुत्व पर उसी का एकमात्र अधिकार है...लेकिन यह भाजपा की अतिउत्साही सोच हो सकती है। भाजपा के इस जोश को अगर कोई टक्कर दे सकता है तो वह कोई और नहीं, बल्कि कांग्रेस के दिग्विजय सिंह (Digvijaya Singh)

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दिग्विजय सिंह भोपाल लोकसभा क्षेत्र (Bhopal Lok Sabha constituency) से चुनाव भले ही हिंदुत्ववाद की समर्थक प्रज्ञा ठाकुर (Pragya Thakur) से हार गए हों, लेकिन भारतीय हिंदुत्व का रासायनिक समीकरण बनाकर उसे राजनीति में इस्तेमाल करने का अगर किसी के पास हुनर है तो वह एकमात्र दिग्विजय सिंह हैं।

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कांग्रेस आलाकमान राहुल गांधी जनेऊ दिखाकर और मंदिर में पूजा करके अपने चरित्र की कला को सार्वजनिक कर सकते हैं, लेकिन उसका राजनीतिक इस्तेमाल करने का हुनर राहुल गांधी को नहीं आता है।

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अगर कांग्रेस को भाजपा के हिंदुत्व से मुकाबला करना है तो कांग्रेस को कायदे से दिग्विजय सिंह को कांग्रेस का रथ थमा देना चाहिए, क्योंकि धर्म उनके सदगुण का विषय है और दिग्गी के पास भाजपा से लड़ने के लिए मानसिक गुण भी है।

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यदि कांग्रेस दिग्विजय सिंह को यह जिम्मेदारी नहीं देती है तो आगामी हर चुनाव में गुजराती बंधु हिंदुत्व की नाव पर सवार होकर भारतीय लोकतंत्र की नाव को हांकते रहेंगे और हम समीक्षा बैठकर अगले चुनाव का इंतजार करते रहेंगे। इससे न तो राजनीति परिपक्व होगी और न ही व्यक्तित्व... अगर कुछ विकसित होगा तो हमारे अंदर की कायरता और भाग्यवाद।

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भोपाल लोकसभा संसदीय सीट, जो भाजपा की गढ़ थी, कांग्रेस ने भाजपा से यह सीट हथियाने के लिए दिग्विजय सिंह पर भरोसा जताया था... और पूरे चुनाव प्रचार के दौरान दिग्गी राजा ने जिस तरह सॉफ्ट हिंदुत्व का आसरा लेकर खुद को मैदान में अंत तक खड़ा किया था यह सदगुण के बिना संभव भी नहीं था। यह अलग बात है कि कांग्रेस का यह प्रयोग सफल नहीं हो पाया... लेकिन कांग्रेस की प्रयोग की सार्थकता पर आज कोई भी सवाल नहीं उठा सकता।

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सत्रहवीं लोकसभा बीजेपी बहुत ही बुरे तरीके से हारती, लेकिन गुजराती बंधुओं ने वर्ष 2004 के लोकसभा चुनाव में वाजपेयी की हार से सबक लेकर इस बात की गांठ बांध ली थी कि भारत में चुनाव विकास के नाम पर नहीं, बल्कि धर्म के नाम पर जीता जा सकता है... और आप खुद देखिए यह देश का शायद पहला ऐसा चुनाव होगा जहां गंभीर मुद्दों का अभाव था। भाजपा भी हिंदुत्व और राष्ट्रवाद के आसरे चक्रव्यूह बना रही थी...लेकिन कांग्रेस भाजपा के इस मंत्र का काट समय रहते नहीं खोज पाई थी।

अगर कांग्रेस दिग्विजय सिंह के हाथ में पार्टी की शासन सत्ता सौंपती है तो निःसंदेह दिग्गी राजा भाजपा के लिए हर रोज एक नई चुनौती देंगे... क्योंकि कांग्रेस में दिग्गी ही एकमात्र ऐसे शख्स हैं जो गुजराती बंधुओं के दिमाग की कलई खोल सकते हैं।

वहीं अगर कांग्रेस को भारतीय राजनीति में बने रहना है तो उसे निम्न- मध्यमवर्गीय युवाओं को राजनीति में आने का मौका देना होगा, क्योंकि भारतीय समाज यह बात घर कर गई है कि कांग्रेस राजे- रजवाड़ों की पार्टी है...और यह राजे- रजवाड़े राजनीति को मनोरंजन का विषय समझते हैं। यही वजह है कि कांग्रेस का हर नेता सार्वजनिक तौर पर तभी दिखाई देता है जब सामने कोई चुनाव हो।

कांग्रेस को धर्म को लेकर अपनी आंतरिक सोच को अब पूरी तरह से स्वीकारते हुए सामने आना होगा। वह धर्म चाहे किसी भी जाति को लेकर क्यों न हो... ऐसा नहीं हो सकता कि इस्लाम को लेकर सोच कोई दूसरी हो ओर हिंदू को लेकर कोई दूसरी... अगर कांग्रेस इन विषयों को स्थूलता के साथ राजनीति में लेकर आती है तभी वह भाजपा को टक्कर दे सकती है।

जाति और धर्म, भारतीय राजनीति का मूलाधार है... हम भले ही आधुनिक और सभ्यता का मुखौटा पहनकर इस तर्क को न स्वीकारें लेकिन समाज की सोच में यह दोनों तथ्य जड़ की तरह बद्धमूल हो चुका है। सत्तर के दशक में इंदिरा गांधी इस बात को भलि भाँति समझ गई थीं। इंदिरा गांधी इसे व्यावहारिक रूप देतीं, उससे पहले ही अटल बिहारी वाजपेयी को इंदिरा गांधी में दुर्गा का रूप दिखाई देने लगा था। यह अलग बात है कि इंदिरा गांधी पंजाब की समस्या को खत्म करने के बाद राजनीति में कोई नया प्रयोग नहीं कर पाईं, उसके बाद कांग्रेस का कमान राजीव गांधी के पास आता है लेकिन राजीव को भी राजनीति में कोई नवाचार करने का बहुत ज्यादा समय नहीं मिल पाता है... उसके बाद कांग्रेस सामंतवाद की जड़ों में ऐसे घिर गई कि उसे इस बात का एहसास हो गया कि जनता जब दूसरी राजनीतिक पार्टियों से बोर हो जाएगी तो कांग्रेस को स्वयं मौका देगी...लेकिन सत्रहवीं लोकसभा ने कांग्रेस के इस भ्रम को भी तोड़कर रख दिया है।

कांग्रेस को दस जनपथ के अलावा भी एक ऐसा पथ तैयार करना होगा जहां एक आम आदमी आए और बोले कि वह कांग्रेस के लिए कुछ करना चाहता है। मतलब हर स्टेट में आपको एक नए क्षत्रपों की फौज खड़ी करनी होगी और यह क्षत्रप निम्न मध्यमवर्गीय और मध्यमवर्गीय समाज के चेहरे होने चाहिएं... अगर कांग्रेस ऐसा कुछ करती है तो निश्चित ही 2024 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस बेहतर वापसी कर सकती है।

नीतीश मिश्र

(लेखक भोपाल स्थित पत्रकार हैं। )

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