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Atal Bihari Vajpayee and RSS's discovery of masks
बुनियादी तौर पर आरएसएस का स्वयंसेवक ही थे अटलबिहारी वाजपेयी
भाजपा और उसके माध्यम से उसके संचालक, आरएसएस को धर्मनिरपेक्ष संविधान के अंतर्गत देश की सत्ता के केंद्र तक पहुंचाने के बाद प्रधानमंत्री को पद पर बैठे अटलबिहारी वाजपेयी को, भाजपा के तत्कालीन महासचिव गोविंदाचार्य ने ब्रिटिश कूटनीतिज्ञों के साथ बातचीत में जब भाजपा तथा उसके नेतृत्ववाली सरकार का ‘मुखौटा’ और आडवाणी को असली निर्णयकर्ता कहा था, इसके लिए उन्हें काफी कीमत चुकानी पड़ी थी। वास्तव में गोविंदाचार्य को, जिन्हें आरएसएस के विशेष रूप से नजदीक तथा उसमें काफी वैचारिक प्रभाव रखने वाला माना जाता था, इसके लिए अंतत: पार्टी से और एक माने में आरएसएस से भी, स्थायी वनवास पर जाना पड़ा। लेकिन, गोविंदाचार्य ने जो कुछ कहा था उसमें कम से कम इतना सच जरूर था कि भाजपा समेत समूचे संघ परिवार का संचालक, आरएसएस जरूर अटल बिहारी वाजपेयी को अपना राजनीतिक ‘मुखौटा’ ही मानता था।
मुखौटा मतलब
मुखौटा यानी वह चेहरा या व्यक्तित्व, जिसे आगे कर के वह इस धर्मनिरपेक्ष, जनतांत्रिक व्यवस्था वाले देश में, अपने उन असली राजनीतिक लक्ष्यों को हासिल कर सकता था, जिन्हें वह अपने वास्तविक चेहरे के साथ आसानी से हासिल नहीं कर सकता था।
कहने की जरूरत नहीं है कि अटल बिहारी वाजपेयी खुद को आरएसएस के मुखौटे के रूप में नहीं देखते होंगे। वाजपेयी के लिए ‘मखौटा’ वाली टिप्पणी के बाद, जो वाजपेयी के लिए जितनी अपमानजनक थी, उतनी ही उनकी सरकार में घोषित रूप से नंबर टू माने जाने वाले आडवाणी के लिए तथा परोक्ष रूप से आरएसएस के लिए भी सराहनात्मक भी थी, गोविंदाचार्य का जो हश्र हुआ, उससे अपने इस तरह के चरित्रांकन पर वाजपेयी की नाराजगी का अंदाजा लगाया जा सकता है।
गोविंदाचार्य और संजय जोशी
सचाई यह है कि अपनी आम छवि के विपरीत और गोविंदाचार्य की सारी सफाइयों के बावजूद, इस मामले में वाजपेयी ने उसी प्रकार गोविंदाचार्य का हाशिए पर धकेला जाना सुनिश्चित किया था, जैसे इसके एक दशक से ज्यादा बाद में नरेंद्र मोदी ने, भाजपा का प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किए जाने से काफी पहले ही, आरएसएस से ही घनिष्ठ रूप से जुड़े, संजय जोशी के मामले में सुनिश्चित किया था।
वास्तव में पचास के दशक के आरंभ से लगाकर, छ: दशक से कुछ ही कम के अपने लंबे, घटनापूर्ण तथा काफी उतार-चढ़ाव भरे राजनीतिक कैरियर में, वाजपेयी ने अनेक मौकों पर यह दिखाया भी था कि वह, आरएसएस के संसदीय/ राजनीतिक प्रतिनिधि भर नहीं हैं। विशेष रूप से साठ के दशक के उत्तरार्द्ध में भारत में कांग्रेस के गैर-वामपंथी विरोध की राजनीति के जोर पकड़ऩे के साथ और दीनदयाल उपाध्याय के निधन के बाद, वाजपेयी जनसंघ के ऐसे सबसे बड़े नेता के रूप में सामने आये थे, जिसकी अन्य विरोधी नेताओं के बीच स्वीकार्यता थी। इसे इस दशक के अंत में बनी संविद सरकारों के जरिए जनसंघ के पहली बार कई राज्यों में सत्ता तक पहुंचने ने पुख्ता किया था। दशक के आखिर में इंदिरा गांधी की आंधी में लगे धक्के के बाद भी यह प्रक्रिया रुकी नहीं। और जेपी आंदोलन ने जनसंघ तथा वास्तव में आरएसएस को भी इस स्वीकार्यता के दायरे में खींच लिया। लेकिन, इस स्वीकार्यता में एक तनाव था, जिसे इमर्जेंसी के बाद, जनता पार्टी के बनने और टूटने के घटनाक्रम ने उजागर कर दिया।
अन्य विपक्षी पार्टियों को एक दक्षिणपंथी पार्टी के रूप में जनसंघ तो उसी तरह मंजूर थी, जिस तरह उन्हें एक जमाने में स्वतंत्र पार्टी मंजूर थी। लेकिन, उन्हें आरएसएस से संचालित जनसंघ मंजूर नहीं थी।
जनसंघ को आरएसएस के शिकंजे से छुड़ाने की इसी खींच-तान में, जनता पार्टी टूट गयी और अंतत: आरएसएस के साथ रिश्ते के सवाल का स्पष्ट जवाब देते हुए, भाजपा की स्थापना की गयी। यह गौरतलब है कि इस पूरी रस्साकशी में अटल बिहारी वाजपेयी की, जनता पार्टी सरकार में अपने जनसंघ के सहयोगी लालकृष्ण आडवाणी से भिन्न कोई राय रही हो, इसका कम से कम अब तक कोई सबूत सामने नहीं आया है। लेकिन, इस बीच वाजपेयी भाजपा के सबसे बड़े नेता के रूप में स्थापित हो चुके थे और जनता पार्टी से टूटकर आए गैर-जनसंघ तत्वों को नयी पार्टी में कंसोलिडेट करने की कोशिश में वाजपेयी ने भाजपा को आरएसएस की विचारधारा के लिए विजातीय, ‘गांधीवादी समाजवाद’ के रास्ते पर ले जाने की कोशिश भी की, जो अल्पजीवी साबित हुई।
श्रीमती इन्दिरा गांधी की हत्या की पृष्ठभूमि में हुए 1984 की चुनाव में भाजपा के लगभग सफाए के बाद, ‘राम मंदिर’ आंदोलन पर केंद्रित राजनीति ज्यादा से ज्यादा खुलकर भाजपा के केंद्र में आती गयी। इसके साथ ही नेतृत्व का संतुलन भाजपा में आडवाणी के पक्ष में और कुल मिलाकर आरएसएस के पक्ष में झुकता चला गया।
इसके बावजूद और बाबरी मस्जिद के ध्वंस के बाद, आरएसएस के अनुमोदन के साथ आडवाणी के भाजपा में सबसे बड़ा नेता बन जाने के बावजूद, 1996 के चुनाव में जब भाजपा को पहली बार केंद्र में सत्ता अपनी पहुंच में दिखाई दे रही थी, वाजपेयी को भाजपा के नेतृत्व के लिए चुना गया। सभी साक्ष्यों के अनुसार, इसकी पहल खुद आडवाणी ने की थी, जबकि आरएसएस ने इसे अनिच्छापूर्वक ही स्वीकार किया था। इस अनिच्छा का मुख्य कारण यह था कि जिस राम मंदिर आंदोलन के बल पर भाजपा सत्ता में पहुंचती दिखाई दे रही थी, उसका वाजपेयी ने किसी महत्वपूर्ण मौके विरोध तो नहीं किया था, लेकिन ऐसे हरेक मौके पर उन्होंने अपने आप को इस आंदोलन की मुख्यधारा से अलग जरूर रखा था। यहां तक कि बाबरी मस्जिद के ध्वंस की पूर्व-संध्या में भी वाजपेयी ने अगर लखनऊ जाकर, विवादित स्थल पर कारसेवा को उचित ठहराया था, तो वह अगले दिन अयोध्या जाने के बजाए, दिल्ली लौट भी आए थे। और अगर स्मृति धोखा नहीं कर रही है तो सबसे पहले उन्होंने ही बाबरी मस्जिद के ध्वंस को खेदजनक कहा था।
अगर इसके बावजूद, मुंबई के अस्पताल में भर्ती फर्नांडीस से मुलाकात के फौरन बाद आडवाणी ने, वाजपेयी के नेतृत्व में ही चुनाव लड़ा जाने का एलान किया था और आरएसएस ने मन मारकर ही सही इसे स्वीकार लिया था, तो इसीलिए कि एक ओर उन्हें इसका एहसास था कि आरएसएस की कट्टरता से अलग होने की वाजपेयी छवि ही, अन्य विपक्षी पार्टियों में स्वीकार्यता के जरिए, सत्ता का उनके हाथ में आना सुनिश्चित कर सकती है। दूसरी ओर, उन्हें इसका भी पता था कि बुनियादी तौर पर आरएसएस का स्वयंसेवक होने के नाते वाजपेयी, अंतत: आरएसएस के कहे से बाहर नहीं जा सकते हैं। भिन्न दिखाई देते हुए भी, अपेक्षाकृत लंबी रस्सी से ही सही, अंतत: खूंटे से बंधे रहने की वाजपेयी की इस विशिष्टïता की, अपने सांप्रदायिक आधारों के बावजूद भाजपा-आरएसएस को इस देश में ‘सामान्य’ बनवाने के लिए उस दौर में भारी उपयोगिता थी। जाहिर है कि इस उपयोगिता में, एक तनाव तथा टकराहट भी शामिल है। वजापेयी की तीसरी सरकार में यह टकराहट, वित्त मंत्री के चयन जैसे मामलों में भी सामने आयी थी। लेकिन, अंतत: हुआ आरएसएस का मनचीता ही। ठीक इसी सचाई को गोविंदाचार्य ने कुछ अप्रिय लगने वाले शब्दों में ‘मुखौटा’ कहकर व्यक्त किया था। याद रहे कि यह रिश्ता तब भी नहीं बदला था, जब 2002 के गुजरात के नरसंहार के बाद, वाजपेयी ने नरेंद्र मोदी को मुख्यमंत्री पद से हटाने की कोशिश की थी। वास्तव में भाजपा की राष्टï्रीय कार्यकारिणी की गोवा में हुई बैठक में मोदी को हटाने में विफल होने के बाद, जनसभा में वाजपेयी ने अल्पसंख्यकों के नरसंहार पर लीपापोती करने के लिए जैसा सांप्रदायिक भाषण दिया था, वैसे भाषण नरेंद्र मोदी ही गुजरात में दिया करते थे।
यह प्रश्न बेमानी है कि संघ से बंधे रहते हुए भी, उससे कुछ दूरी बनाकर चलने की यह छवि, वाजपेयी की कार्यनीति भर थी या यही उनका मिजाज या स्वभाव था। मुख्य बात यह है कि यही वाजपेयी की वास्तविक राजनीतिक छवि थी और इस छवि को वाजपेयी ने अपने लिए सचेत रूप से गढ़ा था और इसकी बराबर रक्षा भी करते थे। हर तरह के लोगों के प्रति, भिन्न विचारों के प्रति, आलोचनाओं के प्रति उनके खुलेपन का अनुभव, उन सभी लोगों को है, जिनका उनसे साबका पड़ा होगा। इसका बेशक, संघ तथा उसके राजनीतिक बाजू के रूप में भाजपा को भारी फायदा हुआ है। वास्तव में यह कहने में अतिशयोक्ति नहीं होगी कि अगर राम मंदिर आंदोलन की उग्र-सांप्रदायिक कट्टïरता के जरिए, आरएसएस तथा उसके मुख के नाते आडवाणी ने भाजपा को सत्ता के पास तक पहुंचाया था, तो अपनी उनसे कुछ दूरी बनाकर चलने छवि से वाजपेयी ने उसे सत्ता के केंद्र तक पहुंंचाया है। लेकिन, अब जब संघ/भाजपा सत्ता के केंद्र तक पहुंच चुके हैं, उनके लिए ऐसे मुखौटे की जरूरत ही खत्म हो गयी है। जब असली चेहरे से सत्ता तक पहुंचा जा सकता हो, मुखौटों के नखरे संघ क्यों उठाने लगा?